सियाराम पांडेय ‘शांत’
लखनऊ। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 11 जिलों के 58 विधानसभा क्षेत्र राजनीतिक विमर्श के केंद्र में हैं। यहां 10 फरवरी को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले चरण का मतदान होना है। ये जिले उत्तर प्रदेश की भावी राजनीति की आधारशिला रखेंगे। कुछ राजनीतिक दलों का जोश बढ़ाएंगे तो कुछ को तनाव में लाएंगे।
भाजपा फिलवक्त यहां 53 सीटों पर काबिज है। दो सीट सपा, दो बसपा और एक रालोद के पास है। इस लिहाज से देखें तो सपा, बसपा, रालोद और कांग्रेस के पास यहां खोने के लिए कुछ नहीं है, उन्हें बस पाना ही है। जबकि भाजपा के समक्ष अपना गढ़ बचाने की चुनौती है। उसे यहां कुछ और सीटें जीतनी भी हैं लेकिन केंद्र सरकार के तीन नए कृषि कानूनों के विरोध में साल भरे चले किसान आंदोलन के संभावित असर को लेकर वह चिंतित है। इससे निपटने की सुचिंतित योजना के तहत काम भी कर रही है। भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष नरेश टिकैत और प्रवक्ता राकेश टिकैत के बदलते बोल-वचन इस ओर बहुत हद तक इशारा भी कर रहे हैं।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश की पहचान गन्ना बेल्ट और औद्योगिक हब के रूप में है। किसानों को न तो समय पर गन्ना का भुगतान हो पाता था, न ही बिजली, पानी उपलब्ध हो पाता था। आए दिन होने वाले दंगों ने यहां कानून-व्यवस्था पर सवाल खड़े कर दिए थे। यह सच है कि योगी आदित्यनाथ सरकार ने समय पर किसानों का रिकार्ड 1.52 लाख करोड़ का गन्ना भुगतान कराया। बिना किसी भेदभाव के बिजली की आपूर्ति सुनिश्चित कराई और विधि का शासन भी स्थापित किया।
पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की कर्मभूमि रमाला में बंद हो चुकी चीनी मिल को न केवल शुरू कराया बल्कि 20 से अधिक चीनी मिलों का आधुनिकीकरण और विस्तारीकरण भी किया। गन्ना मूल्य में 25 से 35 रुपये प्रति कुंतल की बढ़ोतरी की। अलीगढ़ से लेकर झांसी तक डिफेंस कॉरिडोर की स्थापना की। माफियाओं की संपत्ति जब्त की, उस पर बुलडोजर चलवाए। इससे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की आम जनता राहत महसूस कर रही है और भाजपा को लगता है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उसने जितने विकास कार्य किए हैं, वे ही उसे जिताने के लिए काफी हैं। बची-खुची कसर बसपा और सपा-रालोद गठबंधन के उम्मीदवारों की दमदार उपस्थिति पूरी कर देगी। असदुद्दीन ओवैसी और चंद्रशेखर रावण की पार्टी के प्रत्याशी भी तो कुछ वोट पाएंगे ही।
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भाजपा को लगता है कि पश्चिम की जंग फतह करने के लिए इतना ही बहुत है। यूं तो जो भी सरकार सत्ता में होती है, वह अपने स्तर पर विकास करती ही है लेकिन अगर विकास में भी अंधे की रेवड़ी बंटने जैसा नजर आने लगे तो कोफ्त तो होता ही है। भाजपा ने सबको साथ लेकर चलने की जो कोशिश की है, इस चुनाव में वह उसका मजबूत संबल बन सकती है।
गौरतलब है कि वर्ष 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के चलते पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की हवा बदल गई थी। यही वजह थी कि 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा का पलड़ा सब पर भारी रहा। इतिहास गवाह है कि मुजफ्फरनगर दंगे से पहले तक इस इलाके में बसपा बेहद मजबूत स्थिति में होती थी। वर्ष 2012 में जब उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी थी तब भी इस क्षेत्र में बसपा को सर्वाधिक सीटें मिली थीं।
हालांकि इस बार पश्चिमी उत्तर प्रदेश की धरती के समीकरण कुछ बदले-बदले से हैं। किसान आंदोलन भले समाप्त हो गया हो लेकिन उसके असर को लेकर सपा, बसपा, रालोद, कांग्रेस आदि दल बेहद उत्साहित हैं। उन्हें लगता है कि किसान कुछ बड़ा करेंगे। सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने अगर हाथ में अन्न लेकर किसानों का उत्पीड़न करने वालों का सफाया करने का संकल्प लिया तो इसके पीछे किसानों को अपनी ओर आकृष्ट करने की राजनीति ही प्रमुख है।
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भाजपा के रणनीतिकारों का मानना है कि विपक्षी दल केवल किसान-किसान खेलते रहे हैं। किसानों का हित तो भारतीय जनता पार्टी के कार्यकाल में हुआ है। वह पहले से कहती रही है कि दिल्ली बार्डर पर आंदोलन करने वालों का किसानों से कोई लेना-देना नहीं है। किसान अपने खेतों में काम कर रहा है। देश के हाथों को मजबूत कर रहा है। अपने इस दृढ़ विश्वास के आधार पर वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के बीच हैं।
गौरतलब है कि वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 11 जिलों मुजफ्फरनगर, मेरठ, बागपत, शामली, हापुड़, बुलंदशहर, आगरा, मथुरा, अलीगढ़, नोएडा और गाजियाबाद की 58 विधानसभाओं में 53 सीटें भाजपा के खाते में गई थीं लेकिन इस बार पश्चिमी उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल का गठबंधन भाजपा के लिए बड़ी चुनौती है। जिस तरीके से भाजपा मथुरा और कृष्ण का मुद्दा उछाल रही है, उससे ध्रुवीकरण को मजबूती मिल सकती है। हालांकि इस इलाके में किसानों के गन्ना भुगतान से लेकर किसानों के बिजली के बड़े बिल आधे करने जैसे मुद्दे भी हैं, लेकिन वह भाजपा के लिए कितना मुफीद होंगे, यह कह पाना अभी मुमकिन नहीं है।
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पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसपा की पकड़ कमजोर तो हुई है लेकिन पार्टी में आस्था रखने वालों की इस इलाके में कमी नहीं है। यही वजह है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी इस इलाके में अपने खराब प्रदर्शन के बाद भी दो विधानसभा सीट जीतने में न सिर्फ सफल हुई, बल्कि 30 सीटों पर दूसरे नंबर की पार्टी बनी। भाजपा, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल और कांग्रेस ने तो इस इलाके में अपने वोट बैंक को मजबूत करने के लिए रैलियां और जनसभाएं कर लीं, लेकिन बसपा के इस गढ़ में बसपा सुप्रीमो मायावती की रैली तक नहीं हो सकी है।
2017 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल के रास्ते अलग थे। पिछले विधानसभा के चुनाव में राष्ट्रीय लोकदल अपने इस गढ़ में महज एक सीट ही जीत पाई थी, जबकि तीन सीटों पर दूसरे नंबर पर थी। वर्ष 2017 में सपा और कांग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़ा था, लेकिन इस बार दोनों राजनीतिक दलों की राहें जुदा हैं।
भाजपा के रणनीतिकारों को लगता है कि नोएडा में फिल्म सिटी के निर्माण का मामला हो या जेवर में अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का निर्माण, मेरठ का मेजर ध्यानचंद खेल विश्वविद्यालय का निर्माण हो या फिर प्रदेश में बढ़ते एक्सप्रेस वे का जाल, यही विकास कार्य उसे जीत की मंजिल तक लेकर जाएंगे।
रही बात माफियाओं के संरक्षण के विरोध की तो आरोपों में घिरे नाहिद हसन को टिकट देकर और फिर उस टिकट को उनकी बहन के नाम सुनिश्चित कर समाजवादी पार्टी ने न केवल मुजफ्फरनगर कांड की याद एकबार फिर ताजा कर दी है बल्कि लगे हाथ भाजपा को विरोध का मौका भी दे दिया है। फिलहाल हालात यह है कि सभी दल अपने-अपने तरीके से पहले चरण की जंग फतह करने में जुटे हैं। अब देखना यह है कि यहां विकास और उन्माद-अपराध की राजनीति में किसका पलड़ा भारी पड़ता है।