चुनाव (election) में परिवारवाद की आलोचना आम बात है। हर चुनाव में परिवारवाद पर सवाल उठते रहे हैं। इस बार उत्तर प्रदेश के चुनाव (up election) में घोर परिवारवादी व्यवस्था पर तंज कसे जा रहे हैं। यह भी तो सोचा जाए कि भारत के लिए तो पूरी धरती ही परिवार (whole earth is family) है। वहां अयं निज: परोवेति का भाव नहीं है।
फिलहाल परिवारवाद पर राजनीतिक कलह मची है। कोई कह रहा है कि परिवारवादी समाजवादी नहीं हो सकता। समाजवादी परिवारवादी नहीं हो सकता। जिन पर परिवारवाद के आरोप लग रहे हों ,वे चुप रहें भी तो किस तरह? एक बड़े नेता ने तो यहां तक कह दिया कि परिवार के दुख-दर्द तो वही समझ सकता है जिसका अपना परिवार हो। जिसके परिवार ही न हो, वह परिवार वालों का दुख-दर्द नहीं समझ सकते।
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गृहस्थ धर्म सबसे बड़ा धर्म है और इसी पर पूरा समाज, पूरा देश आश्रित होता है। इसलिए परिवार नाम की संस्था को नकारा नहीं जा सकता । यहां सवाल अपने परिवार के ही भले की सोचने की है। कुछ चहेतों को ही महत्व देने की है। शेष परिवारों की चिंता न करने की है। हम गुरुकुल व्यवस्था की ओर जाएं या ऋषि परंपरा पर विचार करें तो वहां व्यवस्था के मूल में कोई सद्गृहस्थ दंपति ही हुआ करता था। वह राजा से लेकर रंक तक के बच्चों को समान भाव से अपने आश्रम में रखकर शिक्षा-दीक्षा देता था। उसे सामाजिक जीवन के अनुकूल बनाता था।
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जीवन में धन कैसे कमाया जाए, जीवन निर्वाह कैसे हो, यह भी सिखाता था। एक आचार्य अपने शिष्यों को कितनी कलाओं में पारंगत बनाता था, यह पूछने की बात नहीं है। देश का संत समाज, संन्यासी वर्ग देश को नैतिक और धार्मिक बनाने का यत्न करता था। देश की आजादी में भी संन्यासियों की बड़ी भूमिका रही है। इसलिए यह कहना कि जिसने शादी नहीं की और समाज सेवा का व्रत लिया, वह परिवार के दुख-दर्द को नहीं समझता, यह कहना उचित नहीं है।
राजनीतिक दलों को यह तो सोचना ही होगा कि वे प्रतिस्पर्धा में क्या कह रहे हैं और वह देश, काल परिस्थिति के अनुरूप है भी है या नहीं । नेता की जिम्मेदारी देश को आगे ले जाने की है और उसे इसी दिशा में सोचना और आगे बढ़ना चाहिए। व्यर्थ के प्रलाप में कुछ नहीं रखा।