हिंदू धर्म के सबसे पवित्र चार धामों में से एक बदरीनाथ धाम में भगवान विष्णु विराजमान हैं। पूजा के पहले वैसे तो आमतौर पर सभी मंदिरों में शंख जरूर बजता है लेकिन बदरीनाथ ऐसा अकेला मंदिर है जहां शंख नहीं बजाया जाता है। इसके पीछे एक पौराणिक और रहस्यमयी कहानी छुपी हुई है।
क्या है कहानी?
इस मंदिर में शंख नहीं बजाने के पीछे ऐसी मान्यता है कि एक समय में हिमालय क्षेत्र में दानवों का बड़ा आतंक था। वो इतना उत्पात मचाते थे कि ऋषि मुनि न तो मंदिर में ही भगवान की पूजा अर्चना तक कर पाते थे और न ही अपने आश्रमों में। यहां तक कि वो उन्हें ही अपना निवाला बना लेते थे।
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राक्षसों के इस उत्पात को देखकर ऋषि अगस्त्य ने मां भगवती को मदद के लिए पुकारा, जिसके बाद माता कुष्मांडा देवी के रूप में प्रकट हुईं और अपने त्रिशूल और कटार से सारे राक्षसों का विनाश कर दिया। लेकिन आतापी और वातापी नाम के दो राक्षस मां कुष्मांडा के प्रकोप से बचने के लिए भाग गए। इसमें से आतापी मंदाकिनी नदी में छुप गया जबकि वातापी बदरीनाथ धाम में जाकर शंख के अंदर घुसकर छुप गया। इसके बाद से ही बदरीनाथ धाम में शंख बजाना वर्जित हो गया और यह परंपरा आज भी चलती आ रही है।
बदरीनाथ मंदिर का इतिहास
बता दें बदरीनाथ मंदिर उत्तराखंड के चमोली जनपद में अलकनंदा नदी के तट पर स्थित है। इस मंदिर के सातवीं-नौवीं सदी में निर्माण होने के प्रमाण मिलते हैं। हर साल यहां लाखों श्रद्धालू भगवान बदरीनारायण के दर्शन के लिए आते हैं।
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इस मंदिर में भगवान बदरीनारायण की एक मीटर (3.3 फीट) लंबी शालिग्राम से निर्मित मूर्ति है। मान्यता है कि इसे भगवान शिव के अवतार माने जाने वाले आदि शंकराचार्य ने आठवीं शताब्दी में पास ही स्थित नारद कुंड से निकालकर स्थापित किया था। कहा जाता है कि यह मूर्ति अपने आप धरती पर प्रकट हुई थी।