नई दिल्ली। कोविड-19 महामारी के इस दौर से पूरी दुनिया उबरने की कोशिश कर रही है। यह जानकारी भी बाहर आ चुकी है कि ऐसे बहुत सारे वायरस दुनिया पर कहर ढाने का जैसे इंतजार ही कर रहे हैं। इन वायरसों से निपटने के लिए संपूर्ण वैक्सीन डिवेलप करने की जरूरत समझते हुए उस दिशा में वैज्ञानिक शोध भी शुरू हो चुके हैं। लेकिन ये वायरस आखिर बाहर आने को क्यों कुलबुला रहे हैं? वे जहां हैं, वहीं क्यों नहीं रह सकते? क्या ऐसा कोई तरीका नहीं हो सकता जिससे ये हमसे और हम इनसे न टकराएं?
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हमारे बीच चूहे-बिल्ली का खेल भी लंबे समय से चल रहा है। हम एंटीडॉट्स, मेडिसिन या वैक्सीन विकसित करते हैं और ये सूक्ष्मजीव हमें संक्रमित करने के नए तरीके विकसित कर लेते हैं। अब कोरोना वायरस को ही देख लीजिए, यह कितने स्ट्रेन चेंज कर रहा है म्यूटेशन के जरिए। इसमें सबसे ज्यादा खतरनाक वे वायरस या बैक्टीरिया हो सकते हैं, जो रेसिस्टेंट हो चुके हैं।
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नेचर विष और अमृत दोनों पैदा करती है। एंटीबायोटिक तो पहले से ही नेचर में था। एलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने उसे ढूंढ निकाला। वायरस या बैक्टीरिया से लड़ने के लिए नेचर ने भीतर ही भीतर एक सेना भी तैयार की है। इंसान रिसर्च कर रहा है, लेकिन वे जानवर भी जीवित रहते थे जिन्हें बीमारी होती थी। वे इसलिए जीवित रहते थे क्योंकि उनके भीतर रोगों से लड़ने की प्रतिरोधक शक्ति पैदा होती थी। तो प्रकृति में तो यह लड़ाई चल ही रही है हजारों सालों से।
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कई साइंटिस्ट मानते हैं कि चेचक और बुबोनिक प्लेग के संक्रमित अवशेष भी साइबेरियाई बर्फ में दफन हैं। 2015 में साइंटिस्ट टीम ने तिब्बत से दर्जनों अनजाने वायरस समूहों की खोज की। नासा के वैज्ञानिकों ने अलास्का में 30 हजार वर्षों से जमे बैक्टीरिया को अलग करने में कामयाबी हासिल की। सूक्ष्मजीव, जिसे कार्नोबैक्टीरियम प्लीस्टोकेनियम कहा जाता है, उस समय से जमे हुए थे जब वूली मैमथ पृथ्वी पर चलते थे।