ब्रज रास रसिक शिरोमणि एवं ललिता सखी के अवतार स्वामी हरिदास के लाड़ले ठाकुर बांके बिहारी महराज का 515वां प्राकट्योत्सव शनिवार को मनाने के लिए वृन्दावन को नई नवेली दुल्हन की तरह सजाया गया है। इस अवसर पर मन्दिर और आसपास के परिसर की सजावट देखते ही बनती है।
बांके बिहारी मन्दिर के शयनभोग सेवायत आचार्य विजय कृष्ण गोस्वामी ने बताया कि बिहार पंचमी के दिन ही स्वामी हरिदास की संगीत समर्पण भावना से प्रभावित होकर युगल सरकार स्वरूप ब्रज निधि ठाकुर बांके बिहारी जी महराज श्री निधिवन राज श्री वृन्दावन धाम में निकुंज सेवा सुख के लिए प्रकट हुए थे।
उन्होने बताया कि वृन्दावन का बांके बिहारी मन्दिर एक भक्त की भगवत साधना एवं समर्पण का ही नमूना है। सनातन धर्म का इतिहास साक्षी है कि समर्पित भाव से जिस किसी भक्त ने ठाकुर की आराधना की ठाकुर उसकी मनोकामना पूरा करने के लिए दौड़े चले आते हैं। उसे यह कहने की जरूरत नही पड़ती कि ‘ अब मै नाच्येा बहुत गोपाल।’
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स्वामी हरिदास निधिवन में ठाकुर की सेवा के साथ साथ उन्हें अपने संगीत के पुष्प अर्पित किया करते थे। उनके समर्पण भाव को देखकर ही ठाकुर अपने आपको रोक नही पाए और बिहार पंचमी के दिन राधारानी से कहा कि निधिवन में उस स्थान पर चलते हैं जहां पर हरिदास अपने तानपुरा से उन्हें संगीत के पुष्प अर्पित कर रहा है। इसके बाद श्यामाश्याम जैसे ही प्रकट हुए स्वामी हरिदास को वातावरण में ऐसा महसूस हुआ जैसे ज्योतिपुंज आ गया है।
हरिदास ने उधर निहारा तो उनकी आंखे चकाचौंध हो गईं क्योंकि ‘माई री सहज जोरी प्रगट भई जु रंग की गौर श्याम घन दामिनी जैसी। ’ उनके सामने श्यामा श्याम ज्येाति पुंज की तरह प्रगट हुए थे। उनके दिव्य रूप को देखकर स्वामी हरिदास ने उनके चरणों में शीश रखकर उनसे आराधना की कि यह संसार उनके इस स्वरूप को सहन नहीं कर पाएगा तथा इस स्वरूप का इस प्राकर श्रंगार करना मुश्किल हो जाएगा इसलिए दोनो ही स्वरूप एक हो जाएं। उनकी साधना से प्रसन्न होकर जहां एक ओर उन्हें वरदान दिया कि उनके बराबर का संगीतज्ञ दुनिया में नही होगा वहीं वे दोनो एक ही स्वरूप में प्रगट हुए जो वर्तमान बिहारी जी महराज का विग्रह है।
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उन्होंने बताया कि यह बिहारी जी महराज का ही आशीर्वाद था कि जब हरिदास ने अकबर के सामने अपना संगीत प्रस्तुत किया तो उसके मुंह से ही उनके दरबारी संगीतज्ञ तानसेन के सामने निकल पड़ा कि वह इतना अच्छा क्यों नही गाता जितना अच्छा स्वामी हरिदास गाते है। इस पर तानसेन ने कहा कि इसका प्रमुख कारण यह है कि वे जहांपनाह के लिए गाते हैं और स्वामी जी उनके लिए गाते हैं जो जहांपनाह का जहांपनाह है।
सेवायत आचार्य ने बताया कि कई घटनाए ऐसी है जिनमें वर्तमान समय में भी भक्त के समर्पण से प्रभावित होकर बिहारी जी महराज उसकी खोज में गर्भ गृह से बाहर चले आते हैं।
बांके बिहारी मन्दिर के सेवायत आचार्य शशांक गोस्वामी ने बताया कि इस दिन आयोजित कार्यक्रमों में ठाकुर बांकेबिहारी महराज का प्रातः पंचामृत अभिषेक किया जाता है। इसके बाद चन्दन, पुष्प ,तुलसी आदि के अर्पण के साथ ठाकुर से अभिषेक और श्रंगार की परंपरा का निर्वहन होता है। इस दिन के श्रंगार के बारे में कहा जाता है कि वह इतना भव्य होता है कि कहते हैं कि ‘ऐ बांकेबिहारी लाल न कर तू अब इतना श्रंगार नजर तोहे लग जाएगी।’
इस दिन का विशेष भोग पंच मेवा और हलवा होता है। वर्ष में एक बार इस दिन ठाकुर के प्राकट्य स्थल का भी पंचामृत अभिषेक होता है और बधाई सवारी लेकर स्वामी हरिदास जी मन्दिर में आते हैं और अपने आराध्य की अपने हाथ से ही राजभोग सेवा अर्पित करते हैं। राजभोग आरती के साथ ही प्राकट्येात्सव कार्यक्रम का समापन होता है। इस दिन देश के कोने कोने से लोग बांकेबिहारी मन्दिर की ओर चुम्बक की तरह खिंचे चले आते हैं जिसके कारण भक्ति यहा पर नृत्य करने लगती है।