पंकज चतुर्वेदी
पिछले दिनों ब्रू आदिवासियों की बसाहट के मुद्दे पर त्रिपुरा में हिंसा भड़क उठी और रुक-रुककर प्रदर्शनों का दौर भी जारी है। तकरीबन 32 हजार की आबादी वाला ब्रू आदिवासी समुदाय लुप्त हो रहा है। इतिहास के मुताबिक तो इनका मूल घर मिजोरम में ही है, लेकिन मिजोरम के लोग इन्हें म्यांमार से आया विदेशी कहते हैं। बीते पचीस सालों से ब्रू आदिवासी जिस त्रिपुरा में रह रहे हैं, वहां के लोग उन्हें अपने यहां बसाना नहीं चाहते।
किंवदंतियों के अनुसार त्रिपुरा के एक राजकुमार को राज्य से बाहर निकाल दिया गया था जिसके बाद वह अपने समर्थकों के साथ मिजोरम में जाकर बस गया। वहां उसने एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। ब्रू खुद को उसी राजकुमार का वंशज मानते हैं। इस कहानी की सत्यता के भले ही कोई प्रमाण न हों, लेकिन इसके चलते हजारों लोग बेघर हैं। इनके पास न तो स्थायी निवास का कोई प्रमाण है, न ही आधार कार्ड इत्यादि। मतदाता सूची को लेकर भी भ्रम है। आंकड़े कहते हैं कि ब्रू या रियांग मिजोरम की सबसे कम जनसंख्या वाली जनजाति है। मिजोरम के मामित, कोलासिब और लुंगलेई जिलों में ही इनकी आबादी थी। इन्हें रियांग भी कहा जाता है।
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सन 1996 में ब्रू और बहुसंख्यक मिजो समुदाय के बीच सांप्रदायिक दंगा हो गया। हिंसक झड़प के बाद 1997 में हजारों लोगों ने भागकर पड़ोसी राज्य त्रिपुरा के कंचनपुरा ब्लाक के डोबुरी गांव में शरण ली थी। दो दशक से ज्यादा समय से यहां रहने और अधिकारों की लड़ाई लड़ने के बाद इन्हें यहीं बसाने पर समझौता हुआ है। इसी साल जनवरी में इनका केंद्रीय गृह मंत्री की मौजूदगी में त्रिपुरा-मिजोरम के मुख्यमंत्रियों के साथ दिल्ली में एक समझौता हुआ था। इसके लिए केंद्र सरकार ने 600 करोड़ रुपए का पुनर्वास योजना पैकेज जारी करने का ऐलान भी किया। हालांकि इससे पहले 2018 में भी केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह की मौजूदगी में त्रिपुरा के मुख्यमंत्री बिप्लव देव और मिजोरम के तत्कालीन मुख्यमंत्री ललथनहवला के बीच भी ऐसा समझौता हुआ था, पर अमल नहीं हुआ।
इस बार समझौते के तहत जैसे ही स्थायी बसावट पर काम शुरू हुआ, त्रिपुरा में हिंसा फैल गई। विरोध करने वालों का कहना है कि पहले महज डेढ़ हजार रियांग परिवारों को ही बसाने की बात थी, लेकिन अब छह हजार परिवारों को बसाने की योजना है। इससे माहौल और आबादी का संतुलन बिगड़ेगा। जबकि प्रशासन का कहना है शरणार्थियों के लिए 15 अलग-अलग जगहें चिह्नित की गई हैं। चूंकि ब्रू लोग शरणार्थीं हैं, इसलिए उनमें से कई के नाम मिजोरम की मतदाता सूची में जुड़े हैं। इसके विरोध में मिजो संगठन आंदोलन करते रहते हैं और ब्रू लोगों को किसी भी चुनाव में वोट नहीं डालने देते। पिछले साल मिजो संगठनों ने इनको भगाने के लिए इनके शरणार्थी शिविरों में खाने-पीने की सप्लाई रोक दी थी। इस वजह से इनके चार बच्चे कुपोषित होकर मर गए थे।
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ब्रू लोग झूम खेती के स्पेशलिस्ट हैं। उनकी महिलाएं बुनाई में कुशल होती हैं। शरणार्थी शिविर में आने के बाद उनके पारंपरिक कौशल लुप्त हो गए। बतौर राहत केंद्र सरकार हर वयस्क के लिए प्रतिदिन 5 रुपए, 600 ग्राम चावल और अल्पवयस्क के लिए ढाई रुपए और 300 ग्राम चावल देती है। इसके अलावा उन्हें दैनिक उपभोग का सामान भी मिलता है, जिसका बड़ा हिस्सा बेचकर वे कपड़े, दवा आदि की जरूरतें पूरी करते हैं। घर, बिजली, पानी, अस्पताल और स्कूल जैसी कई बुनियादी सुविधाओं से वे वंचित हैं।
ब्रू लोगों ने नईसिंगपरा, आशापरा और हेजाचेरा के तीन मौजूदा राहत शिविरों को पुनर्वास गांवों में तब्दील करने की मांग की है। इसके साथ ही जांपुई पहाड़ियों पर बैथलिंगचिप की चोटी के पास फूल्डुंगसेई गांव सहित पांच वैकल्पिक स्थानों पर विचार करने का भी आग्रह किया है। इस पर स्थानीय आदिवासी आशंकित हैं कि इससे उनके लिए खेती व पशु चराने की जगह कम हो जाएगी। वैसे पूर्वोत्तर राज्यों में जनसंख्या घनत्व इतना अधिक नहीं है। मीलों फासले पर इक्का-दुक्का कबीले हैं। फिर भी यह समस्या क्यों है, इसका समाधान सरकार तो खोज ही रही है, समाज को भी इसका हल करने के लिए उतनी ही मेहनत करनी होगी।