झांसी। हिंदू संस्कृति से जुड़ा बेहद महत्वपूर्ण रंगों से सराबोर कर देने वाला त्योहार है “ होली ” और इस सतरंगी पर्व की शुरूआत पौराणिक रूप से बुंदेलखंड की पावन धरती से हुई थी। सांस्कृतिक रूप से बेहद धनी बुंदेलखंड क्षेत्र के गौरवशाली इतिहास में रंगीली होली के उद्गम स्थल होने का गौरव भी शामिल है।
होली का उद्गम स्थल ऐतिहासिक और पौराणिक रूप से बुंदेलखंड की ह्रदयस्थली झांसी जिला मुख्यालय से 80 किलोमीटर की दूरी पर बामौर विकासखंड में स्थित “ एरच धाम” को माना जाता है। पौराणिक काल मे इस क्षेत्र से वर्तमान जालौन और हमीरपुर जिलों की सीमा भी लगती थी। होली का त्योहार भक्त प्रहलाद से जुड़ा है और श्रीमद् भागवत पुराण में सतयुग में भक्त प्रहलाद का प्रसंग आता है जिसमें बताया गया है कि हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप दो राक्षस भाई थे, इनकी राजधानी एरिकेच्छ थी जो अब परिवर्तित होकर एरच हो गया।
असम विधानसभा चुनाव : पहले चरण में दोपहर 2 बजे तक 45.24 फीसदी मतदान
बौद्ध शोध संस्थान के उपाध्यक्ष और राज्यमंत्री दर्जा प्राप्त इतिहासविद् हरगोविन्द कुशवाहा ने बताया कि बुन्देलखंड ही वह धरा है, जिसने विश्व का मार्गदर्शन किया। उन्होंने बताया कि खुदाई के दौरान एरच में 250 फुट जमीन के नीचे मिली पत्थर की होलिका और उसकी गोद में भक्त प्रहलाद की मूर्ति इस बात का प्रमाण है कि यह वही एरिकेच्छ है,जो कभी हिरण्यकश्यप की राजधानी हुआ करता था। यहां पर आज भी पौराणिक काल के कई सिक्के लोगों को खेतों में मिलते रहते हैं जो उस शासन की पुष्टि करते हैं।
वाराह पुराण की कथा के अनुसार हिरण्याक्ष जब पृथ्वी का हरण कर उसे पाताल लोक में ले जा रहा था, तब भगवान विष्णु ने वाराह अवतार में आकर हिरण्याक्ष का वध किया था। इस तरह भगवान ने पृथ्वी की रक्षा कर उसे वापस स्थान पर रख दिया था। तब से हिरण्याक्ष का भाई हिरण्यकश्यप भगवान विष्णु को अपना सबसे बड़ा दुश्मन समझने लगा था।
श्रीमद् भागवत पुराण के अनुसार हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रहलाद हुआ, जिसका पालन पोषण मुनि आश्रम में होने के कारण वह बालक विष्णु भक्त हो गया। यह बात उसके पिता को बर्दाश्त नहीं हुई और उसने अपने पुत्र को तरह-तरह की यातनाएं देकर विष्णु की भक्ति से अलग करना चाहा लेकिन ऐसा हुआ नहीं। इसके बाद राक्षसराज अपने पुत्र को मारने के तमाम तरीके अपनाए, उसने प्रहलाद को डिकौली या डिकांचल पर्वत से नीचे बेतवा नदी के गहरे पानी में फिकवा दिया था।
श्री कुशवाहा के अनुसार एरच भागवत कथा में जिस डीकांचल या डिकौली पर्वत का जिक्र है वह एरच में बेतवा नहीं के किनारे मौजूद है। उन्होंने बताया कि यह कोई कल्पना नहीं है बल्कि अंग्रेजों ने झांसी के गजेटियर में भी इसका जिक्र किया है। गजेटियर के 339 पेज पर एरच और डिकौली का जिक्र है।
कथा के अनुसार गहरे पानी में फेंकने के बाद भी जब प्रहलाद बच गया तो हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका को अपने पुत्र की हत्या का काम सौंपा। होलिका को वरदान था कि वह जलती आग में बैठ जाएगी तो भी उसे आग की लपटें छू नहीं सकती थी। होलिका प्रहलाद को गोद में लेकर आग में बैठ गयी लेकिन ईश्वर कृपा से जलती आग के बीच प्रहलाद को तो कुछ नहीं हुआ बल्कि होलिका ही जलकर भस्म हो गयी। यह देख अत्यंत क्रोधित हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद को मारने के लिए तलवार उठाई तो तलवार एक खंभे मे जा लगी और नरसिंह रुप में भगवान विष्णु प्रकट हुए और उन्होंने हिरण्यकश्यप का वध कर दिया।
अपने राजा का वध होते देख हजारों राक्षसों उत्पात मचाना शुरु कर दिया और नरसिंह भगवान को घेर लिया। नरसिंह भगवान ने उन सभी का भी वध कर दिया। तब से इस राक्षसी उपद्रव को कीचड़ की होली के रूप में बुंदेलखंड में मनाया जाता है। कुछ दिन पूर्व तक इस होली को अच्छे लोगों की होली नहीं कहा जाता था बल्कि उत्पात मचाने वाले ही इस होली को खेलते थे। हिरण्यकश्यप के वध के बाद जब भक्त प्रहलाद का राज्याभिषेक कर दिया गया तो उत्पात थम गया और फिर खुशी में रंगों और फूलों की होली मनाई गई इसीलिए दौज पर रंगों की होली होती है जो रंगपंचमी तक चलती है।
इस कथा के बुंदेलखंड के साथ संबंध और होली का उदगमस्थल एरच ही होने के संबंध में पुरातात्विक प्रमाण भी मौजूद हैं। एरच में मिली होलिका और प्रहलाद समेत नरसिंह की मूर्तियां इस बात को प्रमाणित करती हैं कि कहीं और नहीं बल्कि भक्त प्रहलाद का जन्म एरच में ही हुआ था।
श्री कुशवाहा के अनुसार प्रहलाद को मारने के लिए हिरण्याक्ष ने जिस महल में तलवार उठायी थी वह तलवार वहीं एक खंभे से जा टकरायी थी जिससे भगवान नरसिंह रूप में प्रकट हुए थे वह महल वर्तमान के खमा गांव में ही स्थित था। खमा गांव डिकौली पर्वत के पास ही एरच में है और जिस स्थान पर होलिका प्रहलाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठी थी उसी स्थान पर प्रहलाद और होलिका की मूर्ति स्थित है।
श्री कुशवाहा भी होलिका दहन के बाद होने वाले होली को उपद्रवी राक्षसों के उत्पात की होली बताते हैं, बाद में जब दोनों पक्षों में समझौता हो गया तो सभी खुशी में रंग और पुष्पों की वर्षा कर होलिका के दहन को उत्सव की तरह मनाते हैं।