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लखनऊ विश्वविद्यालय की चुनौतियां

Lucknow University

Lucknow University

 सियाराम पांडेय ‘शांत’

किसी शैक्षणिक संस्थान के सौ साल की यात्रा मायने रखती है और अगर वह  शैक्षणिक संस्थान हुआ तो फिर कहना ही क्या? लखनऊ विश्वविद्यालय की स्थापना का यह सौंवां साल है। विश्वविद्यालय अपनी स्थापना का शताब्दी वर्ष मना रहा है। इस शताब्दी वर्ष में वह देश—दुनिया को यह  बताने और जताने की कोशिश कर रहा है कि वह क्या था, क्या हो गया है और उसे आगे क्या होना है? अपनी उपलब्धियों को बताना, कमियों को जानना और उसे सुधारने की कोशिश करना मानवीय प्रवृत्ति का हिस्सा रहा है। लखनऊ विश्वविद्यालय उसका अपवाद कैसे हो सकता है। इस शताब्दी वर्ष की सबसे बड़ी खासियत तो यही है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इसका उद्घाटन कर दिया है और इसका समापन प्रधानमंत्री को करना है। इस बीच यहां ढेरों कार्यक्रम होने हैं जो यहां के छात्र—छात्राओं, अध्यापकों ही नहीं, आम आदमी के लिए भी ज्ञानानंद के आनुभूतिक आनंद में बढ़ोतरी ही करेंगे।

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तत्कालीन संयुक्त प्रांत के उप राज्यपाल बटलर और अवध के ताल्लुकेदारों के सहयोग से बना लखनऊ विश्वविद्यालय आज भी मजबूती के साथ अपनी ज्ञान पताका भारत ही नहीं, देश के बाहर भी लहरा रहा है। लखनऊ विश्वविद्यालय की 99 साल की यात्रा न केवल जीवंत रही है बल्कि उसने देश को बेहद ख्यातिलब्ध नागरिक दिए हैं। इस बात को नकारा नहीं जा सकता। इस अवधि में इस विश्वविद्यालय ने इस देश—दुनिया को कितना कुछ दिया है, इसकी व्याख्या शब्दों में कर पाना किसी के लिए भी बेहद मुश्किल है।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने लखनऊ विश्वविद्यालय की 100  साल की शानदार यात्रा के लिए न केवल बधाई दी है बल्कि  100 वर्ष की जीवंत यात्रा को अगले 100 साल तक कायम रखने की अपेक्षा भी की है। उत्तर प्रदेश के मुखिया के स्तर पर इस तरह की अपेक्षा वाजिब ही है। इस अवधि की विश्वविद्यालयों की उपलब्धियों की उन्होंने अगर चर्चा की है तो  कोविड की चुनौती और नई शिक्षा नीति से बहुत कुछ लेने की नसीहत भी दी है। वे यह कहने में भी नहीं चूके कि सामान्य अवसर पर तो सभी योग्यता का प्रदर्शन कर सकते हैं मगर सोना तो चुनौतियों की आग में तपकर ही निखरता है। कोविड काल में शिक्षा को आगे बढ़ाने को उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय की उपलब्धि करार दिया है। वे यह कहना भी नहीं भूले कि इस विश्वविद्यालय ने वोकल फॉर लोकल को भी बढ़ावा दिया है। ‘एक भारत— श्रेष्ठ भारत’ अभियान को भी आगे बढ़ाया है। इस विश्वविद्यालय ने देश को राष्ट्रपति, न्यायाधीश, राजनेता, अफसर, आचार्य और वैज्ञानिक अगर दिए हैं तो बड़े व्यापारी भी दिए हैं।

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मुख्यमंत्री का मानना है कि जब हम मूल्यांकन करेंगे तब विश्वविद्यालय की उपलब्धियां एक—एक कर हमारे सामने  आती जाएंगी। भारत में ज्ञान का उद्देश्य ‘सा विद्या या विमुक्तये’ है। नई शिक्षा नीति पर चलेंगे तो हमारा कोई विद्यार्थी डिग्री पाने के बाद असहाय नहीं होगा। किसी भी संस्थान का हिस्सा केवल छात्र या आचार्य ही नहीं होते हैं। अभिभावक और पूर्व छात्र बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। ज्ञान को सीमित नहीं किया जा सकता। केवल संस्थान स्थापित करना काफी नहीं है। हर समस्याओं का सामना करना पड़ता है। उन्होंने कहा कि कोरोना काल में लविवि ने सैनिटाइजर बनाना शुरू किया था। उसकी तरह सभी महाविद्यालयों की प्रयोगशालाओं में सेनेटाइजर बनाए जा सकते थे मगर शेष लोग सरकार के भरोसे बैठे रहे। कोई भी समाज सरकार के आगे चलेगा तभी वह स्वावलम्बी बनेगा। स्वावलंबी समाज ही आत्मनिर्भर होगा। दुर्भाग्य से आजादी के बाद देश इसी हालात में रहा है। मगर प्रधानमंत्री मोदी ने देश को बदल दिया है। उन्होंने आत्मनिर्भर भारत अभियान शुरू किया है।

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कुलपति प्रो. आलोक कुमार राय  की मानें तो नई शिक्षा नीति के 60 फीसद प्राविधान का पालन करने वाला यह पहला विश्विद्यालय हैं। इस विश्वविद्यालय में नया डी—लिट् आर्डिनेंस और पीएचडी आर्डिनेंस का पालन  हुआ है। विद्यार्थियों के लिए काम हो रहे हैं। हमने फैकल्टी आफ योग और सेंटर आफ नैनो साइंस की स्थापना की है। आध्यात्मिक विकास के लिए हैप्पी थिंकिंग लैब,इस्कॉन और ब्रह्माकुमारी से एमओयू किया है। डिजिटल लर्निंग सिस्टम स्लेट बनाया है। हमने अपना सैनिटाइजर और काढ़ा भी बनाया है। विश्वविद्याालय राष्ट्र, प्रांत और समाज की दशा—दिशा करते हैं, वे अपने विद्यार्थियों को ज्ञान—विज्ञान के क्षेत्र में पारंगत बनाते हैं लेकिन मौजूदा समय में विश्वविद्यालय राजनीति के केंद्र बनकर रह गए हैं।

इसमें संदेह नहीं कि आचार्य नरेंद्र देव के कुलपतित्व में शुरू हुए इस विश्वविद्यालय का इतिहास तमाम शिक्षाविदों, राजनीतिज्ञों, वैज्ञानिकों, चिंतकों, विचारकों, लेखकों , अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ियों ,क्रांतिकारियों, चिकित्सकों, वकीलों , पत्रकारों और फिल्मकारों के नाम और यश को अपने में समाहित किए हुए हैं। कैनिंग कॉलेज से लखनऊ विश्वविद्यालय बनने तक के सफर में उसे 1867 तक कलकत्ता विश्वविद्यालय और 1988 से इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध रहना पड़ा था। इस विश्वद्यिालय की स्थापना में राजा महमूदाबाद मोहम्मद अली खान के प्रयास भी बेहद उल्लेखनीय रहा है।

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लखनऊ के नवाबों ने भी इस विश्वविद्यालय की स्थापना में मील के पत्थर की भूमिका अदा की। लखनऊ विश्वविद्यालय का अत्यंत गौरवमयी इतिहास रहा है। उस श्रृंखला को बनाए रखने की जरूरत है। किसी भी शिक्षण संस्थान के गौरव उसके शिक्षक और विद्यार्थी होते हैं। विश्वविद्यालय शोध के लिए जाने जाने चाहिए। डिग्री देने का काम तो महाविद्यालय करें लेकिन विश्वविद्यालयों में शोध कितना हो पा रहा है। क्या लखनऊ विश्वविद्यालय का कोई प्राध्यापक आज किसी नक्षत्रशाला या फिर वनस्पति या रसायन विज्ञान की किसी नई विधा का आविष्कार कर पाने में समर्थ है, विचार तो इस पर भी होना चाहिए। शताब्दी वर्ष की विश्व विद्यालय को ढेर सारी बधाइयां। इतने शानदार कार्यक्रमों के आयोजन के लिए धन्यवाद लेकिन फिर वही सवाल कि अतीत में जितना अच्छा हुआ, वैसा कुछ भविष्य में क्यों नहीं हो पा रहा है?पिछले साल लखनऊ विश्वविद्यालय की डिग्रियों पर सवाल उठे थे। इस भर्रेशाही में कुछ विश्वविद्यालयकर्मियों की भूमिका पर सवाल उठे थे। कुलपति पद को लेकर राजनीति शुरू हो गई थी। यह सब कम से कम शिक्षा के मंदिरों में तो उचित नहीं है।

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शताब्दी समारोह का आयोजन कोरोना काल के बीच में हो रहा है। मालिनी अवस्थी के गीतों का यहां के विद्यार्थी और प्राध्यापक लुत्फ उठा चुके हैं। अभी उन्हें अनूप जलोटा की भजन सुननी है। प्रधानमंत्री के विचारों से अवगत होना है लेकिन इन सबसे अहम बात यह है कि विश्वविद्यालय और उससे संबद्ध कॉलेजों में शिक्षा व्यवस्था सुचारु कैसे हो? डिजिटल शिक्षा से वास्तविक शिक्षा जैसा माहौल नहीं बनता। शिक्षा जीवन का प्रत्यक्ष है, उसी आभासी संसार की रज्जुओं से बांधना तो उचित नहीं ही है। नि:संदेह लखनऊ विश्वविद्यालय का गौरवमयी इतिहास रहा है। उसे बनाए रखना हम सबकी जिम्मेदारी है। जर्जर हो रही स्थापत्य कला का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक विश्वविद्यालय की इमारतों की सुरक्षा अपने आप में बड़ा सवाल है। विचार तो इस पर भी होना चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह विश्वविद्यालय श्रेष्ठ नागरिकों की फौज यूं ही तैयार करता रहेगा जो देश—दुनिया में उत्तर प्रदेश का नाम रौशन कर सकें।

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