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आन लाइन पढ़ाई से खुश नहीं बच्चे

Studies

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आॅनलाइन पढ़ाई  से छात्रों में पुस्तकों के प्रति जहां अरुचि बढ़ रही है, वहीं विज्ञान जैसेकठिन विषयोंमें उसकी अरुचि बढ़ती जा रही है।

यूं तो करीब एक दशक पहले प्रसिद्घ वैज्ञानिक और शिक्षाविद स्व. प्रो. यशपाल ने भी चिंता व्यक्त की थी, ‘जिस रूखे ढंग से हमारे यहां विज्ञान पढ़ाया जा रहा है, उससे वो दिन दूर नहीं जब बच्चे विज्ञान से भागेंगे और ऐसा होने लगा है। लेकिन प्रो. यशपाल ने शायद इस समस्या की कल्पना भी नहीं की होगी जो पिछले डेढ़ सालों से पूरी दुनिया भुगत रही है, यह कोरोना की समस्या जिसके कारण पूरी दुनिया में करीब करीब पढ़ाई आॅनलाइन हो गई है।

इस आॅनलाइन की पढ़ाई के चलते विज्ञान में छात्रों की रू चि और भी ज्यादा कम हो रही है, क्योंकि जो टीचर इन्हें पढ़ा रहे हैं, वे उनमें आमने सामने पढ़ाने के दौरान भी जब रूचि नहीं पैदा कर पाते तो भला आॅनलाइन पढ़ाई के दौरान यह कैसे कर लेंगे। बहरहाल प्रो. यशपाल ने विज्ञान में छात्रों की घटती रूचि का जो कारण बताया था, वह यह था कि समाज में जिज्ञासाएं कम हो रही हैं। शायद यह स्वभाविक ही है क्योंकि जब जीवन जीने की ज्यादातर मूलभूत चीजें सहजता से उपलब हों, आंखों के सामने मौजूद हों, तो भला उन्हें जानने और उनके बारे में सोचने की जिज्ञासा कहां से आये?

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आज सूचना प्रौद्योगिकी का जो युग है, उसके कारण मां बाप को भी यह भ्रम हो गया है कि आज का जमाना इतना एडवांस है कि बच्चों को अलग से पढ़ाने के लिए यान देने की जरूरत नहीं है। इसलिए बच्चे अपनी तमाम सहायता के लिए या तो निर्जीव एप्प या फिर सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉर्म पर निर्भर हो गये हैं और अब तो कोरोना के कारण बुनियादी पढ़ाई भी यांत्रिक यानी आॅनलाइन हो गई है। ऐसे में न मां-बाप को और न ही अयापकों को यह बात सूझती है कि बच्चों में विज्ञान का किसी भी विषय के प्रति अतिरिक्त जिज्ञासा पैदा करना भी उनकी जिम्मेदारी है।

यही वजह है कि मां-बाप के साथ ही अब शिक्षक भी अब बच्चों को पढ़ाते कम हैं, बताते और समझाते कम हैं, हां वे उन्हें रेफ्रेंस लिंक जरूर ज्यादा बताते हैं। रेफ्रेंस के नाम पर ये जो वेबसाइटों के पते छात्रों को बताये जाते हैं, भला छात्र उनसे अपनी किसी अटकन का जवाब कैसे पाएं? इसके साथ ही हाल के सालों में हर कोई सोशल मीडिया में विशेषज्ञ के तौरपर हर विषय पर अपना तर्जुमा पेश करने लगा है। छात्र इसे समझने या पढ़ पाने से ज्यादा कंफ्यूज हो गये हैं। उन्हें समझ ही नहीं आता कि वो सच किसे मानें। लब्बोलुआब यह कि विज्ञान से अरू चि का कारण छात्रों में विज्ञान के प्रति बढ़ती कोई साजिश नहीं है, जाने अंजाने कहीं न कहीं यह चालाकी शिक्षकों और मां बाप की तरफ से आयी है। इसलिए स्वाभाविक रूप से बच्चे आज विज्ञान और गणित विषयों में कमजोर हैं।

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आज के 40-50 साल पहले जब पढ़ाई लिखाई हेतु वैज्ञानिक उपकरणों व विभिन्न वैज्ञानिक संसाानों की इतनी उपलबता नहीं थी, तब छात्रों में विज्ञान के प्रति ज्यादा रूझान था। क्योंकि तब विज्ञान का मतलब होता था रोचक और चमत्कार की तरह खुलने वाली कहानी। आज यह सब उबाऊ, नीरस और पढ़ाकू छात्रों का काम बनकर रह गया है। अब मां बाप के पास भी अपने बच्चों को सहज सवाल करते देखना और सुनना पसंद नहीं है। उन्हें लगता है अगर उनके बच्चे ऐसे सवाल करते है इसका मतलब है वो कुछ नहीं जानते यानी वो बाकी बच्चों से कितना पीछे हैं? जबकि सही बात तो यह है कि विज्ञान के बारे में जानकारियां और वैज्ञानिक दृष्टिबोा तभी मजबूत होता है जब हम विज्ञान संबांी चीजों और स्थितियों को लेकर किस्से कहानियों के अंदाज में सोचते हैं। इसी से विज्ञान के प्रति आस्था भी पैदा होती है और इसी से जिज्ञासा भी।

लेकिन आज के तेज रफ्तार जीवन में किस्से कहानियों के लिए कहीं जगह नहीं है। किस्से कहानियों का मतलब है समय बर्बाद करना और किसी के पास समय नहीं है। अब इसे ही लें- विवेक बीमार था। वह स्कूल नहीं गया था। सुबह-सुबह जब उसकी आंख खुली तो उसने देखा कि उसकी मम्मी थर्मामीटर लगाकर उसका बुखार देख रही है। विवेक ने मम्मी से पूछा, ‘मम्मी इस थर्मामीटर से बुखार क्यों देखती हो? क्या इसके बिना बुखार को नहीं जाना जा सकता? दादा जी तो कलाई पकड़कर बुखार देखा करते हैं? मम्मी ने कहा विवेक चुप पड़े रहो ज्यादा बकबक न करो। थर्मामीटर एक सांइटिफिक इक्विपमेंट है, उससे बुखार को आसानी से और बिल्कुल सही सही मापा जाता है। जबकि दादा जी जिस तरीके से बुखार देखते हैं, वह तरीका अनसाइंटिफिक है।

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