सियाराम पांडेय ‘शांत’
विवाद और मतभेद तो होते रहते हैं, लेकिन संवादहीनता की स्थिति नहीं आनी चाहिए। परस्पर संवाद होता रहे तो बड़ी से बड़ी परेशानियां भी दूर हो सकती है। संघर्ष की जड़ में शांति का मट्ठा डाला जा सकता है। पूर्वी लद्दाख से दोनों देशों के सैनिकों की वापसी की प्रक्रिया को और विस्तार देने के लिए 10वें दौर की सैन्य वार्ता पर पूरी दुनिया की नजर है। दस घंटे तक लगातार अगर कोई वार्ता हो तो कौन ऐसा होगा जो इसका हासिल जानने की उत्कंठा न जाहिर करे, लेकिन अपनी जिज्ञासा के लिए वार्ताकारों को जल्द बोलने कों बाध्य तो नहीं किया जा सकता।
इस वार्ता में पूर्वी लद्दाख के हॉट स्प्रिंग्स, गोगरा और देप्सांग के मामले भी उठे और वहां से चीनी सैनिकों की वापसी पर भी मंथन हुआ। वार्ता के बारे में हालांकि अब तक कोई आधिकारिक जानकारी नहीं दी गई है। पैंगांग सो के उत्तरी व दक्षिणी किनारों के ऊंचाई वाले क्षेत्रों से सैनिकों व हथियारों की वापसी दो दिन पहले ही हो चुकी है। जिस तरह से दोनों देशों के सैन्य अधिकारी संवाद को आगे बढ़ा रहे हैं, उसे देखते हुए तो यही लगता है कि जल्द ही यह गतिरोध भी समाप्त हो जाएगा।
चीन और भारत दोनों ही बड़े राष्ट्र हैं। इन दोनों ही राष्ट्रों को अपनी सीमाओं पर सम्मानजनक संतुलन बनाए रखना चाहिए और वह भी परम शांति के साथ। पूरी जिम्मेदारी और ईमानदारी के साथ। युद्ध किसी भी समस्या का निदान नहीं है। इतने लंबे समय तक लद्दाख सीमा पर चली सैन्य तनातनी में दोनों देशों को सिवा परेशानी और आर्थिक नुकसान के अंततः मिला क्या है? इसलिए भी जरूरी है कि दोनों देशों को मिल-बैठकर सीमा समस्या का स्थायी निदान निकालना चाहिए।
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भारत सरकार के सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल भी चीन के विदेश मंत्री से बात करने वाले हैं। इस समस्या का समाधान जितनी जल्दी हो जाए, उतना ही अच्छा होगा। जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने इस बात पर ऐतराज जताया है कि भारत चीन से अगर बात कर सकता है तो वह पाकिस्तान से बात क्यों नहीं करता। उमर अब्दुल्ला और फारुख अब्दुल्ला पहले ही पाकिस्तान से बात करने मांग कर चुके हैं। इन तीनों नेताओं को मालूम है कि पाकिस्तान कर क्या रहा है। उससे वार्ता की कोशिशें भारत के स्तर पर खूब हुई। संबंध सुधारने के लिए भारत ने समय-समय पर उसे आर्थिक मदद भी दी लेकिन जिसकी आंखों से पानी मर गया हो , बह गया हो या फिर सूख गया हो, उससे सद्व्यवहार की आशा भी कैसे की जा सकती है?
सरकार और सेना के तमाम प्रयासों के बाद भी पाकिस्तान सीमा पर घुसपैठियों की खेप भेजने से बाज नहीं आ रहा है। जम्मू-कश्मीर में पत्थरबाजों के साथ खड़े होने वाले और अलगाववादियों का समर्थन करने वाले राजनेताओं को तो वैसे भी मुंह खोलने का अधिकार नहीं रह गया है। पाकिस्तान तो सही मायने में भारत के धैर्य की परीक्षा ले रहा है। वह अपने प्रशिक्षित आतंकियों की घुसपैठ के लिए सुरंगंे खोद रहा है। उसके द्वारा खोदी गई कई सुरंगों का पता भी चल गया है। महबूबा राज्य के जिम्मेदार पद पर रही है, ऐसे में उनका इस तरह का बयान शोभनीय नहीं है।
चीन से भारतीय सैन्य दल की वार्ता महबूबा ही नहीं, हिंदुस्तान के कई नेताओं को रास नहीं आ रही है और वे सरकार पर घुटने टेक देने का आरोप लगाने लगे हैं। वार्ता से पहले ही उन्होंने प्रधानमंत्री पर भी आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग आरंभ कर दिया है। संसद में रक्षामंत्री राजनाथ सिंह को बयान देना पड़ गया कि भारत अपनी सीमा की सुरक्षा करना जानता है। अपनी एक इंच भूमि भी किसी को नहीं देगा। पैंगोंग झील क्षेत्र से सैनिकों की वापसी के साथ 48 घंटे के भीतर दोनों पक्षों के कमांडरों की अगली बैठक होगी जिसमें देप्सांग, हाट स्प्रिंग और गोगरा जैसे संवेदनशील मुद्दों पर बात होगी।
चीन ने अरसे बाद ही सही, यह तो माना है कि गलवान में उसके भी कुछ सैनिक मारे गए थे। सीमा के मसले बहुत जटिल हुआ करते हैं। भारत में विपक्ष जिस तरह हर छोटी-छोटी बात पर भी सरकार को युद्ध के लिए ललकारता है, अगर सरकार वैसा कुछ करने लगे तो देश की अर्थव्यवस्था और लोकजीवन पर उसका प्रतिकूल असर होगा। नीति कहती है कि मुखिया को मुख जैसा व्यवहार करना चाहिए। मुखिया मुख सो चाहिए, खान-पान- व्यवहार। विवेकपूर्ण ढंग से लिया गया निर्णय ही किसी देश को आगे ले जाते है।
भारत के विपक्षी दलों को आज नहीं तो कल, इस बात को समझना ही होगा। देश का विकास हो, उसकी सीमाओं पर शांति हो। देश का रोजगार बढ़े, उत्पादन बढ़े, यहां के शिक्षा और स्वास्थ्य में तरक्की हो, यह कोशिश देश के हर नागरिक की होनी चाहिए। संवेदनशील मुद्दों पर पहले तो बोलना नहीं चाहिए और अगर बोलना बहुत जरूरी हो तो सोच-समझकर बोलना चाहिए। कोई ऐसी बात नहीं करनी चाहिए कि पटरी पर आ रही वार्ता की गाड़ी बेपटरी हो जाए। जिसका काम उसी को साजै वाली रीति-नीति पर चलकर ही देश को आगे ले जाया जा सकता है।