सियाराम पांडेय ‘शांत’
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने दूसरे चरण के समग्र शिक्षा अभियान को स्वीकृति दे दी है। जल्द ही यह अभियान अपने लक्ष्य को प्राप्त करेगा, ऐसी अपेक्षा की जा सकती है। इस अभियान के चलते प्री प्राइमरी से लेकर इंटरमीडिएट तक के छात्रों को बेहतरीन शिक्षा मिल सकेगी। यह अभियान और 5 साल के लिए बढ़ा दिया गया है। अप्रैल 2026 तक चलने वाले इस अभियान पर 2.94 लाख करोड़ की लागत आएगी, इसमें 1.85 लाख करोड़ रुपये केंद्र सरकार देगी।इस अभियान के दायरे में देश के 11.6 लाख सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल आएंगे। 15.6 करोड़ विद्यार्थियों और 57 लाख शिक्षकों को इस अभियान से लाभ होगा। कुल मिलाकर यह अच्छा विचार है।उत्तम फल है। यह देश इसकी सफलता की कामना करता है।
शिक्षा पर जितना अधिक से अधिक धन खर्च किया जा सके, वह बेकार नहीं जाने वाला है। बशर्ते कि उसका सार्थक और सकारात्मक उपयोग हो। वह भ्रष्टाचार की भेंट न चढ़े। रही बात योजनाओं और अभियानों की शुरुआत की तो वह हमेशा शानदार रही है। एक सपना हर देशवासी की आंखों में पलने लगता है कि अब कोई भी ताकत इस देश के कायाकल्प को रोक नहीं सकती लेकिन उन अभियानों और योजनाओं को लेकर सरकारों का जोश बहुत जल्द ठंडा भी हो जाता है। इस देश का अवाम भी इसे मन का भ्रम मानकर भूल जाता है। वर्ष 2000-2001 में जब काफी जोर-शोर से सर्व शिक्षा अभियान का आगाज हुआ था और सब पढ़े-सब बढ़े का नारा दिया गया था लेकिन इस पहल के दो दशक बाद कि देश की कितनी आबादी निरक्षर है, इसका ठीक-ठाक जवाब न तो केंद्र सरकारों के पास है और न ही राज्य सरकारों के पास।पूर्व वित्तमंत्री अरुण जेटली ने वर्ष 2018-19 में देश में समग्र शिक्षा अभियान की घोषणा की थी। 24 मई 2018 को यह अभियान देश भर में शुरू हो गया था। यह कहा जा सकता है कि तब से लेकर अब तक प्राथमिक से लेकर माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में काफी कुछ सुधार-परिष्कार हुए है लेकिन अभी भी देश में एकल शिक्षक वाले प्राथमिक और मिडल स्कूलों की देश में बड़ी संख्या है। हाल ही में शिक्षकों को कई गैर शैक्षणिक कार्यों से अदालत के स्तर पर राहत मिली है लेकिन दो-तीन गैर शैक्षणिक कार्य अभी भी उनके जिम्मे हैं।
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एचोसैम की रिपोर्ट बताती है कि देश में 31.50 करोड़ छात्र हैं।14 लाख शिक्षकों की कमी है। जो शिक्षक हैं भी, उनमें से अधिकांश राष्ट्रीय शिक्षा परिषद के मानकों पर खरे नहीं उतरते। बड़ी अदालते भी सरकारी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था पर असंतोष जाहिर करती रही हैं। उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के कार्यकाल में तो इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सभी मंत्रियों, जनप्रतिनिधियों,अधिकारियों और कर्मचारियों का नाम सरकारी स्कूलों में लिखवाने के आदेश दिए थे।यह और बात है कि इस आदेश को किसी ने भी तवज्जो नहीं दी। जब जागे तभी सवेरा। केंद्र सरकार ने देश की शिक्षा व्यवस्था में बदलाव लाने का जो गुरुतर दायित्व अपने हाथ में लिया है, उसकी सराहना की जानी चाहिए।
स्कूलों में बाल वाटिका,स्मार्ट क्लासेज, प्रेषिक्षित शिक्षकों की तैनाती पर सरकार का जोर डेज़ह को एक नई उम्मीद से जोड़ता है।आधारभूत ढांचे, व्यावसायिक शिक्षा और रचनात्मक शिक्षण विधियों का विकास, स्कूलों में खुशहाल और समावेशी वातावरण बनाने पर सरकार का जोर भी देश को सुकून देता है लेकिन राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को अन्य पिछड़ा वर्ग की सूची तैयार करने का हक देना एकबारगी तो अच्छा प्रयास लगता है लेकिन राज्यों के स्तर पर यह भेदभाव और मनमानी का हेतु नहीं बनेगा,इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता। शिक्षा में किसी भी तरह की आरक्षण प्रक्रिया समग्र शिक्षा अभियान की गति को कुंद ही करेगी। शिक्षा में आरक्षण की जगह अगर योग्यता और प्रतिभा को महत्व दिया जाता तो कदाचित अधिक श्रेयस्कर होता।
शिक्षा किसी भी राष्ट्र के विकास की पहली शर्त है। जो पढ़ नहीं सकता, बढ़ नहीं सकता। शिक्षा हर आम और खास की जरूरत है। नीति ग्रन्थों में भी कहा गया है कि वे माता-पिता शत्रु के समान हैं, जिन्होंने अपने बच्चे को नहीं पढ़ाया। ‘माता शत्रु पिता बैरी येन बालो न पाठितः।’ लेकिन उस सरकार का क्या जो नौनिहालों की शिक्षा का उचित प्रबंध नहीं कर पाती। आजादी के बाद के 7 दशकों तक अपनी जीडीपी का केवल 3.83 प्रतिशत ही शिक्षा पर खर्च करती रही जबकि अमेरिका इस अवधि में अपनी जीडीपी का 5.22, जर्मनी 4.95और ब्रिटेन 5.77 प्रतिशत खर्च करता रहा है। देर से ही सही, भारत ने ने भी अपनी जीडीपी का लगभग 6 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करने का निर्णय लिया है तो इसके नतीजे भी हाल के वर्षों में देखने को मिलेंगे।
जिस देश के ज्ञान-विज्ञान से पूरी दुनिया चमत्कृत होती रही, जो जगद्गुरु था। जिस देश के नागरिक जितने सुशिक्षित होते हैं, उससे राष्ट्र के सुसभ्य और सुसंस्कृत होने का पता चलता है। पिता जी ने घी खाया था, यह प्रमाणित करने के लिए उसके बेटे का हाथ नहीं सूंघा जा सकता। भारत जगद्गुरु था। सोने की चिड़िया था तो इसकी वजह उसकी शिक्षा, देश के प्रति निष्ठा, अपने काम के प्रति समर्पण, जिम्मेदारी और ईमानदारी का भाव था। जिस देश में चाणक्य जैसे गुरु थे जो अपने काम के लिए राज कोष से जलने वाले दीपक तक का इस्तेमाल नहीं करते थे, तब भारत अखंड था। केंद्र और राज्य सरकारों को सर्वप्रथम तो शिक्षा का व्यवसायीकरण व निजीकरण रोकना होगा। देश भर की शिक्षा व्यवस्था को अपने हाथों में लेना होगा। शिक्षण संस्थानों में ईमानदार और चरित्र के धनी विद्वान शिक्षकों की तैनाती देनी होगी और यह सब आरक्षण की बिना पर संभव नहीं है। समग्र शिक्षा का मतलब होता है,पूरा ज्ञान। जब शिक्षक ही पूरा नहीं होगा तो वह पूरा ज्ञान कैसे देगा। कुछ देशों में प्राइमरी शिक्षकों का वेतन उच्च कक्षाओं के शिक्षकों से अधिक होता है। क्या भारत में भी ऐसा कुछ हो सकता है।
विमर्श तो इस बात पर भी होना चाहिए। शिक्षा इतनी सस्ती होनी चाहिए कि गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपने पाल्यों को पद-लिखा कर एक योग्य नागरिक बना सके। सरकार को इस ओर भी ध्यान देना चाहिए तभी समग्र शिक्षा अभियान के दूसरे चरण का लक्ष्य मूर्त रूप ले सकेगा। अपने अतीत पर गर्व करने का हमें पूरा हक है लेकिन वर्तमान में हम क्या हैं और भविष्य में क्या बनने की हमारी योजना है,हमें केंद्रित तो इस बात पर होना है।