देहारादून। नैनीताल हाईकोर्ट में मुकदमों की कार्यवाही हिंदी में शुरू कराने की अपनी मुहिम की यादों को देश के साथ साझा कर रहे हैं , ‘हिंदी से न्याय ‘इस देशव्यापी अभियान के नेतृत्व पुरुष प्रख्यात न्यायविद् चंद्रशेखर पंडित भुवनेश्वर दयाल उपाध्याय (Chandrashekhar Upadhyay) । 22 जुलाई 2004 से अद्यतन कैसे बढ़ा कारवां ? उनकी पुस्तक ‘क्या भूलूं -क्या याद करूं’ के पृष्ठ 222 से 231 के अंश ’24ghanteonline.com’ हूबहू प्रकाशित कर रहा है।
—22 जुलाई 2004 की लगभग आधी रात को उत्तराखंड के एडीशनल एडवोकेट जनरल के दायित्व पर मेरी नियुक्ति वाली पत्रावली पर अपने हस्ताक्षर करते हुए तत्कालीन वयोवृद्ध कांग्रेसी मुख्यमंत्री पण्डित नारायण दत्त तिवारी जी ने दो बातें मुझसे कहीं-पहली, मैंने तमाम विरोध के बावजूद तुम्हें राज्य का सर्वोच्च विधि अधिकारी बनाया है । दूसरी- कुछ विशेष करके दिखाना। मैंने उनकी दोनों बातों को उनका आशीर्वाद समझकर ही ग्रहण किया था।
मुख्यमंत्री आवास के कक्ष संख्या दो में उनके ओएसडीद्वय के.सी. पंत एवं आर्येन्द्र शर्मा के अलावा देश के बड़े पत्रकार अशोक पांडे तथा उनके सहयोगी विकास धूलिया , सुभाष बंसल , फोटोग्राफर जितेंद्र नेगी भी तब मौजूद थे। सत्ता के सबसे बड़े गलियारे में इससे पहले मेरा आना -जाना रहता था लेकिन उसका हिस्सा बनना, यह पहली बार हुआ था , उत्तर प्रदेश में सेशन कोर्ट में जज के रूप में काम करते हुए एक नियमित और सीधी- सादी जिंदगी चल रही थी। पढ़ाई के दौरान तो देर रात तक पढ़ने का अभ्यास था, लेकिन उस रात कई साल बाद इतनी देर रात तक मैं सोया नहीं था।
23 जुलाई 2004 की सुबह जिस होटल में ,मैं रुका था, हिंदी और अंग्रेजी दोनों के अखबार मेरे सामने थे । दैनिक जागरण के पृष्ठ संख्या तीन पर छह कालम खबर थी- ‘चंद्रशेखर (Chandrashekhar Upadhyay) बने देश के सबसे कम उम्र के अपर -महाधिवक्ता’ अशोक भैया ने दफ्तर पहुंचते ही खबर लिखने को अपने अधीनस्थों को संभवतः कहा होगा । वह उस समय दैनिक जागरण के संपादक थे। अपराह्न लगभग 11:00 बजे, जब सचिवालय में, उस समय के प्रमुख सचिव (न्याय) यूसी ध्यानी के कक्ष में पहुंचा तो अखबार उनके सामने रखा था। उन्होंने गर्मजोशी से स्वागत किया और ठहाका लगाया। आपसे पहले आप की फोटो आ गई।
15 अगस्त को शासनादेश निर्गत हुआ और 24 अगस्त को मैंने ज्वाइनिंग दी। मेरे सामने कुछ विशेष कर दिखाने की चुनौती थी। हिंदी माध्यम से एल-एल. एम. उत्तीर्ण कर पहला भारतीय छात्र बनने तथा 23 जुलाई 2000 एवं 22 अक्टूबर 2000 को एक दिन में मात्र 6 घंटे के भीतर सर्वाधिक वाद क्रमशः 253 एवं 210 निपटाने, मात्र 19 महीने की आलोच्य अवधि में लगभग पौने चार हजार (3778) वाद निपटाने वाले देश के पहले एवं एकमात्र न्यायाधीश बनने का कीर्तिमान मेरे खजाने में था , लेकिन अब मेरे अभियान की उड़ान को ‘बड़े पंख’ मिल गए थे, मैं इस अवसर को हाथ से निकलने नहीं देना चाहता था।
किशोरावस्था से जो सपना मेरे मन -मस्तिष्क में उमड़ता -घुमड़ता था, उसके पूरा होने का वक्त अब आ गया था। चुनौती बहुत बड़ी थी । 11वीं कक्षा में पढ़ते हुए पत्रकारिता से अपना कैरियर शुरू करने के बाद सिंहासन और सिंहासनदाओं से सवाल- जवाब करने का अभ्यास था, पर इस बार चौथे सबसे मजबूत पाए ‘न्यायपालिका’ से वाबस्ता था। वह दिन आ ही गया, मुझे उत्तराखंड के एडीशनल एडवोकेट जनरल के दायित्व से इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक प्रति शपथपत्र( काउंटर) दाखिल करने का शासकीय आदेश प्राप्त हुआ । पशुधन प्रसार अधिकारी डॉ. अनिल चौधरी बनाम उत्तराखंड राज्य व अन्य मामले में मुझे राज्य का पक्ष रखना था । तब अल्मोड़ा में तैनात वादी संयोग से आगरा के मूल निवासी थे। मेरा जन्म भी आगरा में ही हुआ था। वादी ने मिलने का प्रयत्न किया, जैसा कि आम चलन है, कई मामलों में सरकारी अधिवक्ता लगता है कि उभय पक्षों की ही पैरवी कर रहे हों, लेकिन यहां मसला क्षेत्रवाद से ज्यादा हिंदी के सम्मान और उसकी प्रतिष्ठा का था। उस प्रतिशपथपत्र को लिखने में मुझे पूरे 24 दिन लगे। पहले अंग्रेजी में लिखा, फिर उसका हिंदी अनुवाद किया, फिर विधि के एक ज्ञाता से उसकी शब्दावली को जंचवाया। 1 अक्टूबर 2004 को जब मैं प्रतिशपथपत्र लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट पहुंचा तो मुझे लगा कि पूरा हिंदी संसार मेरे साथ है।
गौरवान्वित एवं प्रसन्न चित्त, जब मैं उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्य स्थायी अधिवक्ता (चीफ स्टैंडिंग काउंसिल) के कक्ष में पहुंचा और हिंदी भाषा में लिखा प्रतिशपथपत्र उन्हें थमाया तो उनके समेत वहां बैठे कई सरकारी अधिवक्ताओं ने मुझे ऐसी व्यंगात्मक दृष्टि से देखा, जैसे मैंने कोई बहुत बड़ी गलती कर दी हो । सीएससी काजमी, जो बाद में उत्तर प्रदेश के एडवोकेट जनरल भी बने , बजाय कोई विधिक सवाल करने के ठहाका लगाते हुए अंग्रेजी में बोले -How many persons are there.( वहां आपके जैसे कितने लोग और हैं?) मैंने उन्हें अंग्रेजी में ही जवाब दिया- Yes, there are lot of person but I am one of them. (हाॅ, वहां कई लोग हैं लेकिन, मैं उनमें से एक हूं।) फिर हिंदी में कहा -मैं एक ही काफी हूं । उन्होंने मुझसे हिंदी में कतई बात नहीं की। मैं भी धाराप्रवाह अंग्रेजी में उनसे बात करता रहा, फिर विस्मय से बोले -आपकी अंग्रेजी तो बहुत अच्छी है फिर यह हिंदी क्यों ? मैं उनकी दयनीय मानसिक स्थिति पर मुस्कुरा दिया था। अब बारी मेरी थी । उन्होंने प्रतिशपथपत्र को बहुत बारीकी से पढ़ा, कहीं हिंदी के शब्दों में अटके भी लेकिन फिर मेरी तारीफ भी की, कहा कि बहुत दिनों बाद लॉ ( विधि) से लबालब प्रतिशपथपत्र पढ़ने को मिला है लेकिन यह भी जोड़ा कि ‘पर हिंदी में है …..!!!’
बारह अक्टूबर को रचा था इतिहास, देश में उत्तराखण्ड का मस्तक किया था ऊंचा
औपचारिकताओं के बाद शपथ पत्र रजिस्ट्रार को भेज दिया गया। 12 अक्टूबर 2004 की वह तारीख आ गई, मैं अपनी टीम के साथ माननीय न्यायमूर्ति महोदय के सामने था । प्रतिशपथपत्र देख देख कर चौंके, बोले – Mr.Upadhyay is here. ( उपाध्याय यहां हैं। ) मैंने हाथ उठाकर उन्हें बताया , गौर से मुझे देखा, फिर मुस्कुराए। देश की शीर्ष- अदालत में उस दिन मेरी मां हिंदी अपना आसन ग्रहण करने जा रही थी। मैंने हिंदी में बोलने की अनुमति मांगी , उन्होंने स्वीकृति दी । खचाखच भरी अदालत में उस दिन हर व्यक्ति हिंदी के सम्मान में खड़ा हो गया था। यह पहली बार था , जब किसी सरकार के स्तर से पहली बार किसी हाईकोर्ट में हिंदी भाषा में कार्यवाही की मांग की गई थी। न्यायमूर्ति ने हिंदी भाषा में लिखा गया वह प्रतिशपथपत्र स्वीकार किया और आंखों और होठों से मुस्कुरा कर मुझे आशीर्वाद भी दिया। एक इतिहास रच गया था , उत्तराखंड देश का पहला वह एकमात्र राज्य बन गया, जिसने एडवोकेट जनरल के स्तर से पहली बार हिंदी भाषा में प्रतिशपथपत्र दाखिल किया एवं उसे स्वीकार भी कराया । बाहर निकलते ही हाईकोर्ट के बाहर स्थित हनुमान जी के दर्शन किए ।
फिर अल्फ्रेड पार्क पहुंचा, वहां उस पेड़ को नमन किया, जहां कभी अंग्रेजों की पुलिस को छकाते हुए चंद्रशेखर आजाद ने वीरगति पाई थी। उसी पेड़ के नीचे बैठकर मैंने कई सपने गढ़े- बुने थे , सर्किट हाउस पहुंचा, श्रद्धेय तिवारी का फोन आ गया, खूब आशीर्वाद दिया। फिर देर रात और कई दिन तक बधाइयों एवं शुभकामनाओं का दौर -दौरा चला। मेरे एक पत्रकार मित्र अविकल थपलियाल ने हिंदुस्तान में चार कॉलम खबर छापी -हाईकोर्ट की सीढ़ियों पर हिंदी की पदचाप। शेखर भैया ( शशि शेखर ) उस समय अमर उजाला के समूह संपादक थे। लिखा- अपर महाधिवक्ता ने रचा अनूठा कीर्तिमान। हिंदी के लिए संघर्षरत हैं चंद्रशेखर। दैनिक जागरण में मित्र अविनाश मिश्र ने छह कालम खबर लिखी -फिर छेड़ी हिंदी ने मीठी तान। देश के लगभग समाचार पत्रों एवं न्यूज़ चैनल ने इस खबर को प्रमुखता से छापा व दिखाया था ।
हिंदुस्तान की खबर सभी संस्करणों में थी तो भोपाल से डॉ. मुरली मनोहर जोशी एवं दिल्ली से कांग्रेस के अहमद पटेल एवं जनार्दन द्विवेदी ने बधाई दी । उन शुभकामनाओं एवं बधाइयों को ग्रहण करते हुए , मैं जानता था कि अब देश की मुझसे आवश्यकता से अधिक अपेक्षाएं बढ़ गई हैं। फिर कंटकाकीर्ण मार्ग चुनना होगा और निर्णायक पल तक चलना होगा, चलना होगा, चलना ही होगा …!! हाईकोर्ट में प्रतिशपथपत्र स्वीकार कराने के पश्चात कैसे नैनीताल हाईकोर्ट में हिंदी भाषा में वाद कार्यवाही शुरू हुई , इस पर अगली कड़ी में लौटूंगा। ( क्रमशः)- पूरे देश को सादर-वन्देमातरम्