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पांच राज्यों का चुनावी बिगुल

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सियाराम पांडे ‘शांत’

कोरोना महामारी के बीच पांच राज्यों में चुनाव का आयोजन अपने आप में बड़ी चुनौती है। वह भी तब जब  कई राज्यों में कोरोना के दूसरे  स्वरूप के फिर से सक्रिय होने को लेकर पूरा देश परेशान है। ऐसे में इस चुनाव के अगर अपने लाभ हैं तो नुकसान भी कम नहीं हैं।  इससे पहले कोरोना काल में ही बिहार के चुनाव कराए जा चुके हैं। आपदाएं आती रहती हैं लेकिन आपदा में में भी अवसर की तलाश ही तो बुद्धिमानी है। संतोष व्यक्त किया जा सकता है कि अपने देश के राजनीतिक दलों को आपदा में अवसर तलाशना आ गया है। इस बीच कई बड़े अविष्कार-चमत्कार भी हुए हैं। संसद और विधान मंडलों के सत्र भी चले हैं। चुनावी सभाएं भी हुई हैं। ऐसे में पांच राज्यों के चुनाव  भी हो सकते हैं। निर्वाचन आयोग ने कहा है कि केवल 5 लोग ही चुनाव प्रचार के लिए एक साथ जा सकते हैं। प्रचारकों की तादाद जितनी कम होगी,उतना ही कम होगा संक्रमण का खतरा । वैसे एक कोरोना संक्रमित कई अन्य को संक्रमित कर सकता है।ऐसे में संक्रमण के खतरे को नजरअंदाज तो नहीं किया जा सकता।

पांच राज्यों में विधानसभा  चुनाव का बिगुल बज चुका है।  आचार संहिता लागू हो गई  है और इसी के साथ शुरू हो गई है राजनीतिक धमाचौकड़ी। मतदाताओं को लुभाने के प्रयास तो वहां पहले ही आरंभ हो गए हैं। सभी दल अपने-अपने तरीके से मतदाताओं को लुभाने और खुद को उनका हितैषी बताने में जुटे है। चुनाव तिथि का ऐलान तो बस  औपचारिकता है। चुनाव प्रचार थमने तक सियासी शह-मात का  यह सिलसिला तेज ही होगा,इसमें कोई संदेह नहीं है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगर पश्चिम बंगाल और केरल में भारी भरकम परियोजनाओं की घोषणा की तो पश्चिम बंगाल में अपना गढ़ बचाने के लिए ममता बनर्जी ने पहले तो पेट्रोल -डीजल के दाम एक रुपये घटाए और बाद में  आचार संहिता लगने से कुछ पहले ही राज्य की शहरी रोजगार योजना के तहत कार्य करने वाले अकुशल श्रमिकों के दैनिक भत्ते  144 रुपसे से बढ़ाकर 202 रुपये कर दिए, वहीं अर्द्ध  कुशल श्रमिक की दिहाड़ी 172 रुपये से बढ़ाकर 303 रुपये रोज कर दी है।   कुशल श्रमिकों की एक नई श्रेणी का आगाज करते हुए उनके लिए  400 रुपये दिहाड़ी  तय कर दी।  हालांकि ऐसा करना उन्होंने 5 साल तक मुनासिब नहीं समझा। पश्चिम बंगाल में मजदूरों की बड़ी संख्या है,ऐसे में ममता ने देर से ही सही,मजदूरों को अपने पक्ष में करने की बड़ी कोशिश की है लेकिन देखना यह है कि श्रमिक इसे किस रूप में लेते हैं।

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पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, असम, केरल  व  एक केंद्र शासित  प्रदेश पुडुचेरी में विधानसभा चुनाव की तिथियों के एलान के साथ ही चुनावी युद्ध तेज हो गया है। 27 मार्च से  29 अप्रैल के बीच कई चरणों में होने वाले  मतदान को लेकर राजनीतिक दिग्गजों और स्थानीय क्षत्रपों ने कमर कस ली है।  इस राजनीतिक समर में किसका पलड़ा भारी हो, यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन 2 मई को आने वाले चुनाव नतीजे  इस बार विस्मयकारी साबित होंगे, इस सच को नकारा नहीं जा सकता।

ये चुनाव बाहरी और भीतरी का राग अलाप रहे लोगों को भी जवाब देंगे और उन लोगों को भी जो अति उत्साह में  कुछ भी कहते-सुनते नहीं अघाते। पश्चिम बंगाल में आठ चरणों में जबकि असम में तीन चरणों में मतदान संपन्न  होना है। तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी में एक चरण में छह अप्रैल को मतदान होगा। इन पांचों राज्यों  के  कुल 824 विधानसभा क्षेत्रों के कुल 18.68 करोड़ मतदाता 2.7 लाख मतदान केंद्रों परअपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे। असम विधानसभा का कार्यकाल 31 मई, तमिलनाडु विधानसभा का कार्यकाल 24 मई, पश्चिम बंगाल का 30 मई, केरल का एक जून और पुडुचेरी का आठ जून को पूरा हो रहा है।  असम में 126 विधानसभा क्षेत्र हैं जबकि तमिलनाडु में 234, पश्चिम बंगाल में 294 , केरल में 140 और पुडुचेरी में 30 सीटें हैं।

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पश्चिम  बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा है कि मतदान की तारीखों की घोषणा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के सुझावों के अनुसार की गई है।  चुनाव आयोग को राज्य को  भगवा खेमे की आंखों से नहीं देखना चाहिए। जब तमिलनाडु, पुडुचेरी और केरल में एक चरण में   मतदान हो सकता है तो बंगाल के लिए आठ चरणों में मतदान का क्या औचित्य है।  इन सभी चालों   के बावजूद, उनकी पार्टी  बंगाल का चुनाव जीतेगी। प्रधानमंत्री और गृह मंत्री राज्य के चुनाव के लिए अपनी शक्ति का दुरुपयोग नहीं कर सकते हैं।   वह राज्य की बेटी हैं और बंगाल को भाजपा से बेहतर जानती हैं। भगवा पार्टी का डबल इंजन का जाप राज्य में कभी मूर्त रूप नहीं ले पाएगा।  इस डबल इंजन की ट्रेन में आम लोगों की सवारी के लिए डिब्बे नहीं होंगे। 2016 के विधानसभा चुनाव में तृण मूल कांग्रेस को 211 सीटें मिली थी और केवल 3 सीटों पर ही भाजपा का कमल खिला था।

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2019 के लोक सभा चुनाव में भाजपा ने अल्बत्ते वहां 18 सीटें जीती थीं। इस बार  3 की संख्या को ममता बनर्जी को राजनीतिक शिकस्त देने योग्य बनाने के लिए भाजपा  हर संभव कोशिश कर रही है। उत्तरी 24 परगना जिले के ठाकुरनगर में एक रैली में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने मतुआ समुदाय के सदस्यों को नागरिकता देने का आश्वासन देकर ममता बनर्जी की दुखती रग पर हाथ रख दिया है। मूल रूप से पूर्वी पाकिस्तान के रहने वाले मतुआ हिंदुओं में कमजोर वर्ग हैं जो विभाजन के दौरान एवं बांग्लादेश बनने के बाद भारत आये थे। उनमें से कई को नागरिकता मिल गयी और बहुतों नागरिकता नहीं मिली है।

असम में भाजपा की चुनौती जहां अपनी सरकार बचाने की है,वहीं वामदलों के एक मात्र गढ़ केरल को जीतना भी उसका अभीष्ठ है।इसके लिए  वह हर कदम फूंक-फूंक कर उठा रही है। बीडीजेडी, केसी, जेआर एस और जेएसएस जैसे पुराने सहयोगियों के साथ चुनावी समर में उसका उतरना तो यही बताता है। तमिलनाडु के चुनाव में  इस बार जयललिता और करुणानिधि के चेहरे भले न दिखें लेकिन वोट इन्हीं के नाम पर मांगे जाएंगे। ऐसे में भाजपा की कोशिश वहां कुछ बड़ा करने की होगी। पुडुचेरी में भाजपा की पिछले चुनाव में कोई जमीन नहीं बन पाई थी लेकिन  भाजपा ने चुनाव पूर्व जिस तरह अन्नाद्रमुक और एआईएनआरसी को साथ लिया है,उसका सीधा सा मतलब यह है कि वह यहां से कांग्रेस की जड़ें उखाड़ने का हर सम्भव प्रयास करेगी। कुल मिलाकर इन पांचों राज्यों के चुनाव बेहद दिलचस्प भी होंगे और देश को नई दिशा और दिशा भी देंगे।देखना यह होगा कि चुनाव जीतने के लिए  राजनीतिक दलों की अगली गणित और सियासी रणनीति क्या होगी?

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