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यूपी चुनाव के रोज बनते-बिगड़ते  समीकरण

सियाराम पांडेय’शांत’

उत्तर प्रदेश के चुनावी समर (UP Elections) को समझना बेहद आसान नहीं है। यहां रोज समीकरण बनते-बिगड़ते रहते हैं। उत्तर प्रदेश में जातीय फैक्टर तो काम करता ही है, महजब भी बड़ी भूमिका निभाता है। चुनाव (Election) के दौरान होने वाले अदालती फैसले भी राजनीतिक दलों को असहज और आनंदित करते रहते हैं। अपनी सुविधा संतुलन के अनुरूप। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने आवास पर सिख समाज की दिग्गज हस्तियों की मेजबानी की। इसे यू तो पंजाब के विधानसभा चुनाव से जोड़कर देखा जा रहा है लेकिन उत्तरप्रदेश के सिख समाज पर भी इसका असर पड़ना तय है।

तराई के जिलों में सिखों की बड़ी संख्या को साधने में यह प्रयास सार्थक हो सकता है। संत रविदास की जयंती पर लगभग सभी राजनीतिक दलों ने रविदास मंदिरों में मत्थे टेके। मतलब मतदाताओं को लुभाने के एक भी अवसर नेता छोड़ नहीं रहे हैं। इन दिनों यूपी की राजनीति में परिवारवाद और समाजवाद की जंग छिड़ी हुई है।समाजवाद के असली और नकली स्वरूप को वोट के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है।  परिवारवादी समाजवादी हो सकते हैं या नही, इस पर राजनीतिक बहसों का सिलसिला तेज हो गया है। हर -जीत तो ईवीएम से निकलने वाले वोट तय करेंगे लेकिन एक दूसरे पर मनोवैज्ञानिक बढ़त लेने के मामले में राजनीतिक दलों के बीच नवली नवै न गहमर  टरै वाली स्थिति है।

उत्तर प्रदेश के मतदाता लोकतंत्र के महायज्ञ में अपनी आहुति डाल रहे हैं। दो चरणों के 113 विधानसभा क्षेत्रों में मतदान हो चुके हैं। तीसरे चरण  के 16 जिलों हाथरस,फिरोजाबाद,एटा,कासगंज,मैनपुरी,कन्नौज,इटावा,औरैया,कानपुर देहात,फर्रुखाबाद, कानपुर नगर,जालौन,झांसी,ललितपुर,हमीरपुर और महोबा की 59 सीटों के लिए चुनाव प्रचार थम गया है। 21575430 मतदाताओं को 627 प्रत्याशियों के भाग्य तय करना है।जिन 59 सीटों पर मतदान होना है उनमें अवध क्षेत्र की 27,बुंदेलखंड की 13 और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 19 सीटें शामिल हैं। वर्ष 2017 में इन 59 में से 49 सीटों पर भाजपा  की जीत हुई थी।ऐसे में जाहिर है कि उसके समक्ष अपना गढ़ बचाने की चुनौती है। सपा-रालोद गठबंधन,बसपा और कांग्रेस उसे अपने-अपने तरीके से चुनौती दे रहे हैं।

यह सच है कि मतदाताओं की लाठी में आवाज नहीं होती।वह सीधी चोट करती है।राजनीतिक दलों को पानी मांगने का भी अवसर नहीं देती।इस बार राजनीतिक दल जिस तरह चुनाव में वादों की खेती कर रहे हैं।तमाम सुविधाएं मुफ्त देने के वादे कर रहे हैं। वह कोई समाधान नहीं है।मतदाताओं को आत्मनिर्भर बनाने,उन्हें विकास से जोड़ने का मार्ग कोई नहीं सुझा रहा और जो ऐसा करने की कोशिश कर भी रहा है,उसे खलनायक बनाने-ठहराने की कोशिशें तेज हो गई हैं।ऐसे में मतदाताओं को ही तय करना है कि वे किन हाथों में अपने भविष्य की कमान सौपना चाहते हैं।आलोचना और विरोध तो ठीक है लेकिन उसके उद्देश्य और पृष्ठभूमि पर भी नजर डालनी होगी।उसमें अपने हिताहित की भी चिंता करनी होगी तभी चुनाव का कोई मतलब है अन्यथा दल और चेहरे तो बदलेंगे लेकिन मतदाताओं के हालात में कोई खास बदलाव नहीं आने वाला ।इस लिहाज से भी यह चुनाव नीति और नीयत को परखकर मतदान करने का है।

विधानसभा चुनाव वैसे तो देश के पांच राज्यों में हो रहे हैं लेकिन चर्चा के केंद्र में तो उत्तर प्रदेश ही है। सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने अपनी अधिकतम ताकत उत्तर प्रदेश में झोंक रखी है। पहले चरण में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 11 जिलों की 58 सीटों के लिए मतदान हो चुका है।पहले चरण में जाट और मुस्लिम मतदाता निर्णायक स्थिति में थे। वे इस बार किधर गए हैं,यह तो चुनाव नतीजे के बाद ही पता चलेगा लेकिन इसे लेकर कयासों का बाजार गर्म हो गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कह रहे हैं कि पहले चरण के चुनाव के बाद कुछ राजनीतिक दलों के नेताओं को सपने आने बंद हो गए हैं।यही नहीं,उनकी नींद भी उड़ गई है। वहीं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इस बात को लेकर पूरी तरह आश्वस्त हैं कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राणाओं का वोट भाजपा के पक्ष में ही जाएगा।

दूसरे चरण में  9 जिलों सहारनपुर,रामपुर,मुरादाबाद,अमरोहा,शाहजहांपुर, बिजनौर,संभल, बदायूं और बरेली की 55 सीटों पर मतदान हो चुका है। यहां मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका में रहे। उनकी संख्या कहीं-कहीं तो 60 प्रतिशत से भी अधिक है। मुरादाबाद की 5 विधानसभा सीटों पर अगर 50-55 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं तो बिजनौर की 8 सीटों पर  40 से 50 प्रतिशत तक । अमरोहा की 4 सीटों पर 50 प्रतिशत,बदायूं की 6 सीट पर 40-45 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं। रामपुर की 5 सीटों पर 50 पर मुस्लिम मतदाता हैं जबकि संभल की चार सीटों पर यादव और मुस्लिम मतदाताओं की तादाद 60 प्रतिशत तक पहुंच जाती है। इन 9 जिलों की 55 सीटों के 586 उम्मीदवार मैदान में थे।

सपा ने दूसरे चरण के लिए  20, बसपा ने 23, कांग्रेस ने 20 मुस्लिम प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारे है। असदुद्दीन ओबैसी की पार्टी भी पूरे दम खम के साथ यहां जोर आजमा रही है। सभी दलों के प्रत्याशी रसूखदार हैं। ऐसे में मुस्लिम मतों का कमोवेश विभाजन तय है और अगर ऐसा है तो भाजपा को इसका लाभ भी मिलेगा। वर्ष 2017 की विधान सभा चुनाव में भाजपा को इन 9 जिलों की 55 में से 38 सीटें मिली थीं जबकि 15 सीटों पर सपा और 2 सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवार जीते थे । बसपा को यहां पूरी तरह मुंह की खानी पड़ी थी। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भी यहां की 11 में से 7 सीटों पर भाजपा की जीत यह बताने के लिए काफी है कि मुस्लिम मतों के विभाजन की स्थिति में भाजपा को लाभ होता है। इस बार भी कुछ इसी तरह के हालात हैं। पिछली बार के चुनाव में मुस्लिम  महिलाएं भाजपा के मौन मतदाता की भूमिका में थीं।

तीन तलाक कानून बनाकर भाजपा सरकार ने उनके दिल में अपनी जगह बनाई थी लेकिन इस बार जिस तरह हिजाब विवाद सुर्खियों में है, उससे मुस्लिम महिलाओं की भाजपा के प्रति थोड़ी नाराजगी भी दिख रही है। हालांकि सरकारी योजनाओं का लाभ लेने वाली मुस्लिम महिलाओं को पता है कि उनके हित और अमन-चैन के लिए भाजपा क्यों जरूरी है? और अब तो गुप्तचर एजेंसियों ने भी साफ कर दिया है कि हिजाब विवाद पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई की साजिश है। इसके बाद भी अगर मुस्लिम महिलाएं इस षड्यंत्र को न समझ पाईं तो निकट भविष्य में उन्हें इसकी बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ सकती है।

असदुद्दीन ओबैसी ने कहा है कि वह दिन दूर नहीं जब देश की प्रधानमंत्री हिजबी महिला बनेगी। यह मुस्लिम महिलाओं को अपने पक्ष में लाने का सामान्य राजनीतिक प्रयास है या मुगलों के बाद हिंदुस्तान की गद्दी पर काबिज होने का इस्लामिक षड़यंत्र। मुस्लिमों को लगता है कि वे इस देश के शासक रहे हैं और इसके लिए वे हर संभव कोशिश कर रहे हैं। परिवार नियोजन कार्यक्रम को विफल करने के पीछे भी उनकी यही सोच काम कर रही है।

लोकतंत्र में जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी होती है। जातियों में बंटा हिन्दू समाज इसे समझ नहीं पा रहा है। वोट के लिए कुछ राजनीतिक दल भी इस षड्यंत्र का हिस्सा बन गए हैं। इसलिए भी मौजूदा चुनाव सोच-समझ कर वोट देने का है। यह प्रदेश के भविष्य का सवाल है। हमे सबका साथ देना है। सबके जीवन में सुख का प्रकाश देखना है तो अपने मताधिकार की कीमत भी समझनी है। पं.दीन दयाल उपाध्याय ने कहा था कि हमें राजनीतिक दल को देखकर नही, प्रत्याशी को देखकर मतदान करना चाहिए। अच्छा राजनीतिक दल भी प्रत्याशी चयन में पूर्वाग्रही हो सकता है। मतदाताओं को राजनीतिक दलों की इस गलती को सुधारने का हक है।

उम्मीद है कि मतदाता इस बात को समझेंगे और उसे चुनेंगे जो देश काल और परिस्थितियों के अनुरूप हो। जो देश को आगे ले जाने का माद्दा रखता हो। उसे परिवारवादी और राष्ट्रवादी दलों में से किसी एक को चुनना है। मतदाता को यह भी तय करना है कि उसे दमदार और ईमानदार सरकार चाहिए या दुमदार सरकार। राजनीतिक दल ठीक कह रहे हैं कि यूपी का यह चुनाव इतिहास बदलेगा। लेकिन ऐसा तब होगा जब मतदाता जाती-धर्म से ऊपर उठकर मतदान करेगा।

पहले चरण में 60 प्रतिशत वोट पड़े हैं।मतलब 40 प्रतिशत की लोकतंत्र में कोई आस्था नहीं है। ऐसे लोग इतिहास नहीं बदलते। इतिहास बदलने वाले लोग उंगलियों पर गिनने भर होते हैं। काश! इस चुनाव में हम उन्हें पहचान पाते। कौन विकास करेगा और कौन विनाश, इस बात को समझ पाते। वैसे भी यह चुनाव यूपी के उत्थान और पराभव का है। अब यह मतदाताओं के हाथ में है कि वे यूपी की बागडोर किन हाथों में देना पसंद करेंगे। यूपी में मतदाताओं के दूसरे चरण की परीक्षा है। इसमें वह कितने पास-फेल होंगे, यह तो वक्त ही तय करेगा।

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