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किसानों का आंदोलन देश के लिए बन गया सिरदर्द

Desk by Desk
29/01/2021
in Main Slider, ख़ास खबर, नई दिल्ली, राजनीति, राष्ट्रीय
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किसान आंदोलन farmers protest

किसान आंदोलन

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सियाराम पांडेय ‘शांत’
आंदोलन हमेशा दुख देता है। सरकार को भी और आम जनता को भी। किसानों के आंदोलन के साथ भी कमोवेश यही बात है। इस आंदोलन के चलते आस-पास के लोगों को परेशानी हो रही है। उनका कारोबार ठप हो रहा है। खेती किसानी प्रभावित हो रही है। किसान आंदोलन की वजह से बार्डर बंद हैं। इसके चलते उन्हें घूमकर अपने गंतव्य तक पहुंचना पड़ रहा है। सच तो यह है कि किसानों के आंदोलन के चलते स्थानीय लोगों का जीना दूभर  हो गया है।
लाल किले पर खालसा पंथ का झंडा फहराए जाने के बाद पूरा देश उबाल में हैं।  सच तो यह है कि किसानों का आंदोलन देश के लिए सिरदर्द बन गया है। कुछ राजनीतिक दल जिस तरह इस आंदोलन को हवा दे रहे हैं, उससे इस देश को पता चल गया है कि यह आंदोलन किसानों का कम, राजनीतिक दलों का अधिक है। यह बात शुरू से कही जाती रही है। मुजफ्फरनगर की महापंचायत में सपा, आप, रालोद और अन्य दलों के नेताओं का पहुंचना, राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा द्वारा इस आंदोलन को सपोर्ट करना यह बताता है कि यह आंदोलन भाजपा विरोधी दलों का है। किसानों को तो बस  मोहरा बनाया जा रहा है।
नरेला और बवाना इलाकों से भारी संख्या में कुछ लोग सिंघु बॉर्डर को खाली करवाने पहुंच गए और देखते ही देखते वहां माहौल बिगड़ गया। आक्रोशित लोगों ने आंदोलनकारी किसानों को वहां से हटने को कहा और सिंघु बॉर्डर खाली करो के नारे लगाने लगे। इस दौरान एक ग्रामीण ने एक पुलिस अधिकारी के हाथ पर तलवार से वार कर दिया। ग्रामीणों पर काबू पाने के लिए पुलिस ने लाठी चार्ज किया और आंसू गैस के गोले छोड़े। फिलहाल हालात नियंत्रण में है। किसान सवाल उठा रहे हैं कि आखिर इतने पुलिस इंतजाम के बीच इन लोगों को अंदर आने कैसे दिया गया?
सवाल वाजिब है। जिस तरह आंदोलनकारी दिल्ली बाॅर्डर पर आ गए और  पिछले दो महीने से जमे हैं। जिस तरह उन्होंने सड़क किनारे गुमटियों का शहर बसा लिया है, उसी तरह उनका प्रतिकार करने के लिए अगर किसान आ गए तो इसमें गलत क्या है? रही बात किसान आंदोलन का सच जानने की तो उसे किसी को भी जानना चाहिए क्योंकि इसके बिना बात बनती नहीं है।  वर्ष 2007 से ही यह देश आयातित दाल खा रहा था। पिछले दो साल से केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने दाल के आयात पर रोक लगाना शुरू कर रखा है। साथ ही उसका प्रयास दलहन और तिलहन के उत्पादन में आत्मनिर्भरता लाना है। इस निमित्त उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में दलहन-तिलहन महोत्सव का आयोजन भी किया।
इसके पीछे केंद्र और भाजपा शासित राज्यों का लक्ष्य यही था कि दलहन और तिलहन की खेती करने वाले किसानों की समस्या जानना और उन समस्याओं का निदान करना। इससे किसानों ने फिर से दलहन और तिलहन की खेती शुरू की। इससे देश में दलहन-तिलहन के आयात की जरूरत घटी। 2 साल पहले मोदी ने इस पर रोक लगानी शुरू कर दी और अब उसने विदेशों से दाल का आयात लगभग पूरी तरह रोक दिया है। कृषि बिल तो बहाना है। असल किस्सा यह है कि वर्ष  2005 में मनमोहन सरकार ने दाल पर दी जा रही सब्सिडी को खत्म कर दिया था। उसके 2 साल बाद सरकार ने नीदरलैंड ऑस्ट्रेलिया और कनाडा से समझौता कर दाल आयात करना शुरू कर दिया।
कनाडा ने अपने यहां दाल के बड़े-बड़े फार्म स्थापित किए जिसकी जिम्मेदारी वहां रह रहे पंजाबी सिखों  को मिली। कनाडा से भारत में बड़े पैमाने पर दाल आयात होने लगा। बड़े आयातकों में अमरिंदर सिंह  और  कमलनाथ  की कांग्रेस सरकार भी थी।  जैसे ही मोदी सरकार ने दलहन के आयात पर रोक लगाई, प्रकाश सिंह बादल का परिवार भी तिलमिला उठा। कनाडा के फार्म सूखने लगे। कनाडा में पंजाबियों की नौकरी पर खतरा मंडराने लगा।जस्टिन ट्रुडो ने अगर किसानों के आंदोलन का समर्थन किया था तो उसके मूल  में भी यही बात थी। उन्हें यह भी पता था कि बड़ी जोत के किसान पंजाब में ही हैं।
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कनाडा में पंजाब के लोग बड़ी तादाद में वहां की नागरिकता पा गए हैं और प्रकारांतर से वहां के चुनाव में बड़ी भूमिका निभाते हैं।  दाल के आयात पर प्रतिबंध को देखते हुए कनाडा  में रह रहे सिखों को पंजाब वापस  न भेज दिया जाए, यह आशंका भी इस आंदोलन को जिंदा रखने का बड़ा कारण है। कृषि कानून का सबसे ज्यादा विरोध विदेशी ताकतें और कुछ खालिस्तानी सिख कर रहे हैं। भारत का आम किसान अपनी फसल की बदौलत अमीर होगा तो इन्हें तो कष्ट होना ही है।
25 फरवरी 2010 को सुष्मास स्वराज ने संसद में कांग्रेस को आईना दिखाते हुए कहा था कि मनमोहन सरकार में दालों का आयात किया गया। आयात की छूट दी गयी लेकिनआयात की हुई दालें बंदरगाह पर पड़ी रहीं, व्यापारियों ने वहां डैमरेज देना स्वीकार किया लेकिन दालों को बाजार में लाना इसलिए स्वीकार नहीं किया कि दाम और बढ़ने वाले हैं और वहां से तब उठाएंगे जब हमें इसके दाम का लाभ तिगुना-चैगुना मिलेगा। स्टेट एजेंसियां एसटीसी, पीईसी, एनएसी, एमएमटीसी और नैफेड इस अपराध में शामिल थीं।
पत्रकारों की खोजी टीम कोलकाता बंदरगाह पर पहुंची थी और सेंट्रल वेयरहाउसिंग कोरपोरेशन में लदी हुई बोरियां उन्होंने दिखाई थीं जबकि लोग त्राहि-त्राहि कर रहे हैं, उन्हें खाने के लिए दालें नहीं मिल रही है। गरीब की एक मात्र प्रोटीन दाल होती है लेकिन वह आयातित माल इस इंतजार में पड़ा हुआ था कि कब दाम बढ़ें और उन्हें बाजार में लाया जाए। यह दालों का घोटाला था।  पंजाब के कुछ नेताओं और उनके समर्थकों के आढ़त के बड़े कारोबार हैं। किसान अगर देश भर की मंडियों में अपने अनाज बेचने लगेगा तो उनका क्या होगा। यही सोचकर इस आंदोलन को हवा दी गई है कि अगर  पूंजीपति अनुबंध की खेती के क्षेत्र में आ गए तो वे किसानों की जमीन हड़प लेंगे। किसान अमीर होगा तो इन्हें तो कष्ट होगा ही।
मौजूदा केंद्र सरकार ने ने भारत को विकसित करने का बीडा उठाया है और जनता भी साथ दे रही है, जल्द ही भारत की आर्थिक हालत विश्व में सबसे अच्छी होगी क्योंकि जिस देश में अन्न बाहर से खरीदना नहीं पड़ता, वही देश सबसे जल्दी् विकसित होते हैं। सवाल यह उठता है कि अडानी और अंबानी के गोदाम बनने पर कांग्रेस या अन्य राजनीतिक दलों को परेशानी होती है लेकिन इसी तरह की परेशानी उन्हें तब क्यों नहीं हुई जब पेप्सिको, वॉलमार्ट, हिन्दुस्तान यूनीलीवर, आईटीसी जैसी विदेशी कंपनियों ने पंजाब, हरियाणा और महाराष्ट्र में बड़े-बड़े  गोदाम बनाए। तब कोई विरोध क्यों नहीं किया गया?
रिलायंस रिटेल, रिलायंस डिजिटल अब सारे देश में पहुंच रहे हैं, तो अमेजन और फ्लिपकार्ट को तकलीफ होना स्वाभाविक है। स्वदेशी पतंजलि के आने से हिन्दुस्तान यूनीलीवर (कोलगेट, लक्स, पाँड्स) का एकाधिकार समाप्त हो गया, तो उन्हें तकलीफ तो होनी ही थी। चीन दुनिया भर के साथ भारत में भी 5जी तकनीक बेचने को उतावला है, ऐसे में जियो की संपूर्ण स्वदेशी 5 जी तकनीक से उसे  क्यों रास आएगी। अब जब अपने देश के उद्योगपति आगे बढ़ रहे हैं, देश को फायदा पहुंचा रहे हैं, तो अपने ही देश के कतिपय लोग उनका विरोध क्यों कर रहे हैं? इसी तरह का विरोध उन्होंने विदेशी उद्योगपतियों का क्यों नहीं किया?
अब पंजाब के आंदोलनकारी किसान नेताओं का कहना है कि अगर उक्त उद्योगपति अपना गोदाम बनाने में सफल हो गए तो किसानों की जमीन हड़प लेंगे। सरकार ने उन्हें पहले ही आश्वस्त कर रखा है कि कोई किसी की जमीन नहीं हड़प सकता। किसान जैसे चाहे, उसका उपयोग कर सकता है लेकिन कहते हैं कि संशयात्मा विनश्यति। संशय में पड़ा इंसान नष्ट हो जाता है।  गोस्वामी तुलसीदास ने भी लिखा है कि जाके मतिभ्रम भये खगेसा। ताके पस्चिम उगैं दिनेसा।
पंजाब में देशी-विदेशी कंपनियों के  गोदाम वर्षों से मौजूद हैं, जब तब जमीन नहीं गई तो अब जमीन कैसे चली जाएगी। दरअसल सच यह है कि कुछ लोगों की काली कमाई पर बंदिश लग गई है। असल छटपटाहट की वजह यह है।
Tags: farmers protestकिसान आंदोलन
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