पश्चिम बंगाल में अपनी पार्टी को प्रचंड बहुमत दिलाने वाली तृणमूल नेता ममता बनर्जी खुद विधानसभा चुनाव हार गयी हैं। इसके बावजूद उनका मुख्यमंत्री बनना तय माना जा रहा है। यदि ऐसा हुआ तो इतिहास में पहली बार होगा, जब पद पर रहते हुए हार जाने के बावजूद कोई नेता फिर अपनी कुर्सी पर वापसी करेगा। आम तौर पर नैतिकता के आधार पर हारने वाले नेता कुर्सी छोड़ दिया करते हैं अथवा पार्टी उन्हें इस काबिल नहीं मानती।
अभी चार साल ही हुए, जब गोवा ने यह स्थिति देखी थी। इसके पहले 2014 में गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर देश के रक्षामंत्री बनाये जाने पर दिल्ली जा चुके थे। उनकी जगह लक्ष्मीकांत पारसेकर राज्य के मुख्यमंत्री बनाये गये। जब विधानसभा चुनाव हुए, भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए की सत्ता में वापसी हुई, किंतु खुद पारसेकर चुनाव नहीं जीत सके। पार्टी नेतृत्व ने उन्हें सीएम बनाये रखने के काबिल नहीं समझा और पर्रिकर फिर से गोवा वापस भेजे गए। पर्रिकर फिर से मुख्यमंत्री बने।
ऐसा नहीं कि हार के बाद नैतिकता के आधार पर सत्ता से बाहर रहने का उदाहरण गोवा में भाजपा का ही हो। बहुत पहले मध्य प्रदेश के दो बार मुख्यमंत्री रहे नेता कैलाश नाथ काटजू और उत्तर प्रदेश के चार बार सीएम रहे चंद्रभानु गुप्त के साथ भी यही हुआ था। काटजू की गिनती देश के बड़े नेताओं में होती थी और वे उत्तर प्रदेश के राज्यपाल भी रहे। जब 1962 का चुनाव हुआ तो मुख्यमंत्री कैलाश नाथ काटजू अपनी जन्मस्थली रतलाम जिले की जावरा विधानसभा सीट से चुनाव लड़े, पर हार गए। कांग्रेस फिर से बहुमत में आ गयी थी, पर इसका श्रेय काटजू को नहीं मिला। तब उनकी जगह कांग्रेस ने भगवंतराव मण्डलोई को सीएम बनाया।
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उत्तर प्रदेश में चंद्रभानु गुप्त का मामला कैलाशनाथ काटजू से थोड़ा अलग था। हमीरपुर की मौदहा सीट पर उपचुनाव हुए थे। सीएम चंद्रभान गुप्त कहीं से एमएलए नहीं थे और वे ही विधायक ब्रजराज सिंह की छोड़ी हुई सीट मौदहा से कांग्रेस उम्मीदवार थे। बुंदेलखंड में राठ के दीवान शत्रुघ्न सिंह की पत्नी रानी राजेंद्र कुमारी ने उन्हें निर्दलीय के तौर पर चुनाव हरा दिया। इस तरह चंद्रभान गुप्त सीएम रहते हुए विधानसभा चुनाव हार गए।
पश्चिम बंगाल में अब गोवा, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के इन उदाहरणों के विपरीत हो सकता है। साफ संकेत है कि पराजित मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ही फिर से इस कुर्सी पर वापस आ रही हैं। नियमानुसार उन्हें छह महीने के भीतर चुनाव लड़कर विधानसभा का सदस्य बनकर आना होगा। फिलहाल उनके ही अपनी पार्टी विधानमंडल दल की नेता चुने जाने की संभावना है, जिसके बाद उनका मुख्यमंत्री बनने का रास्ता साफ हो जायेगा।
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मुख्यमंत्री रहते चुनाव हारने वालों में उत्तर प्रदेश के ही त्रिभुवन नारायण सिंह, हिमाचल प्रदेश के वीरभद्र सिंह और शांता कुमार, उत्तराखंड के भुवनचंद खंडूड़ी और हरीश रावत, कर्नाटक के सिद्धारमैया, दिल्ली की शीला दीक्षित, झारखंड के हेमंत सोरेन और रघुवरदास भी शामिल हैं। हालांकि इनके उदाहरण बिल्कुल अलग तरह के हैं और इनकी गति अपनी पार्टी के साथ ही जुड़ी थी।