गोरखपुर। पूर्वांचल के बाहुबली नेता और उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री रह चुके हरिशंकर तिवारी (Harishankar Tiwari) का निधन हो गया। जानकारी के मुताबिक जिस गोरखपुर से उनके बाहुबल की शुरुआत हुई, उसी गोरखपुर स्थित उनके घर पर उन्होंने अंतिम सांस ली। उत्तर प्रदेश की राजनीति और बाहुबलियों के अध्याय में हरिशंकर तिवारी एक चर्चित नाम और अध्याय रहे हैं।
चिल्लूपार विधानसभा क्षेत्र से वयोवृद्ध बाहुबली हरिशंकर तिवारी का नाम बार-बार उभरकर सामने आता है। वे इस सीट से लगातार 22 वर्षों (1985 से 2007) तक विधायक रहे। हरिशंकर तिवारी तीन बार कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़कर जीते व यूपी सरकार में मंत्री भी बने थे।
सूत्रों की मानें तो हरिशंकर तिवारी (Harishankar Tiwari) पूर्वांचल में पैदा होने वाले बाहुबलियों की नर्सरी कहलाते थे। 70 के दशक में गोरखपुर यूनिवर्सिटी से जिस बाहुबल का आगाज उन्होंने किया उसको विस्तार कॉलेज से निकलने के बाद सरकारी ठेकों में हुआ।
कैसा था वर्चस्व
सन 1986, जिला- गोरखपुर, स्थान- बड़हलगंज, कांग्रेस और ब्राह्मणों के बड़े नेता पंडित कमलापति त्रिपाठी नेशनल डिग्री कॉलेज के एक प्रोग्राम में आमंत्रित थे। आयोजक थे पंडित हरिशंकर तिवारी (Harishankar Tiwari) जो जेल में रहते हुए निर्दलीय विधायक चुने गए थे। तब सूबे के मुख्यमंत्री थे वीर बहादुर सिंह। आयोजन खत्म हुआ तो कमलापति त्रिपाठी के काफिले को छोड़ने के लिए तिवारी 3 किलोमीटर दूर दोहरीघाट तक गए जो मऊ जिले में आता है।
लौटते समय पुलिस ने गोरखपुर की सीमा में उन्हें गिरफ्तार कर लिया। हल्ला मचा कि वीर बहादुर सिंह तिवारी का एनकाउंटर कराना चाहते हैं। पुलिस उन्हें लेकर गोरखपुर की तरफ निकली। खबर जंगल में आग की तरह फैली। तब मोबाइल का जमाना नहीं था लेकिन मुख्यालय तक पहुंचते-पहुंचते गाड़ियों का काफिला लंबा हो गया। तकरीबन 5000 लोगों ने थाना घेर लिया।
उधर कमलापति त्रिपाठी बनारस पहुंचे तो उन्हें पता चला कि हरिशंकर तिवारी (Harishankar Tiwari) को गिरफ्तार कर लिया गया है। उन्होंने सीएम से बात की। इधर पब्लिक मरने-मारने पर ऊतारू थी। ‘जय-जय शंकर, जय हरिशंकर’ के नारे जैसे-जैसे तेज होते जा रहे थे, पुलिस पसीने-पसीने हुई जा रही थी। आखिरकार तिवारी को छोड़ना पड़ा और यही वह पल था जब हरिशंकर तिवारी ब्राह्मणों के नेता हो गए।
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गोरखपुर को गोरखनाथ की धरती के रूप में जाना जाता था। तब गोरक्षनाथ पीठ को कोई चुनौती नहीं दे सकता था। चाहे दिग्विजय नाथ रहे हों या महंत अवैद्यनाथ। दरबार लगते रहे और वहां से फरमान जारी होते रहे। प्रशासन की हिम्मत नहीं होती थी कि कोई उसे नकार सके। महंत ठाकुर होते, कांग्रेस से उनका कोई लेना-देना नहीं होता, वह RSS से जुड़े होते। मठ के आगे सीएम की भी नहीं चलती।
1970 के दशक में गोरखपुर में छात्र नेता हुआ करते थे रवींद्र सिंह। ठाकुरों की ठसक तो उनमें थी लेकिन लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करते थे। उनके शागिर्द हुए वीरेंद्र प्रताप शाही जो अपनी बात मनवाने के लिए किसी हद तक जाने की कूवत रखते थे। रवींद्र सिंह गोरखपुर विश्वविद्यालय के अध्यक्ष चुन लिए गए। मठ पर पहले से ही ठाकुरों का वर्चस्व था, अब यूनिवर्सिटी में भी दबदबा हो गया। मठ और विश्वविद्यालय मिलकर गोरखपुर को मुकम्मल करते थे। ब्राह्मण पढ़ने में बेहतर थे, ऐसे में हर काम में आगे रहना वो अपना हक मानते थे।