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उमंग और उल्लास  पर भारी स्वच्छंदता

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सियाराम पांडे ‘शांत’

होली रंग और उमंग का त्यौहार है लेकिन यह दोनों ही तत्व लोगों की जिंदगी से गायब है। इसकी कई वजहें हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा था कि कोउ न काहू सुख-दुख कर दाता। निज कृत कर्म भोग सब ताता। लापरवाही छोड़ दी जाए। संयमित हो लिया जाए। अब काम को, क्रियाकलाप को व्यवस्थित कर लिया जाए तो कोई कारण नहीं कि एक भी व्यक्ति दुखी हो। मुनुष्य अपनी परेशानियों का जनक खुद है। कोरोना जिसकी वजह से होली के रंग में भंग पड़ रही है, उसकी वजह या तो व्यक्ति की स्वच्छंदता है या फिर लापरवाही।  आजकल लोग आभासी दुनिया में भी यही रोना रोते हैं यानी फेसबुक, ट्वीटर, व्हाट्सएप और सोशल मीडिया के सभी प्लेटफार्मों में यही कहते और सुनते पाये जाते हैं कि अब तो किसी चीज में कोई मजा ही नहीं है।

जिधर देखिये, उधर पुराने दिनों का बस रोना ही रोना है। जिनसे हम कभी मिले भी नहीं होते, जिन्हें हम अच्छी तरह से जान भी नहीं रहे होते, ऐसे लोगों के साथ भी सोशल मीडिया में हम ऐसी ही बातें करते हैं। हर जगह चाहे आभासी दुनिया हो या सचमुच की दुनिया। हर जगह हम बस नॉस्टेलेजिक रोना रोते ही मिलते हैं। सवाल है आखिर मस्ती के सारे दिन, मस्ती के सारे एहसास, मस्ती के सारी रोमांचित करने वाली बेहतरीन यादें अतीत में ही क्यों रह गई हैं? क्या वाकई में हमारा जीवन अचानक बहुत परेशानियों और कष्ठों से घिर गया है? क्या वास्तव में मस्ती जैसा एहसास अतीत की बात होकर रह गई है? अगर ऐसा है तो क्यों है?

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नि:संदेह हर गुजरते दिन के साथ हमारी जिंदगी में रोमांचित कर देने वाले पल, चाहे हम उन्हें मस्ती कहें या मजा आ गया जैसे ‘वॉओ फैक्टर कहें। ये कम तो हुए ही हैं। बावजूद इसके कि आज हमारी जिंदगी में ज्यादा सहूलियतें हैं। सुविधाएं हैं। जिंदगी आज पहले से ज्यादा स्मूथ है। इसके बाद भी हम खुश नहीं हैं। खुश तो थोड़े बहुत फिर भी हैं या हो लेते हैं, लेकिन अभिभूत कर देने वाला रोमांच, हमारी रोजमर्रा की जिंदगी से सचमुच गायब हो गया है। सवाल है इसका कारण क्या है? आपको हैरानी हो सकती है, लेकिन यकीन मानिये इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हम मस्ती को लेकर, खुशियों को लेकर कुछ ज्यादा ही चिंतित हैं। हर समय हमें यह चिंता सताती रहती है कि हमारी जिंदगी में मस्ती नहीं रही, रोमांच नहीं रहा।

कई तरह की खुशियां तो हैं, लेकिन खुशियों के एहसास नहीं रहे। यकीन मानिये इस समझ और इस चिंता ने ही मस्ती को हमारी जिंदगी से दूर कर दिया है। दरअसल अब के पहले हम कभी इतने सजग, इतने व्यवस्थित और इतने सुचिंतित इंसान नहीं रहे। आज हम हर चीज के लिए बहुत सजग हैं। ज्यादा से ज्यादा कमाने के लिए, ज्यादा से ज्यादा खुश रहने के लिए, ज्यादा से ज्यादा स्वस्थ रहने के लिए, ज्यादा से ज्यादा सुख भोगने के लिए और ज्यादा से ज्यादा मस्त रहने के लिए भी। मस्ती को हमने अपने अवचेतन में नहीं रहने दिया। हमने इसे सक्रिय चेतना का हिस्सा बना दिया है।

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आज हम भावनात्मक रूप से भी इतने जबरदस्त उपभोक्तावादी हो गये हैं कि हर उस चीज का ज्यादा से ज्यादा उपभोग कर लेना चाहते हैं, जिसे हमने मान लिया है कि वह हमारे लिए अच्छी है। दरअसल हम इतने सजग, इतने कॉशंस और इतने आक्रमक हैं कि हमें लगता है कि हमारे लिए जो भी अच्छी चीजें हैं, उन्हें हम जितना ज्यादा से ज्यादा खुद हड़प लें, उपभोग कर लें, वही ठीक है। इसमें हमने खुशी को, मस्ती के भाव और एहसास को भी यह छूट नहीं देते कि वे चुपके से आकर हमें हतप्रभ करें, हमें सरप्राइज दें। हम तयशुदा मौके पर सुनिश्चित ढंग से खुश होना चाहते हैं, मस्त होना चाहते हैं और हम यह छूट वक्त को, परिस्थितियों को और किसी भी किस्म की अनहोनी को नहीं देना चाहते।

हमारी यही जद्दोजहद, हमारी यही सजगता सही मायनों में हमें रोमांचित करने वाले एहसासों से वंचित करती  है। क्योंकि हमें लगता है कि हम हर चीज खुद हासिल कर सकते हैं, कुदरत की हमें क्या जरूरत है? इसलिए आज हम हर चीज जुटा रहे हैं। फिर चाहे वह मस्त होने के क्षण या मस्त होने का एहसास ही क्यों न हो। हम कोशिशन चुटकुले पढ़ते हैं और उन पर हंसते, मुस्कुराते या खुश होने के दौरान भी सजग रहते हैं कि हमें मजा आ रहा है या नहीं कि हम मस्त हो रहे हैं या नहीं। हम दरअसल किसी भी अनहोनी का जोखिम नहीं लेना चाहते।

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