सियाराम पांडेय ‘शांत’
एक विधान-एक निशान का नारा देने वाले श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान दिवस के ठीक एक दिन बाद हुई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गुपकार संगठन की बैठक कितनी सफल रही, कितनी विफल, यह तो आने वाला वक्त ही तय करेगा लेकिन परिसीमन के बाद चुनाव और जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने पर सहमति जरूर बन गई है। जम्मू-कश्मीर जैसे जटिल मुद्दों पर एक—दो वार्ता वैसे भी काफी नहीं है। इस पर सतत वार्ता की जरूरत है। दिल्ली और घाटी से दिल की दूरी मिटाने की चिंता तो इस बैठक में दिखी ही है, मुलाकात के बाद मुखालफत के स्वर भी तेज हुए हैं, इसे बहुत हल्के में नहीं लिया जा सकता।
प्रधानमंत्री और गृहमंत्री दोनों ही के स्तर पर इस बात का आश्वासन दिया गया है कि जम्मू-कश्मीर में चुनाव परिसीमन के बाद होंगे। सरकार वहां लोकतंत्र की मजबूती और जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा देने को लेकर प्रतिबद्ध है। बैठक में गुपकार संगठन के जितने भी नेता शामिल रहे, उनमें से पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ्ती को छोड़कर एक भी नेता ऐसा नहीं रहा जिसने पाकिस्तान से बात करने का राग अलापा हो। महबूबा मुफ्ती का तर्क था कि हम चीन से बात कर सकते हैं तो पाकिस्तान से क्यों नहीं? उन्होंने पाकिस्तान से व्यापार की बहाली पर तो जोर दिया ही, जेलों में बंद कैदियों को रिहा करने तक की मांग कर डाली वहीं, नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने आर्टिकल-370 पर अपनी लड़ाई अदालत में लड़ने की बात भी कही, साथ ही यह भी कहा कि प्रधानमंत्री दिल की दूरी कम करना चाहते हैं, लेकिन एक मुलाकात से न दिल की दूरी कम होती है और न दिल्ली की दूरी कम होती है।
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उन्होंने जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की तो बात की लेकिन परिसीमन पर अपनी सहमति जता दी। महबूबा मुफ्ती और उमर अब्दुल्ला की राय के अपने सियासी मतलब भी हैं क्योंकि इन दोनों ही परिवारों का घाटी की राजनीति में अपना वर्चस्व रहा है लेकिन अगर परिसीमन होता है और जम्मू क्षेत्र में सात विधान सभा सीटें और बढ़ जाती हैं तो घाटी की सियासत में पहले जैसी ही पकड़ बनाए रख पाना इन दोनों नेताओं के लिए बेहद कठिन होगा।
जम्मू—कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने और जम्मू कश्मीर के पुनर्गठन से नाराज कश्मीरी नेताओं में से सभी कश्मीर की शांति और विकास के पक्ष में अपनी सहमति जताते नजर आए।महबूबा मुफ्ती ने पाकिस्तान का नाम अवश्य लिया, लेकिन वह भी एलओसी के दोनों तरफ बंटे परिवारों के दर्द की आड़ लेकर। इस बहाने वे प्रकारांतर से पाकिस्तान और अलगाववादी साथियों को संदेश देना भी नहीं भूली कि उन्हें उनका एजेंडा बखूबी याद है।
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इसमें संदेह नहीं कि प्रधानमंत्री आवास पर हुई बैठक ने 5 अगस्त 2019 को संसद में पारित जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की राह में आई रुकावट को दूर करने का प्रयास किया है। इस बैठक में डॉ. फारूक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती और सज्जाद गनी लोन जैसे नेता भी शरीक हुए जिन्होंने लंबे समय तक कश्मीर के प्रकरण पर नजरबंदी झेली है। यह सभी अनुच्छेद 370 को हटाने खिलाफ मुखर रहे हैं और उसकी पुनर्बहाली की मांग करते रहे हैं। प्रधानमंत्री के साथ इन लोगों की पांच अगस्त, 2019 के बाद यह पहली बैठक थी। हालांकि, बकौल प्रधानमंत्री यह बैठक पहले भी हो सकती थी, वे ऐसा करना भी चाहते थे लेकिन चाहकर भी वे कोरोना काल के चलते ऐसा नहीं कर सके। प्रधानमंत्री का कश्मीर मिशन सबको पता है। शायद इसीलिए भी बैठक में शामिल सभी दलों में कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा देने और वहां लोकतंत्र की बहाली पर ही जोर दिया। साढ़े तीन घंटे की वार्ता में हरेक ने अपने दिल की बात कही। प्रधानमंत्री ने सबको धैर्य के साथ सुना भी और अपना मंतव्य भी सुस्पष्ट किया कि वे जम्मू-कश्मीर और दिल्ली के बीच दिल की दूरी को कम करना चाहते हैं। इस बैठक से इतना तो साफ हो गया है कि राज्य पुनर्गठन अधिनियम के विरोधी दल अब अपनी जंग सड़कों पर नहीं, अदालत में ही लड़ेंगे। पाकिस्तान के साथ वार्ता पर जोर न देना इस बात का इंगित है कि अब उन्हें इस बात की प्रतीति होने लगी है कि इस मामले में अब जो कुछ भी करेगा, केंद्र ही करेगा। पाकिस्तान का कोई लेना-देना नहीं है। जम्मू-कश्मीर पूरी तरह से भारत का आंतरिक मसला है। एक तरह से इस बैठक ने पुनर्गठन अधिनियम मिशन पर सहमति की मुहर लगा दी है।
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इस सच को भी नकरा नहीं जा सकता कि अगर जम्मू कश्मीर में परिसीमन निर्धारित नियमों के अनुरूप हुआ तो जम्मू कश्मीर में सत्ता और राजनीति का संतुलन भी प्रभावित होगा। यह परिसीमन जम्मू बनाम कश्मीर या हिंदू बनाम मुस्लिम नहीं होगा, जैसा कि नेशनल कांफ्रेंस, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी या उन जैसे कुछ अन्य दल दावा कर रहे हैं। यह सिर्फ सीटों की संख्या बढ़ाने या उनके स्वरूप में संभावित बदलाव तक सीमित नहीं है, बल्कि अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित जातियों के लिए विधायिका में आरक्षण को भी सुनिश्चित बनाएगा। जाहिर है, इससे कश्मीर और मुस्लिमों के तथाकथित झंडाबरदार बैकफुट पर आ जाएंगे। उमर अब्दुल्ला अगर परिसीमन का विरोध कर रहे हैं तो, उसके पीछे यही कारण हो सकता है।
पुनर्गठन अधिनियम के तहत जम्मू कश्मीर राज्य अब दो केंद्र शासित प्रदेशों जम्मू-कश्मीर व लद्दाख में पुनर्गठित हो चुका है। पुनर्गठन अधिनियम के लागू होने के कुछ समय पहले तक लद्दाख कश्मीर संभाग का हिस्सा था। इससे कश्मीर संभाग का भूभाग, आबादी व अन्य कई बिंदुओं के आधार पर जम्मू संभाग से ज्यादा हो जाता था लेकिन अब हालात बदल गए हैं। ऐसे में जम्मू संभाग की उपेक्षा कर पाना अब पहले जैसा आसान नहीं होगा।
मार्च, 2020 में जस्टिस (रिटायर्ड) रंजना देसाई के नेतृत्व में परिसीमन आयोग का गठन किया गया था, जिसका कार्यकाल इसी साल मार्च में एक साल के लिए और बढ़ाया गया है। इसमें जम्मू कश्मीर के पांचों सांसद भी शामिल हैं, जिनकी भूमिका सलाहकार की है। इन पांच में से तीन सांसद नेशनल कांफ्रेंस और दो भाजपा से ताल्लुक रखते हैं। नेकां ने शुरू में इसका विरोध किया और बीते माह उसने परिसीमन की बैठक में शामिल होने का संकेत दे दिया, ताकि वह निर्वाचन क्षत्रों के बदलाव के समय अपना पक्ष रख सके। अपने हितों को सुनिश्चित कर सके। पुनर्गठन अधिनियम लागू होने से पहले जम्मू कश्मीर राज्य विधानसभा में 111 सीटें थीं। इनमें कश्मीर संभाग की 46, लद्दाख की 4,जम्मू संभाग की 37 और गुलाम कश्मीर के लिए आरक्षित 24 सीटें थीं। अब लद्दाख की चार सीटें समाप्त हो चुकी हैं और जम्मू कश्मीर में 107 सीटें रह गई हैं। सात सीटें बढ़ाए जाने का प्रस्ताव है। लद्दाख अब कश्मीर से अलग हो चुका है, इसलिए अब कश्मीर केंद्रित दल अपने भूभाग को जम्मू संभाग से ज्यादा नहीं बता सकते। परिसीमन आयोग अगर निर्धारित बिंदुओं को ध्यान में रखेगा तो जम्मू संभाग में विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या बढ़ेगी और जम्मू की सीटें 37 से 44 हो जाएंगी, जबकि कश्मीर की 46 सीटें ही रहेंगी और ऐसी स्थिति में कश्मीर केंद्रित राजनीतिक दलों को वर्चस्व समाप्त हो जाएगा, क्योंकि कई अन्य दल भी कश्मीर में अपने प्रभाव वाले इलाकों में जीत दर्ज करेंगे। इनमें से अधिकांश दल नेकां, पीडीपी के साथ नहीं जाना चाहेंगे।
जम्मू कश्मीर में मौजूदा 83 विधानसभा सीटों में से सात अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित हैं और यह सभी सिर्फ जम्मू संभाग में और हिंदू बहुल आबादी वाले इलाकों में ही हैं। इसके अलावा अनुसूचित जनजातियों के लिए भी 11 सीटें आरक्षित होंगी। मौजूदा परिस्थितियों में जम्मू कश्मीर में अनुसूचित जनजातियों के लिए एक भी सीट आरक्षित नहीं है। जम्मू कश्मीर में अनुसूचित जनजातियों में गुज्जर, बक्करवाल, सिप्पी, गद्दी समुदाय ही प्रमुख है। इसमें गद्दी समुदाय आबादी सबसे कम है और यह गैर मुस्लिम है जो किश्तवाड़, डोडा, भद्रवाह और बनी के इलाके में ही हैं जबकि अन्य पूरे प्रदेश में हैं। राजौरी, पुंछ, रियासी, बनिहाल, कुलगाम, बारामुला, शोपियां, कुपवाड़ा, गांदरबल में जनजातीय समुदाय की एक अच्छी खासी तादाद है। नेशनल कांफ्रेंस, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, कांग्रेस और अब पीपुल्स कांफ्रेंस, जम्मू कश्मीर अपनी पार्टी या फिर इन जैसे कुछ अन्य दल ही इन समुदायों का चैंपियन होने का दावा करते हैं।
अगर परिसीमन 2021 की जनगणना के आधार पर कराया जाता तो बहुत बेहतर होता और अनुच्छेद 370 की समाप्ति के बाद जो थोड़ी बहुत कसर बची है, वह अपने आप पूरी हो जाती। मौजूदा परिसीमन प्रक्रिया अगर केंद्र सरकार बिना किसी वर्ग के तुष्टिकरण के पूरा करती है तो आप यह मान लीजिए कि जम्मू संभाग के साथ 1947 के बाद हो रहा राजनीतिक पक्षपात पूरी तरह समाप्त हो जाएगा। गुज्जर-बक्करवाल समुदाय भी राजनीतिक रूप से मजबूत होगा। सत्ता का समीकरण बदल जाएगा। नेकां, पीडीपी, पीपुल्स कांफ्रेंस की ही नहीं गुज्जर-बक्करवाल समुदाय में भी खानदानी सियासत पूरी तरह समाप्त हो जाएगी।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा जम्मू कश्मीर के सियासी भविष्य के संबंध में बुलाई बैठक में संविधान के अनुच्छेद 370 एवं 35 ए के बारे में कोई बात नहीं हुई जबकि परिसीमन को लेकर बने गतिरोध को दूर करने की कोशिश की गयी। पूर्व मुख्यमंत्री एवं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद ने कहा कि उन्होंने बैठक में पांच सूत्रीय मांगें रखीं थीं जिनमें जम्मू कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा देना, विधानसभा के चुनाव कराना एवं लोकतंत्र बहाल करना, कश्मीरी पंडितों का पुनर्वास सुनिश्चित करना, राजनीतिक बंदियों की रिहाई तथा प्रवासन नियमों में बदलाव करना शामिल हैं। कश्मीर घाटी में कश्मीरी पंडितों की वापसी भाजपा का चिरप्रतीक्षित सपना रहा है। अगर वह अपने इस अभीष्ठ की पूर्ति में सफल होती है तो घाटी में भी उसके अपने तरफदार होंगे। यह और बात है कि जिस समय प्रधानमंत्री अपने आवास पर गुपकार संगठनों के साथ वार्ता की मेज पर बैठे थे, उस वक्त कश्मीरी पंडिम जम्मू-कश्मीर में इस बात को लेकर धरना-प्रदर्शन कर रहे थे कि बैठक मे उन्हें आमंत्रित क्यों नहीं किया गया? उनका कहना है कि वह एक महत्वपूर्ण पक्ष हैं और उनकी बात भी सुनी जानी चाहिए।
वहीं, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम ने कहा है कि केंद्र सरकार जम्मू-कश्मीर में पहले चुनाव कराना चाहती है और फिर पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करना चाहती है। जबकि, कांग्रेस और जम्मू-कश्मीर की दूसरी पार्टियां चाहती हैं कि पहले पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल किया जाए और फिर चुनाव कराया जाए। घोड़ा गाड़ी को खींचता है। पूर्ण राज्य में चुनाव कराना चाहिए। इस स्थिति में ही चुनाव निष्पक्ष और स्वतंत्र होंगे। सरकार क्यों चाहती है कि गाड़ी आगे हो जाए और घोड़ा पीछे।
जम्मू-कश्मीर में सियासत बहुत हो चुकी, मौजूदा समय सियासत का नहीं, वरन जम्मू-कश्मीर के विकास का है और इसके लिए जरूरी है कि वहां का सम्यक विकास हो। इस बात को वहां के नेताओं ही नहीं, अवाम को भी समझना होगा। बेहतर यह होता कि यह बात समझी जा पाती।