सियाराम पांडेय ‘शांत’
देश सबका है। राष्ट्रपति और राज्यपाल सबका होता है। संविधान सबका है। सर्वोच्च न्यायालय और न्यायालय सबके हैं। सरकारें तो जनता की प्रतिनिधि मात्र हैं। उनके काम का, काम करने का तरीके का स्तर अच्छा या बुरा हो सकता है लेकिन लोकतंत्र में किसी दल या व्यक्ति के राज की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। हाल के दिनों में सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालयों, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री, राज्यपाल और मुख्यमंत्रियों पर आपत्तिजनक टिप्पणियां हुई हैं।
उनकी भूमिका पर भी सवाल उठे हैं। इस पर विमर्श होना चाहिए कि अचानक राजनीतिक दलों को संवैधानिक संस्थाओं और उनसे जुड़े लोगों पर संदेह क्यों होने लगा? यह सच है कि आजादी के बाद से आज तक राष्टपति और राज्यपाल सत्तारूढ़ दल से ही चुने जाते रहे हैं। होना तो यह चाहिए कि इन पदों पर किसी व्यक्ति को बैठाने के पहले यह सुनिश्चित कर लिया जाता कि वे किसी भी राजनीतिक दल से जुड़े न हों। उनका किसी राजनीतिक दल के प्रति झुकाव न हो।
वे समाजसेवा, चिकित्सा, साहित्य, विज्ञान और कला आदि के क्षेत्र से चुने जा सकते हैं। यह जब तक नहीं होगा तब तक उसकी भूमिका संदेह के कठघरे में खड़ी की जाती रहेगी। संवैधानिक महत्व के पदों पर बैठे लोगों को अपने आचरण से इस बात का अहसास हरगिज नहीं होने देना चाहिए जिससे यह लगे कि उनका किसी दल विशेष के प्रति कोई झुकाव है। वैसे भी आज की राजनीति सच को सच कहना नहीं चाहती। वह समालोचना में कम, अनावश्यक मीन-मेख में ज्यादा यकीन रखती है।
राज्यपालों और सरकारों के झगड़े इस बात के संकेत नहीं देते कि वहां सब कुछ ठीक चल रहा है। कोई मुख्यमंत्री अगर राज्यपाल को सकारी विमान से उतरवा देता हे और उसे कढ़ी-पत्ते की उपमा से विभूषित करता है तो राज्य और केंद्र के संबंधों पर सवाल उठना लाजिमी भी है। राजनीतिक दलों के लोग जहां जाते हैं, उस क्षेत्र की इतनी प्रशंसा कर देते हैं कि दूसरे क्षेत्र के लोग हीन भावना का शिकार होने के लिए अभिशप्त हो जाते हैं। जब जैसा तब तैसा का व्यवहार तो किसी भी लिहाज से ठीक नहीं है। इस प्रवृत्ति से बचना चाहिए।
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पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भारत को जमीन का टुकड़ा नहीं, वरन राष्ट्रपुरुष माना था। राहुल गांधी के केरल और अमेठी को लेकर दिए गए बयान को लेकर देश भर में राजनीति का बाजार गर्म हो गया है। उन्हें उत्तर और दक्षिण की, पूरब और पश्चिम की राजनीति करनी चाहिए या नहीं, इसे लेकर राजनीतिक बहस-मुबाहिसों का सिलसिला तेज हो गया है। इसमें संदेह नहीं कि देश या प्रदेश किसी व्यक्ति विशेष का नहीं है। किसी दल विशेष का नहीं है। किसी जाति और धर्म विशेष का नहीं है। सबका है यानी सबका है। इसमें संदेह की कोई गुंजाइश है भी नहीं।
देश सबका है तो इसे सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी भी सबकी है। इसे आगे ले जाने की जिम्मेदारी भी सबकी है। देश सुचारु ढंग से चले, इसके लिए देश का अपना संविधान है। न्यापालिका है। कार्यपालिका है। विधायिका है। सबके अपने दायित्व हैं। सबके अपने कार्यक्षेत्र हैं। सब अपना दायित्व निभाते हैं। कोई किसी के कार्यक्षेत्र में दखल नहीं देता। यही लोकतंत्र की खूबसूरती है लेकिल लगता है कि इन दिनों इस सुंदरता को राजनीति का ग्रहण लग गया है। लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर क्या कुछ नहीं बोल रहे हैं।
इससे दुनिया भर में भारत की छवि खराब हो रही है। असहमति का अर्थ यह तो नहीं कि विवेक और देशहित की भावना को ताक पर रख दिया जाए। विरोध के लिए विरोध को किसी भी स्वरूप में सराहा नहीं जा सकता। देश सेवा करने के लिए उच्च पदों पर होना ही जरूरी नहीं, सत्ता में बने रहना ही जरूरी नहीं। हम जहां हैं, जैसे भी हैं, जिस किसी भी भूमिका में हैं, वहीं से अच्छे काम कर सकते हैं। नवोन्मेष कर सकते हैं। कुछ अलग और उल्लेखनीय कर सकते हैं। हर-एक व्यक्ति के काम से ही यह देश आगे बढ़ता है।
समुद्र अपने आप में कुछ नहीं। वह बूंदों के मिलन की परिणिति हैं। व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज और गांव बनता है। गांव से ब्लाॅक-तहसील, जिला और प्रदेश बनता है और जब कई प्रदेश मिलते हैं तो देश बनता है। कई देशों के मिलने से दुनिया बनती है। मतलब व्यक्ति अहम है, उतना ही जितना कि देश और दुनिया अहम है। एक व्यक्ति की गलती का खामियाजा कभी-कभी देश और दुनिया को भुगतना पड़ता है। दुर्योधन की एक गलती के चलते महाभारत जैसा विनाशकारी युद्ध हुआ था।
इस बात को इस देश के राजनीतिज्ञों को बखूबी समझना चाहिए। देश का अपना भूगोल है। उसके एक भी हिस्से को अलग कर दिया जाए तो नक्शा बदल जाता है। यह बात सबको समझनी चाहिए। किसी को भी ऐसी बात नहीं करनी चाहिए जिससे कि उत्तर और दक्षिण का, पूरब और पश्चिम का बोध हो। क्षेत्रीयता की भावना विकसित हो।
देश की एकता और अखंडता हर व्यक्ति का सपना होनी चाहिए। विडंबना इस बात की है कि पिछले कुछ समय से विधायिका और कार्यपालिका को अलग-अलग चश्मे से देखने का चलन आरंभ हो गया है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा है कि लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत संवाद है। आपस में सहमति और असहमति सकती है, लेकिन संवाद की सिलसिला बना रहना चाहिए।
राज्यपाल का अभिभाषण विधानमंडल के लिए सरकार का एक दस्तावेज होता है। सरकार की उपलब्धियां और भावी योजनाएं इसके माध्यम से सदन में रखी जाती है। योगी आदित्यनाथ ने विधानसभा में कहा है कि सांविधानिक प्रतीकों और प्रमुखों का सम्मान चुने गए जनप्रतिनिधियों का दायित्व होना चाहिए, लेकिन इस मामले में हम लोग चूक कर जाते हैं। परिपाटी अच्छी बननी चाहिए। राज्यपाल जब आती हैं तो सत्ता पक्ष और विपक्ष को उनका उनका सम्मान करना चाहिए। कोई भी प्रतिकूल टिप्पणी नहीं की जानी चाहिए, लेकिन जैसा हुआ, वह पीड़ादायक है। अब सदन में एक नई परिपाटी बन गई है।
उन्होंने इस बात पर चिंता जताई कि अगर ऐसा ही कुछ होता रहा तो कभी ऐसा न हो कि लोग विधायिका को ड्रामा मानने लगे। लाल टोपी, नीली टोपी और पीली टोपी में सदन में विधायकों के आने पर भी उन्होंने चिंता जाहिर की और इसके बजाय भारतीय पगड़ी पहनकर सदन में आने का सुझाव दिया। लगे हाथ यह भी कहा कि ढाई साल का बच्चा टोपी पहने व्यक्ति को गुंडा समझता है। नेता प्रतिपक्ष को इस उम्र में टोपी लगाकर आना शोभा नहीं देता है। उन्हें अयोध्या जाने से डर लगता है।
अज्ञेय की पंक्तियों के जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि ‘सर्प तुम कभी नगर नहीं गए, नहीं सीखा तूने वहां बसना, तो फिर कहां से विष पाया, कहां सीखा डसना।’ योगी आदित्यनाथ ने नाम लिए बिना राहुल गांधी पर निशाना साधते हुए कहा कि जिन्हें यूपी के लोगों ने सांसद बनाया वह केरल जाकर यूपी के लोगों की खिल्ली उड़ा रहे हैं। इसके बाद सदन में कांग्रेस ने सीएम के बयान पर हंगामा शुरू कर दिया। हमने किसी का नाम नहीं लिया, चोर की दाढ़ी में तिनका।
यूपी और अमेठी के लोगों को कौन अपमानित कर रहा है। केरल सनातनी धरती है। आदिशंकराचार्य केरल में ही जन्मे थे। सीएम ने प्रियंका गांधी पर निशाना साधते हुए कहा कि यूपी आएंगे तो मंदिर भी याद आने लगता है। जब सेना बॉर्डर पर दुश्मनों को जवाब देती है, तो सेना को हतोत्साहित किया जाता है। उनके पास इटली जाने का समय था, अमेठी आने का नहीं। ये मानसिकता हम सबको चिंता में डालती है।
वायनाड के सांसद राहुल गांधी ने कहा कि पहले 15 साल तक मैं उत्तर में एक सांसद था। मुझे एक अलग तरह की राजनीति की आदत हो गई थी। मेरे लिए केरल आना बहुत नया था क्योंकि मुझे अचानक लगा कि यहां के लोग मुद्दों पर दिलचस्पी रखते हैं और न केवल सतही रूप से बल्कि मुद्दों को विस्तार से जानने वाले हैं। उनके इस बयान पर विदेश मंत्री एस जयशंकर ने तीखा हमला करते हुए कहा कि भारत एक है, इसको रीजन में मत बांटिए। केंद्रीय मंत्री और अमेठी से सांसद स्मृति ईरानी ने अपने ट्विटर अकाउंट पर लिखा है -एहसान फरामोश! इनके बारे में तो दुनिया कहती है- थोथा चना बाजे घना।
योगी आदित्यनाथ ने भी कहा है कि राहुल जी, आप इसे अपनी ओछी राजनीति की पूर्ति के लिए क्षेत्रवाद की तलवार से काटने का कुत्सित प्रयास न करें। भारत एक था, एक है, एक ही रहेगा। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने भी कहा है कि कुछ दिनों पहले राहुल गांधी पूर्वोत्तर में थे तो पश्चिमी हिस्से के लिए जहर उगल रहे थे, आज दक्षिण में हैं तो उत्तर के लिए जहर उगल रहे हैं। फूट डालो और राजनीति से काम नहीं चलता।
इसमें संदेह नहीं कि राहुल गांधी के बयान स्वागत योग्य नहीं हैं और उनके पूर्व संसदीय क्षेत्र का अपमान करने वाले हैं लेकिन उनके विरोध में जिस तरह के शब्दों का व्यवहार हो रहा है, उसे भी उचित नहीं कहा जा सकता। विरोध करते वक्त सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों ही को शब्दों पर नियंत्रण रखना चाहिए। सम्मान की फसल काटनी है तो सम्मान को बोना पड़ेगा। सम्मान देकर ही सम्मान पाया जा सकता है। जब तक इस बात को सलीके से समझा न जाएगा, उस पर अमल नहीं किया जाए , इसी तरह के राजनीतिक विवाद होते रहेंगे।
यह समय आरोपों-प्रत्यारोपों में समय गंवाने का नहीं, अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से देश के विकास रथ को आगे ले जाने का है। कौन देश को बांटने और बेचने वाला है, इस पर समय खराब करने से बेहतर यह होगा कि यह सोचा जाए कि हम क्या कर रहे हैं और देश के लिए हमारा बेहतर योगदान क्या हो सकता है। एक जनप्रतिनिधि के रूप में हम जनता की अपेक्षाओं पर कितना खरा उतर पा रहे हैं।