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बढ़ती महंगाई और बिगड़ता बजट

deteriorating budget

deteriorating budget

सियाराम पांडे ‘शांत’

महंगे आलू, प्याज, दाल, मस्टर्ड और रिफाइंड सोया आॅयल के दाम आम आदमी को अभी चुभ ही रहे थे कि अचानक रसोई गैस के दाम में  सौ रुपये से अधिक की वृद्धि करके सरकार ने गरीबों का बजट बिगाड़ दिया है। जो सिलेण्डर पिछले सात 550 रुपये के आसपास पड़ता था वह अब 700 रुपये के करीब पहुंच गया है। कभी रसोई गैस के दाम में दस-बीस रुपये की वृद्धि होने पर विपक्ष विरोध में सड़कें जाम कर देता था। पूरे देश में आंदोलन खड़ा कर देता था लेकिन एक लंबे समय से विपक्ष ऐसे मुद्दों पर विरोध कर रहा है जिस पर उसे विरोध नहीं करना चाहिए और उन मुद्दों पर पूरी तरह चुप है जहां विपक्ष को सड़क पर आगर विरोध करना चाहिए। यह सरकार के लिए गुड इकोनॉमिक्स हो सकती है कि उसने धीरे-धीरे  गैस सब्सिडी को खत्म कर दिया और एक बड़ी समस्या से वह निकल गयी, लेकिन आम आदमी पर उसने बहुत बड़ा बोझ डाल दिया।

इसी सरकार की नीतियों के कारण आज गरीबों के घर में भी गैस सिलेण्डर पहुंच गया है। गरीब भी अब अपनी रसोई बनाने के लिए गैस का इस्तेमाल करते हैं । ऐसे में जब आम आदमी को सात सौ रुपया महीना सिर्फ गैस पर खर्च करना पड़ेगा तो फिर उसकी रसोई कैसे पकेगी?  गैस कीमतें पूरी तरह सरकार के नियंत्रण में रहती हैं और सरकार सब्सिडी देती है। रसोई गैस की कीमत सरकार तय कर देती है  और कंपनियां बाजार पर मूल्य पर गैस उपभोक्ताओं को डिलीवर करती हैं,  लेकिन सरकार द्वारा घोषित दाम से जितना अधिक उपभोक्ताओं को भुगतान करना पड़ता था वह अंतर सरकार सब्सिडी के रूप में खाते में वापस करती है। इससे सब्सिडी का दुरुपयोग भी रुक गया है और काफी हद तक सब्सिडी का बिल भी घट गया। लेकिन बीते पांच-छह महीने में सरकार ने बड़ी चालाकी से गैस सब्सिडी बहुत कम कर दिया है। नवम्बर माह में गैस का दाम 632 रुपये था, जिसे दिसम्बर में बढ़ाकर कंपनियों ने 682 रुपये कर दिया। जनवरी में गैस के दाम 732 रुपये प्रति सिलेण्डर है और इस पर सब्सिडी महज 35 रुपये है।

इस तरह जहां एक तरफ कंपनियों ने गैस के दाम अनाप-शनाप बढ़ा दिये हैं  वहीं सरकार ने सब्सिडी धीरे-धीरे कम कर दी है। अब उपभोक्ता को 732 रुपये के सिलेण्डर  पर  35 रुपये की सब्सिडी घटा दिया जाये तो प्रति सिलेण्डर 698 रुपये में पड़ेगा। इस तरह सरकार ने महज चार-पांच महीनों में रसोई गैस के दाम में करीब 150 रुपये प्रति सिलेण्डर तक बढ़ोत्तरी कर दी है और यह आम उपभोक्ता के लिए बहुत पीड़ादायक है। सरकार भले सब्सिडी खत्म करके खजाने की सेहत को ठीक करने में लगी हो लेकिन इससे आम आदमी की रसोई बहुत महंगी हो गयी है।  सबसे अधिक चिंता की बात तो यह है कि इस पर विपक्ष ने एक बयान तक नहीं दिया है जबकि  बेकार के मुद्दों पर वह हाथ-पैर मार रहा है। कभी कृषि सुधारों का विरोध विपक्ष कर रहा है, तो कभी टीके पर सवाल उठा रहा है,  इसे हास्यास्पद ही कहेंगे कि दूसरे देशों को वैक्सीन देने पर भी कांग्रेस ने सवाल उठाया है लेकिन एक बार भी सरकार से रसोई गैस की कीमत पर सवाल नहीं किया और न ही कोई विरोध करने सड़क पर उतरी। सरकार खजाने की चिंता में है और विपक्ष जन सरोकारों से कट गया है। इसी का परिणाम है कि  कंपनियां मनमाने दाम वसूल रही हैं। उपभोक्ता अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल एवं गैस के दाम कम होने के बावजूद ऊंची कीमत देने को विवश हैं।

शेयरबाजार में हाहाकार

शेयर बाजार को लेकर जो हर्ष का महौल था। दूसरे दिन ही वह हाहाकार में तब्दील हो गया है।  जिस तेजी के साथ शेयर बाजार में गिरावट आ गई है, उसने एक दिन पहले खुशी मना रहे लोगों की भावनाओं और उमंगों पर तुषारापात कर दिया है। प्राय: पूंजी बाजार की बढ़त को हम बुलबुला कहकर हवा में उड़ा देते हैं, आर्थिक प्रगति को तमाम चुनौतियों और झंझावातों में लपेटकर खारिज कर देते हैं और निराशा का  ऐसा मंजर खड़ा करते रहते हैं जैसे कुछ हो ही नहीं रहा  है या देश में सिर्फ समस्याएं ही बची हैं। लेकिन जब हम आर्थिक सुधारों के तीन दशक के इतिहास पर नजर डालते हैं तो प्रगति की ऐसी गुलाबी तस्वीर साफ दिखती है जो हमारी अन्तर्निहित संभावनाओं एवं चुनौतियों से जूझने का माद्दा प्रदर्शित करती है। आज अगर भारतीय पूंजी बाजार शिखर पर है, निफ्टी और सेंसेक्स हर दिन एक नया  मुकाम हासिल कर रहे हैं तो यह आर्थिक सुधारों के तीन में मिली ठोस उपलब्धियों का प्रतिफल है। व्यक्तिगत जीवन में कोई एक-दो साल या कुछ साल में अपनी किस्मत बदल सकता है, फर्श से अर्श पर पहुंच सकता है। लेकिन जब राष्ट्रीय जीवन में सामूहिक प्रगति की बात आती है तो हमे अपने प्राकृतिक एवं मानवीय संसाधनों एवं संभावनाओं को विकास की तरफ मोबलाइज कर लंबे समय तक नियोजन की कठिन साधना करनी पड़ती है, तब जाकर विकास दिखता है, प्रगति महसूस होती है और जीवन में बदलाव आता है। भारत में यह सब आसान नहीं है।

जहां उद्यमिता को राजनीति के दलदल में खींचने की अपसंस्कृति हो, राष्ट्रीय संपत्तियों को क्षति पहुंचा कर विजयी भाव महसूस किया जाता हो, उस देश में तीन दशक तक आर्थिक सुधारों का जारी रहना भी किसी सुखद आश्चर्य से कम नहीं है। भारत ने आर्थिक सुधारों की तीन दशक की यात्रा सफलता पूर्वक तय की है और आज भी जब कुछ किसान संगठन कृषि कानूनों को रद कराने पर अडेÞ हुए हैं तब सरकार भी चट्टान की मानिंद कृषि सुधारों को आगे बढ़ाने पर बाजिद है। आज अगर पूंजी  बाजार कुलांचे भर रहा है, एफडीआई का प्रवाह बना हुआ है, फॉरेक्स ट्रिलियन डॉलर की तरफ अग्रसर है तो यह सुधारों की उस कठिन साधना का प्रतिफल है जिस पर चलने का साहस और विवेक हमारी सरकारों ने दिखाया है। सुधारों का विरोध पूरी दुनिया में होता रहा है, बावजूद इसके कि पड़ोसी चीन ने 1978 में आर्थिक सुधारों को अपने यहां लागू किया और तीन-चार दशक में आर्थिक विकास की वह तस्वीर गढ़ दी जिसको देखकर पूरी दुनिया आश्चर्यचकित हो जाती है। भारत की चुनौती सीधे चीन से है, हमे चीन की बराबरी करनी है तो अपनी परम्परागत व्यवस्थाओं को सहेजते हुए सुधारों की दिशा में तेजी से बढ़ना होगा और 1.40 अरब की विशाल आबादी का सिर गिन-गिन कर जनाधिक्य के पहाड़ में दबने के बजाय प्राकृतिक एवं मानवीय संसाधनों का विवेकपूर्ण प्रबंधन कर हरेक सिर को दो हाथ और मुंह में बदलने का उपक्रम करना होगा

अगर हमारी जनसंख्या अधिक है तो हाथ भी अधिक हैं जिनको उद्यमिता में समायोजित कर राष्ट्रीय प्रगति का बायस बनाया जा सकता है। भारत उस मुकाम पर खड़ा है जहां अगले तीन दशक की दीर्घकालीन विकास स्टोरी फैसलों और पहल का इंतजार कर रही है। कोरोना महामारी के कारण लड़खड़ाई अर्थव्यवस्था संभल चुकी है, एफडीआई और घरेलू कैपेक्स फिर शुरू हो चुका है, फॉरेक्स 585 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया है और कोरोना महामारी काफी कुछ नियंत्रण में आ चुकी है। अब यही समय है जब सरकार बजट के माध्यम से विकास की एक नयी यात्रा की शुरूआत करे। बीएसई सेंसेक्स का 50000 के शिखर पहुंचना भी यही संकेत करता है कि हमारे हौसले बुलंद हैं, बस सरकार को दिशा तय करनी है लेकिन दूसरे दिन की गिरावट ने तय कर दिया है कि शेयर बार में स्थायी कुछ भी नहीं होता।

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