नई दिल्ली। देश में एक ऐसी शख्सियत भी राष्ट्रपति बनी, जिसका जीवन उपलब्धियों, विवादों और विडंबनाओं से भरा पड़ा है। जब सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनने का उन्हें मौका दिया तो उसे अस्वीकार कर दिया बाद में अपने इस फैसले पर अफसोस भी किया। राष्ट्रपति होते हुए अपने घर नहीं जा सके और घर की गली तक पहुंचने के बाद लौटना पड़ा। जिसने कभी नहीं सोचा था कि उसे अपनी ही बेटी के हत्यारों की दया याचिका को सुनना पड़ेगा। हम बात कर रहे हैं देश के 9वें राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा (Shankar Dayal Sharma) की।
डॉ. शंकर दयाल शर्मा (Shankar Dayal Sharma) का जन्म 19 अगस्त 1918 में भोपाल में हुआ था। 22 साल की उम्र में स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन से जुड़ गए थे और आजादी के बाद 1952 में भोपाल के मुख्यमंत्री बने। इस तरह से सीएम से लेकर राज्यपाल, उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति बने। 6 दिसंबर 1992 देर रात जब अयोध्या में बाबरी ढांचा ढहाया जा रहा था तब राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा हताश और असहाय महसूस कर रहे थे।
दिल्ली दंगा की साजिश में दामाद था आरोपी
आंध्र प्रदेश के राज्यपाल रहते हुए शंकर दयाल शर्मा (Shankar Dayal Sharma) की बेटी और दामाद की हत्या कर दी गई थी। यह बात उस दौर की है जब सिखों का एक तबका इंदिरा गांधी से बुरी तरह खफा था। वजह ऑपरेशन ब्लू स्टार था। 1984 में स्वर्ण मंदिर पर खालिस्तानी आतंकवादी जरनैल सिंह भिंडरावाले ने कब्जा कर लिया था। मंदिर को उससे आजाद कराने के लिए इंदिरा गांधी ने यह ऑपरेशन चलाया था, जिसकी जिम्मेदारी जनरल अरुण श्रीधर वैद्य को सौंपी गई थी। भिंडरावाले मार गिराया गया, लेकिन इस ऑपरेशन से सिखों की धार्मिक भावनाएं आहत हो गई थीं। इस ऑपरेशन के चार महीने बाद इंदिरा गांधी की उनके बॉडी गार्ड्स ने ही हत्या कर दी थी।
इंदिरा की हत्या के विरोध में दिल्ली में दंगे भड़क गए। सिखों का कल्तेआम हुआ। दंगा भड़काने के लिए राजीव गांधी से लेकर जगदीश टाइटलर, सज्जन कुमार, कमल नाथ समेत तमाम कांग्रेस के दिग्गज नेताओं पर आरोप लगे। इन नामों में एक नाम ललित माकन का भी था। ललित माकन उस समय दक्षिणी दिल्ली से कांग्रेस सांसद हुआ करते थे। वह शंकर दयाल शर्मा के दामाद भी थे।
1985 में तीन आतंकियों ने कर दी थी हत्या
31 जुलाई 1985 को कृति नगर में मौजूद अपने निवास पर ललित माकन लोगों से मुलाकात के बाद कार में बैठ रहे थे तभी तीन आतंकियों आतंकी हरजिंदर सिंह जिंदा, सुखदेव सिंह सूखा और रंजीत सिंह गिल कुकी ने उन पर गोलियों की बौछार कर दी। इस हमले में ललित माकन, उनकी पत्नी गीतांजलि व सहयोगी बाल किशन की मौत हो गई। इस हमले के बाद तीनों फरार हो गए। कुछ समय बाद जिंदा और सूखा ने पुणे में जनरल अरुण वैद्य की भी हत्या कर दी, जिसके बाद दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया।
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हरजिंदर सिंह जिंदा और सुखदेव सिंह सूखा पर केस चला और कोर्ट ने दोनों को फांसी की सजा सुना दी। हत्यारों के पास बचने की एक उम्मीद थी और वह थी दया याचिका। हत्यारों ने राष्ट्रपति से दया की गुहार लगाई। उस समय शंकर दयाल शर्मा (Shankar Dayal Sharma) राष्ट्रपति थे। इन्हीं हत्यारों उनकी बेटी और दामाद की भी हत्या की थी। राष्ट्रपति ने दोनों की दया याचिका खारिज कर दी और 9 अक्टूबर 1992 को दोनों को पुणे की यरवदा जेल में फांसी पर लटका दिया गया।
बाबरी विश्वंस रोकना चाहते थे शंकर दयाल (Shankar Dayal Sharma)
राम मंदिर आंदोलन के दौरान 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहा दी गई थी, उस समय राष्ट्रपति भवन में शंकर दयाल शर्मा दुखी और हताश थे। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता माखन लाल फोतेदार के हवाले से एक मीडिया रिपोर्ट में दावा किया गया कि बाबरी ढांचा गिराने से रोकने के लिए उस समय जब मुस्लिम नेताओं की मुलाकात तत्कालीन पीएम नरसिम्हा राव से नहीं हो पाई थी तो वे राष्ट्रपति के पास गुहार लगाने गए थे।
मुस्लिम नेताओं का एक प्रतिनिधि मंडल राष्ट्रपति से मिला तो शंकर दयाल शर्मा उनके सामने भावुक हो गए। उन्होंने कहा कि वह भी प्रधानमंत्री से संपर्क करने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन उन्हें भी वहां से कोई जवाब नहीं मिल रहा है।
जब सोनिया ने दिया था पीएम बनने का प्रस्ताव
तमिलनाडु के श्रीपेरंबदुर में 21 मई 1991 को आत्मघाती हमलावरों ने राजीव गांधी की हत्या कर दी थी। पूर्व केंद्रीय मंत्री नटवर सिंह ने एक इंटरव्यू में बताया था कि राजीव गांधी के निधन पर शोक व्यक्त करने आए जब सभी विदेशी मेहमान चले गए तो सोनिया गांधी ने इंदिरा गांधी के प्रधान सचिव रहे पीएन हक्सर से प्रधानमंत्री चेहरे के लिए सलाह मांगी थी।
इस पर हक्सर ने तत्कालीन उप राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा का नाम सुझाया था, लेकिन तब अपनी उम्र और स्वास्थ्य का हवाला देते हुए उन्होंने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था। इसके बाद ही पीवी नरसिम्हा राव देश के प्रधानमंत्री बने थे।
जब बाबरी विध्वंस हो रहा था तब शंकर दयाल शर्मा को प्रधानमंत्री न बनने का मलाल हुआ था, क्योंकि विध्वंस रोकने के लिए उन्होंने नरसिम्हा राव से कई बार संपर्क करने की कोशिश की थी लेकिन उन्हें वहां से जवाब ही नहीं मिला। वह विध्वंस नहीं रोक पाए थे।
अध्यक्ष की सारी बातें जब इंदिरा को बताने लगे
1968 में कांग्रेस में फूट पड़ गई थी। एक गुट पीएम इंदिरा गांधी के साथ तो दूसरा तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष एस निजलिंगप्पा के साथ था। उस समय शंकर दयाल शर्मा की दोनों गुटों पर बराबर पूछ थी, लेकिन कुछ ही समय के भीतर हालात ऐसे बदल गए कि एक गुट जहां उन्हें अपना सबसे वफादार सिपेहसालार मानने लगा तो वहीं दूसरे गुट ने उन्हें विभीषण करार दिया।
दरअसल जब पार्टी में फूट पड़ी तब शंकर दयाल शर्मा सुबह पार्टी अध्यक्ष के साथ रहते और दिनभर जो कुछ भी होता वह शाम को इंदिरा गांधी के दफ्तर पहुंचकर उन्हें सब बता देते थे। जब पार्टी अध्यक्ष को इस बात की जानकारी हुई तो वह शंकर दयाल शर्मा पर बहुत नाराज हुए। तब इंदिरा के समर्थक उन्हें सच्चा देशभक्त मानते थे। वह उस समय इंदिरा के संकटमोचक भी कहलाने लगे थे। वहीं निजलिंगप्पा इन्हें विभीषण कहने लगे थे। वे शंकर दयाल से इतना नाराज हुए कि उन्होंने उनसे मिलना, बोलचाल सब बंद कर दिया था। निजलिंगप्पा ही शंकर दयाल को सचिव बनाकर भोपाल से दिल्ली लाए थे।
खैर कांग्रेस टूट गई और इंदिरा ने अलग पार्टी बना ली थी। इस पार्टी में शंकर दयाल शर्मा को वरिष्ठ महासचिव बनाया गया फिर वे अध्यक्ष भी बने। गांधी परिवार से वफादारी का नतीझा था कि शंकर दयाल शर्मा अलग-अलग राज्यों के राज्यपाल से लेकर देश के सर्वोच्च नागरिक बनने तक का सफर तय किया।