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भारत की सहिष्णुता उसकी कमजोरी नहीं

India's tolerance

India's tolerance

भारत अमनपसंद देश है। सेवा और सहकार उसके जीवन का अभीष्ठ रहा है। नेकी कर दरिया में डालने की उसकी प्रवृत्ति रही है। वह आत्मप्रचार में नहीं,लोगों की ममद करने की संस्कृतिमें भरोसा करता रहा है। स्वाभिमान से यहां के नागरिकों ने कभी समझौता नहीं किया। द्वार पर आए दोस्त ही नहीं,शत्रु को भी ऊंचा पीढ़ा दिया। भारत में अतिथि को हमेशा देवता माना गया। यह और बात है कि कुछ अतिथियों ने इसे भारत की कमजोरी माना और ऐसे आचरण किए जिसकी भारत ने अपेक्षा भी नहीं की होगी।  सिकंदर और पुरु का प्रसंग किसी से छिपा नहीं है।

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग  एक और तो भारतीय आतिथ्य का लुत्फ उठा रहे थे और दूसरी ओर उनके सैनिक भारतीय भूभाग में तंबू -टेंट गाड़ रहे थे। चीन से भारत के संबंध पहले भी ठीक नहीं थे। जवाहरलाल नेहरू और माओत्से तुंग के दौर में तो भारत-चीन- भाई-भाई का नारा दिया गया था लेकिन  उसने पंचशील की धज्जियां उड़ाते हुए  उस पर युद्ध थोप दियाथा। उसके बहुत बड़े भू-भाग पर कब्जा जमा लियाथा और आज भी चीन की फितरत में कोई तब्दीली नहीं है। लद्दाख में भारत औरचीन के बीच सीमाएं आमने –सामने महीनों डटी रहीं। कोविड-19 के रूप में जिसतरह काघाव चीन ने भारत सहित पूरी दुनियाको दिया है, उससे दुनिया अभी उबर नहीं पाई है। जैविक हथियार बनाने की उसकी योजनाका दंश पूरी मानवता को भुगतना पड़ रहा है।

उसके द्वारा अंतरिक्ष में छोड़ा गया प्रक्षेपास्त्र हिंद महासागर में गिरा। इसकें एक दिन बाद ही समुद्री तूफान काउठना भी इस घटना की देन हो सकती है।  भारत में नक्सली आंतकवाद  को पालने-पोसनेमें भी चीनने बड़ी भूमिका अदा की। इसके बाद भी अगर यहांकी पुलिस माओवादियों से अपील कर रही है कि  कि वे सामने आयें और कोविड-19 संक्रमण का उपचार करायें तो यह उसकी सदाशयता ही है। भारत ने नेपाल की सहायता में हमेशा बड़े भाई की भूमिकानिभाई लेकिन वहां के प्रधानमंत्री ओपी शर्मा ओली ने जो कुछ भी किया, उसे नजरंदाज तो नहीं किया जासकता।

अपनी अल्पमत की सरकार बचाने के लिए नेपाल के पीएम के पी शर्मा ओली ने बीते एक-डेढ़ साल में इतनी सियासी चालें चलीं की उनसे नेपाल के लोग तो तंग थे ही उन्होंने भारत के नाक में भी दम कर रखा था। बीते दो-तीन साल के दौरान भारत के खिलाफ चीन और पाकिस्तान जैसे देश मिलकर जितना बोले होंगे उससे कई गुना ज्यादा अकेले ओली बोलते रहे। जब-जब उनकी सरकार संकट में आयी तब-तब उन्होंने भारत पर साजिश रचने का आरोप लगाकर राष्ट्रवाद का पैंतरा चला। ओली को पता है कि वे भारत से लिपुलेख और कालापानी नहीं ले पायेंगे फिर भी उन्होंने उत्तराखंड के इस हिस्से को नेपाल के नक्शे में दिखाया।

ओली के इस सियासी नक्शे को नेपाली संसद ने भी मंजूरी दे दी। दरअसल ओली ने इतना दांव चला था कि संसद में नेपाल के नये नक्शे का कोई विरोध कर ही नहीं पाया। जिसने विरोध किया और भारत के साथ संबंध खराब होने की दुहाई दी उसे ओली ने भारत का जासूस बता दिया। भारत के हिस्से पर दावा करने के साथ ही ओली ने भारत पर साजिश करने, श्रीराम जन्मभूमि नेपाल में होने और कोरोना वायरस को चीन के बजाय भारत द्वारा फैलाने का घटिया भी लगाया। ओली की इन हरकतों के पीछे चीन था। वे चीन के इशारे पर ही भारत विरोधी बयानबाजी कर रहे थे। यही कारण है कि  चीन ने ओली को बचाने के लिए यांग की  को लगाया जिसने न सिर्फ सांसदों की खरीद फरोख्त की कोशिश की बल्कि काठमांडू में वह सियासत की केन्द्रीय धुरी बन गयी। राष्ट्रपति विद्या भंडारी, प्रधानमंत्री और प्रचंड के बीच उसने कई बैठकें करवायी। सेना मुख्यालय तक यांग की की पहुंच थी। दरअसल ओली की तमाम सियासी हरकतों की पटकथा चीनी राजदूत यांक की ही लिखा करती थी। बहरहाल चीन का बेशर्म समर्थन, राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी के साथ मिलीभगत के बावजूद भी के.पी. शर्मा ओली अपनी कुर्सी नहीं बचा पाये।

नेपाली संसद में उनको हार का सामना करना पड़ा। हर मोर्चे पर मात खाने और सियासी पारी की ढलान पर नेपाल में ओली एक ऐसे खलनायक के तौर पर उभरे हैं जिसने अपने तीन साल के शासन में भारत-नेपाल संबंधों में इतने जख्म दिये हैं जिसे भरने के लिए तीन दशक भी कम पड़ जायेंगे। बहरहाल काठमांडू में ओली के पतन के बाद अब नेपाल में नये राजनीतिक समीकरण बनने तय हैं। यहां भारत को चुप बैठने के बजाय सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। वैसे भी नेपाल में विदेशी प्रभाव कोई छिपी बात नहीं है। जब चीन राजनयिक मिशन के जरिए नेपाली कम्युनिस्ट में एकता कराने, ओली को बचाने के लिए सांसदों की खरीद-फरोख्त करने और राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और विपक्ष को साधने की कोशिश कर सकता है तो फिर भारत को किस बात की हिचक। भारत को भी नेपाली कांग्रेस, जनता समाज पार्टी और मधेशी गुटों से समन्वय कर और इनको संसाधनों से लैस कर  ताकतवर बनाना चाहिए ताकि काठमांडू में चीन के प्रभाव को कम किया जा सके। नेपाल को चीन के लिए खुला छोड़ना भारत के लिए कूटनीतिक समझदारी नहीं होगी।

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