योगेश कुमार गोयल
हर साल 03 मई को ‘अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस’ (International Press Freedom Day) मनाया जाता है। प्रेस को सदैव लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की संज्ञा दी जाती रही है, क्योंकि लोकतंत्र की मजबूती में इसकी बेहद महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यही कारण है कि स्वस्थ और मजबूत लोकतंत्र के लिए प्रेस की स्वतंत्रता को बहुत अहम माना गया है। विडंबना यह है कि विगत कुछ वर्षों से प्रेस स्वतंत्रता के मामले में लगातार कमी देखी जा रही है। कलम की धार को तलवार से भी ज्यादा ताकतवर और प्रभावी इसलिए माना गया है क्योंकि इसी की सजगता के कारण न केवल भारत में बल्कि अनेक देशों में पिछले कुछ दशकों के भीतर बड़े-बड़े घोटालों का पर्दाफाश हो सका। इसके चलते तमाम उद्योगपतियों, नेताओं तथा विभिन्न क्षेत्रों के दिग्गजों को एक ही झटके में अर्श से फर्श पर आना पड़ा।
यही कारण हैं कि समय-समय पर कलम रूपी इस हथियार को भोथरा करने के कुचक्र होते रहे हैं और विभिन्न अवसरों पर न केवल भारत में बल्कि दुनियाभर में सच की कीमत कुछ पत्रकारों को अपनी जान देकर भी चुकानी पड़ी है। 03 दिसम्बर 1950 को देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था- ‘‘मैं प्रेस पर प्रतिबंध लगाने के बजाय, उसकी स्वतंत्रता के बेजा इस्तेमाल के तमाम खतरों के बावजूद पूरी तरह स्वतंत्र प्रेस रखना चाहूंगा क्योंकि प्रेस की स्वतंत्रता एक नारा भर नहीं है बल्कि लोकतंत्र का एक अभिन्न अंग है।’’
पिछले कुछ दशकों में स्थितियां काफी बदल गई हैं। आज दुनियाभर में पत्रकारों पर राजनीतिक, आपराधिक और आतंकी समूहों का सर्वाधिक खतरा है। इस दौरान दुनियाभर के न्यूज रूम्स में सरकारी तथा निजी समूहों के कारण भय और तनाव में वृद्धि हुई है। पेरिस स्थित ‘रिपोर्ट्र्स सैन्स फ्रंटियर्स’ (आरएसएफ) अथवा ‘रिपोर्ट्स विदआउट बॉर्डर्स’ हर साल अपनी वार्षिक रिपोर्ट जारी करते हैं। ‘रिपोर्ट्स विदआउट बॉर्डर्स’ गैर-लाभकारी संगठन है। यह विश्वभर के पत्रकारों पर हमलों का दस्तावेजीकरण करने और मुकाबला करने के लिए कार्यरत है और प्रतिवर्ष ‘वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स’ अर्थात ‘विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक’ प्रस्तुत करता है। ‘विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक 2019’ में उसने भारत सहित विभिन्न देशों में प्रेस की स्वतंत्रता की स्थिति की विवेचना करते हुए स्पष्ट किया था कि किस प्रकार विश्वभर में पत्रकारों के खिलाफ घृणा हिंसा में बदल गई है, जिससे दुनियाभर में पत्रकारों में डर बढ़ा है।
2022 में उसकी रिपोर्ट में नार्वे ने प्रेस की आजादी के लिए पिछली बार की ही तरह पहला स्थान प्राप्त किया। भारत को 180 देशों में 150वां स्थान दिया गया। भारत इस रैंकिंग में पिछले वर्ष के मुकाबले आठ0 स्थान नीचे फिसला है। 2021 की रैंकिंग में भारत का स्थान 142वां था। 2022 के सूचकांक में प्रेस फ्रीडम, सरकारी दखलंदाजी और मीडिया की कार्यप्रणाली के अलावा सोशल मीडिया पर फैल रही फेक न्यूज तथा उसके प्रभावों पर भी ध्यान दिया गया है और रैंकिंग में प्रेस की पांच प्रकार की स्वतंत्रता को आधार बनाया गया है। पांचों क्षेत्रों में मिले अंकों के औसत के आधार पर ही सभी देशों की रैंकिंग निर्धारित हुई है।
इस आधार में प्रेस की राजनीतिक, आर्थिक, विधायिका, सामाजिक और सेकुलर स्वतंत्रता शामिल है। 2022 की रैंकिंग में भारत राजनीतिक स्वतंत्रता में 40.76 अंकों के साथ 145वें, आर्थिक स्वतंत्रता में 30.39 अंकों के साथ 149वें, लेजिस्लेटिव स्वतंत्रता में 57.02 अंकों के साथ 120वें, सामाजिक स्वतंत्रता में 56.25 अंकों के साथ 127वें और सेकुलर फ्रीडम में 20.61 अंकों के साथ 163वें स्थान पर है। हालांकि प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत की स्थिति पड़ोसी देशों से बेहतर है। भारत के मुकाबले म्यांमार 176वें, चीन 175वें, बांग्लादेश 162वें, पाकिस्तान 157वें और अफगानिस्तान 156वें स्थान पर हैं।
भारत के लोकतंत्र को दुनिया का सबसे सफल और बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है। ऐसे में अगर नार्वे जैसा छोटा सा देश प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में शीर्ष स्थान पर है तो यह सोचने का विषय है। प्रेस की आजादी के मामले में अगर नेपाल और श्रीलंका जैसे पड़ोसी देश हमसे आगे हैं तो गंभीरता से मंथन करने की जरूरत है। प्रेस की स्वतंत्रता में कमी आने का सीधा और स्पष्ट संकेत है कि लोकतंत्र की मूल भावना में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जो अधिकार निहित है, उसमें धीरे-धीरे कमी आ रही है।
भारतीय संविधान में प्रेस को अलग से स्वतंत्रता प्रदान नहीं की गई है बल्कि उसकी स्वतंत्रता भी नागरिकों की अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता में ही निहित है और देश की एकता तथा अखंडता खतरे में पड़ने की स्थिति में इस स्वतंत्रता को बाधित भी किया जा सकता है। कल्पना की जा सकती है कि प्रेस की स्वतंत्रता अगर इसी प्रकार सवालों के घेरे में रही तो पत्रकार कैसे पारदर्शिता के साथ अपने कार्य को अंजाम देते रहेंगे? यह भी जरूरी है कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को भी अपनी सीमा और मर्यादा में रहना होगा।