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शिक्षा के अधुनातन स्वरूप पर काशी मंथन

Writer D by Writer D
12/07/2022
in Main Slider, शिक्षा
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education

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सियाराम पांडेय ‘शांत’

सर्वविद्या की राजधानी काशी के रुद्राक्ष कन्वेंशन सेंटर में शिक्षा (Education) समागम हो  और एकादश रुद्रों का ध्यान न रखा जाए, यह कैसे हो सकता है। 11 सत्र चलाना और उसमें भी तकनीक यानी कि तंत्र पर नौ सत्रों का समर्पण यह बताता है कि देश के  350 बड़े शिक्षाविदों  के विचार मंथन से ज्ञानामृत ही नहीं निकला बल्कि देश की अभिनव प्रगति का मार्ग भी प्रशस्त हुआ है। सरकार भी जब  इस तरह के आयोजनों को प्रोत्साहित  करने लगे तो समझा जाना चाहिए कि देश बदलाव की नई डगर पर चलने को तैयार हो रहा है। विचार की अपनी ताकत होती है। अच्छे  विचार, अच्छे सुझाव जहां से भी आएं, उनका स्वागत किया जाना चाहिए। उन पर अमल  किया जाना चाहिए ।

काशी में शिक्षा समागम (Education Conference) जैसे आयोजन देश में यत्र-तत्र-सर्वत्र अनवरत होते रहने चाहिए।  प्राचीन भारत में  तो  शास्त्रार्थ और  गुरु-शिष्य संवाद की बौद्धिक परंपरा रही है। नैमिषारण्य में अगर 88 हजार ऋषियों का समागम न हुआ होता तो 18 पुराणों, उपनिषदों, स्मृतियों के लेखन की पृष्ठभूमि ही तैयार  नहीं होती। यह अच्छी बात है कि  विश्व की सांस्कृतिक राजधानी और भूतभावन भगवान शंकर की नगरी  काशी  में नई शिक्षा नीति  पर  तीन  दिनों तक मंथन हुआ।  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Modi) और  मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (CM Yogi)  ही नहीं, अनेक राज्यों के विश्वविद्यालयों के कुलपतियों ने  मुक्त कंठ से इस बात को स्वीकार किया  कि नई शिक्षा नीति न केवल देश  के वर्तमान और भविष्य की जरूरतों  के अनुरूप है बल्कि इसमें देश के सौ साल के  विकास की दृष्टि भी है। यह बात प्रमुखता से दोहराई गई कि नई शिक्षा नीति  स्वर्णिम भारत की नई राह तैयार करेगी। भारत की प्राचीन संस्कृति, सभ्यता, कला और ज्ञान को आधार बनाकर रोजगारपरक शिक्षा का मॉडल तैयार किया जाएगा  जो पूरी दुनिया को प्रभावित करेगा।

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शिक्षा समागम (education conference) में  शोध, शैक्षणिक गुणवत्ता, डिजिटल सशक्तीकरण, आनलाइन शिक्षा, भारतीय भाषा और ज्ञान के विविध आयामों पर बौद्धिक विमर्श हुआ। वक्ताओं ने अपनी राय  रखी और बड़ी बात तो यह कि इस समागम में  बेरोजगारी दूर करने के उपायों पर भी चिंतन-मनन हुआ। यह अपने आप में बड़ी बात है।

राज्य विश्वविद्यालयों में शोध के लिए वातावरण तैयार करने और इस निमित्त राज्य सरकारों के सहयोग की भी आकांक्षा की गई। विद्यार्थियों की पसंद , बाजार और उद्योग जगत की जरूरतों के अनुरूप  पाठ्यक्रम तैयार करने, विद्यार्थियों को विषय चयन के ढेर सारे विकल्प उपलब्ध कराने  पर जहां जोर दिया गया, वहीं  भारतीय शिक्षा पद्धति में अनुवाद की चुनौतियों  के प्रभावी समाधान पर भी बल दिया गया। विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में सैद्धांतिक नेतृत्व विकसित करने की जहां राय दी गई, वहीं विद्वज्जनों ने यह मानने में भी संकोच नहीं किया कि इस मामले में वे अपनी जिम्मेदारियों से नहीं भाग सकते।

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इस दौरान यह भी सुझाव दिया गया कि यदि एक शिक्षक भी हर शैक्षणिक सत्र में अपना नया संस्करण प्रस्तुत करे तो गुणवत्तापरक शिक्षा आसान हो जायेगी। सभी शिक्षक इस दिशा में सोचने और काम करने लगें तो फिर कहना ही क्या? यह भी कहा गया कि भारत के शैक्षणिक संस्थानों में विविधताओं की भरमार है,ऐसे में सबका मूल्यांकन मुमकिन नहीं है। यह सच है कि विविधतापूर्ण भारत में सभी के लिए एक जैसे मानक लागू नहीं किए जा सकते लेकिन अपने संस्थानों के लिए ऐसी योजनाएं तो बनाई ही जा सकती है कि हमें क्या पढ़ना और पढ़ाना है। अपने संस्थान को कहां तक लेकर जाना है। समागम में इस बात को भी रेखांकित किया गया कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति भारतीय भाषाओं में अध्ययन व अनुसंधान की वकालत करती है। छात्रों के बहुभाषी होने पर जोर देती है। अगर लोग मातृभाषा के साथ एक भाषा और सीख लें तो चार चांद लग जाएगा।  अखिल भारतीय शिक्षा समागम में  भारतीय भाषाओं के प्रोत्साहन की  चुनौतियों पर भी प्रमुखता से प्रकाश डाला गया। इस दौरान एकाध कुलपतियों ने तो इस बात का भी उल्लेख किया कि विद्यार्थियों को पूरा प्रोग्राम न पढ़ना पड़े, ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए लेकिन  इस तरह के विचारकों को यह भी सोचना होगा कि भारतीय शिक्षा पद्धति सांगोपांग अध्ययन की हमेशा पक्षधर रही है। ज्ञान समग्रता में ही अच्छा लगता है। उसकी अपूर्णता हितकर नहीं होती। अधजल गगरी के छलकते जाने की बात तो सबने सुनी है। गुरु गांभीर्य तो तभी आता है जब किसी विषय को डूब कर पढ़ा जाए, पूरा पढ़ा जाए।

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कुलपतियों  की मानें तो नई शिक्षा नीति (New Education Policy) छात्रों में रचनात्मक सोच, तार्किक निर्णय की क्षमता और नवाचार की भावना को प्रोत्साहित करने वाली है। उन्हें रोजगारोन्वेषक नहीं, रोजगार सृजेता बनाने वाली है। इस दौरान विद्वानों ने तहे दिल से यह बात स्वीकार की कि डिजिटल लर्निंग कभी भी कक्षा शिक्षा का विकल्प नहीं बन सकती। यह सच है कि नई  शिक्षा युवाओं की प्रतिभा और कुशलता को नए पंख देगी, जिससे वह विश्व भर में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाएंगे। इसमें उद्योगों के अनुसार पाठ्यक्रम तैयार होंगे, जो युवाओं के लिए मदद करेगा। नई शिक्षा नीति की सफलता के लिए लोगों को अपने नजरिए व सोच में बदलाव लाना होगा। बनारस मेनिफेस्टो की जगह तीन सूत्रीय निष्कर्ष जारी  करना देश की त्रिगुणात्मक शक्ति  के बीच समन्वय का ही परिचायक है। सर्वविद्या की राजधानी काशी से देश की शिक्षा व्यवस्था में बाह्य नहीं बल्कि आमूलचूल परिवर्तन का निर्णय  होना अपने आप में बड़ी उपलब्धि है। सही मायने में देखा जाए तो यह शिक्षा जगत का पहला बड़ा ऐसा सम्मेलन है जिसमें 350 विश्वविद्यालयों और संस्थानों के प्रमुखों  की समवेत उपस्थिति नजर आई है।

समापन सत्र में  केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने  जहां 2023 तक डिजिटल यूनिवर्सिटी (Digital Universities) की शुरुआत करने, शिक्षा संबंधी चैनलों की संख्या बढ़ाकर 260  करने और उच्च शिक्षा आयोग का गठन करने की जहां घोषणा की, वहीं  उद्घाटन सत्र  में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शिक्षा को संकुचित दायरे से बाहर निकालने और 21वीं सदी के विचारों से जोड़ने पर बल दिया । उन्होंने शिक्षा संस्थानों से अपील की कि वे  केवल डिग्री धारक युवा तैयार न करें,बल्कि देश को आगे बढ़ाने के लिए जितने भी मानव संसाधनों की जरूरत हो, उसकी भरपाई भी करें।  हमारे युवा कुशल हों, आत्मविश्वासी हों, व्यावहारिक और गणनात्मक हो, शिक्षा नीति इसके लिए जमीन तैयार कर रही है। यह कहने में शायद ही कोई अत्युक्ति होगी कि दुनिया को स्वर-व्यंजन,बिंदु-व्याहृति और भाषा का ज्ञान देने वाली काशी ने एक बार फिर नई शिक्षा की जरूरत पर प्रकाश डाला है, उस पर चिंतन किया है। इस चिंतन से पूरा देश लाभान्वित होगा, इसमें रंच-मात्र भी संदेह नहीं है।   इस देश के चिंतकों खासकर कर बौद्धिकों को यह विचार करना होगा कि विश्वविद्यालय  शोध पर अपना ध्यान केंद्रित करें और कॉलेज डिग्रियां बांटने पर। यही वक्त का तकाजा भी है।

Tags: cm yogidharmendra pradhandigital universitiesEducationKashinew education policy 2022pm modi
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