धर्म डेस्क। कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को छठ पूजा का पर्व मनाया जाता है। इस वर्ष छठ की पूजा 08 नवंबर को की जाएगी। यह चार दिवसीय पर्व संतान की खुशहाली और अच्छे जीवन की कामना से किया जाता है। सूर्योपासना का यह अनुपम पर्व है। इस व्रत को महिलाओं के साथ पुरुष भी समान रूप से करते हैं।
इस पर्व की शुरुआत कार्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से होती है और कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को मुख्य पूजा के बाद सप्तमी की सुबह सूर्य को अर्घ्य देने के पश्चात पर्व का समापन होता है। यह व्रत अत्यंत ही कठिन होता है क्योंकि इस व्रत में पूरे 36 घंटे तक व्रती बिना कुछ खाए पीए रहता है।
माना जाता है कि छठ का पर्व वैदिक काल से चला आ रहा है। इस व्रत में मुख्यः रूप से ॠषियों द्वारा लिखी गई ऋग्वेद सूर्य पूजन, उषा पूजन किया जाता है। इस पर्व में वैदिक आर्य संस्कृति की झलक देखने को मिलती है। छठ पूजा का बहुत महत्व माना जाता है। इस पर्व को भगवान सूर्य, उषा, प्रकृति, जल, वायु आदि को समर्पित किया जाता है। यह पर्व बिहार के साथ पूरे देश के कई हिस्सों में धूमधाम के साथ मनाया जाता है। दूसरे देशों में बसने वाले प्रवासी भारतीयों के कारण अब ये पर्व विदेशों में भी मनाया जाने लगा है। छठ का महापर्व बिहार की संस्कृति बन चुका है। इस पर्व के संबंध में कई कथाएं प्रचलित हैं।
पौराणिक कथा के अनुसार प्रियंवद नाम के राजा की कोई संतान नहीं थी। तब उन्होंने संतान प्राप्ति के लिए यज्ञ करवाया। महर्षि कश्यप ने पुत्र की प्राप्ति के लिए यज्ञ करने के पश्चात प्रियंवद की पत्नी मालिनी को आहुति के लिए बनाई गई खीर प्रसाद के रुप में दी। जिससे उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई, परंतु दुर्भाग्यवश वह पुत्र मरा हुआ पैदा हुआ। तब राजा प्रियंवद का हृदय अत्यंत द्रवित हो उठा। वे अपने पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे।
उसी समय ब्रह्मा की मानस पुत्री देवसेना प्रकट हुईं और उन्होंने राजा से कहा कि वो उनकी पूजा करें। ये देवी सृष्टि की मूल प्रवृति के छठे अंश से उत्पन्न हुई हैं, इसी कारण ये षष्ठी या छठी मइया कहलाती हैं। राजा ने माता के कहे अनुसार पुत्र इच्छा की कामना से देवी षष्ठी का व्रत किया, जिससे उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। कहते हैं कि इसलिए संतान प्राप्ति और संतान के सुखी जीवन के लिए छठ की पूजा की जाती है।
एक अन्य कथा के मुताबिक छठ पर्व का आरंभ महाभारत काल के समय में हुआ था। कहा जाता है कि इस पर्व की शुरुआत सबसे पहले सूर्यपुत्र कर्ण ने सूर्य की पूजा करके की थी। कर्ण प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में खड़े रहकर सूर्य पूजा करते थे एवं उनको अर्घ्य देते थे। सूर्यनारायण की कृपा और तेज से ही वह महान योद्धा बने।