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जानें 197 साल पुरानी उस मस्जिद की हैरान करने वाली कहानी

मुबारक मस्जिद

मुबारक मस्जिद

लाइफ़स्टाइल डेस्क। पुणे की एक ब्राह्मण महिला दिल्ली आती हैं। वे दिल्ली में एक गोरे साहब की बेगम बन जाती हैं। दिल्ली में उनके नाम की एक मस्जिद बनती है। यह सब भले ही काफी अजीब नजर आता है, लेकिन ऐसा हकीकत में हुआ है। रविवार को दिल्ली में एक मस्जिद का गुंबद गिर गया और इसका इतिहास बाहर आना शुरू हो गया। बीते रविवार (19 जुलाई) को दिल्ली में भारी बारिश हुई थी। इसकी वजह से पुरानी दिल्ली में बनी एक मस्जिद का गुंबद धराशायी हो गया। बारिश की वजह से अक्सर पुरानी इमारतों को नुकसान हो जाता है।

पुरानी दिल्ली के चावड़ी बाजार की संकरी गलियों में यह मस्जिद मौजूद है। यह लाल ईंटों से बनाई गई थी। इसकी सटीक लोकेशन हौज काजी चौक है। 19वीं सदी में इस मस्जिद को ‘रंडी की मस्जिद’ के नाम से जाना जाता था। यहां तक कि अभी भी कुछ लोग इसे इसी नाम से जानते हैं।

कई लोगों को अचरज होगा कि एक मस्जिद का नाम एक एक यौनकर्मी के नाम पर क्यों रखा गया। हालांकि, इसे ‘रंडी की मस्जिद’ कहा जाता था, लेकिन इसका असली नाम ‘मुबारक बेगम की मस्जिद’ था। 1823 में बनी इस मस्जिद के बारे में यह स्पष्ट नहीं है कि क्या इसे मुबारक बेगम ने बनवाया था या यह उनकी याद में बनाई गई है। मस्जिद के इमाम ने दावा किया, ‘यह मस्जिद खुद मुबारक बेगम ने बनवाई थी। वह एक बेहद अच्छी इंसान थीं।’  हालांकि, मस्जिद किसने बनवाई इसे लेकर संशय की स्थिति है, लेकिन यह साफ है कि ऐसा दुर्लभ ही होता है जबकि कोई मस्जिद किसी यौनकर्मी ने बनवाई हो या किसी ऐसी महिला की याद में मस्जिद बनवाई गई हो, क्योंकि उस वक्त केवल बादशाह या उनकी बीवियों या राजसी घराने के लोग ही मस्जिदें बनवाते थे।

इससे साफ होता है कि मुबारक बेगम उस वक्त की एक बड़ी हस्ती रही होंगी। इतिहास में उनके बारे में ज्यादा जिक्र नहीं है, लेकिन उनके बारे में जितनी भी जानकारी उपलब्ध है उससे काफी दिलचस्प चीजें पता चलती हैं। उनके बारे में एक दिलचस्प बात यह है कि हालांकि उनका नाम मुबारक था और वे दिल्ली रहती थीं, लेकिन वह मूल रूप से एक हिंदू थीं और उसमें भी एक मराठी थीं। वे पुणे की रहने वाली थीं। कुछ जगहों पर यह जिक्र किया गया है कि उनका नाम चंपा था, लेकिन इस चीज की पुष्टि नहीं होती है। लेकिन, चंपा या उनका जो भी नाम था, वे मुबारक बेगम कैसे बन गईं? यह लड़की पुणे से दिल्ली तक आई और किस तरह से उनके नाम पर पुरानी दिल्ली में मस्जिद बनी जहां चप्पे-चप्पे पर मुगलों की छाप बिखरी है।

मुबारक बेगम की जिंदगी

मुबारक मूलरूप से हिंदू थीं जो कि मुसलमान बन गई थीं। उनका नया नाम बीबी महरातुन मुबारक-उन-निसा-बेगम था, लेकिन उन्हें मुबारक बेगम के नाम से जाना जाता है। उनकी शादी पहले ब्रिटिश रेजिडेंट जनरल डेविड ऑक्टरलोनी के साथ हुई थी। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि वे डेविड की कई पत्नियों में से एक थीं। जनरल डेविड अकबर शाह द्वितीय के वक्त में दिल्ली के रेजिडेंट अफसर थे।

मौलवी जफर मसान ने द हिंदू में मुबारक बेगम के बारे में लिखा है कि वे डेविड की काफी प्रिय थीं। उनकी 13 पत्नियां थीं और मुबारक बेगम उनमें एक थीं। वे डेविड के सबसे छोटे बेटे की मां थीं। मुबारक और डेविड ने शादी की थी। उम्र में छोटी होने के बावजूद डेविड के साथ रिश्ते में उनका अधिकार था। इसी वजह से जनरल डेविड ने तय किया कि मुबारक बेगम से पैदा उनके बच्चों की परवरिश मुस्लिम तरीके से होगी।

दिल्ली यूनिवर्सिटी के एसोसिएट प्रोफेसर अनिरुद्ध देशपांडे कहते हैं, ‘ब्रिटिश और मुगल कैंप मुबारक बेगम से नफरत करते थे। मुबारक बेगम खुद को लेडी ऑक्टरलोनी कहती थीं, जिससे अंग्रेज नाखुश थे और वह खुद को कुदसिया बेगम (एक सम्राट की मां) कहती थीं, जो मुगल पसंद नहीं करते थे। ऑक्टरलोनी ने उनके नाम पर एक पार्क बनवाया था जिसे मुबारक बाग कहा जाता था। मुगल इस बाग में नहीं जाते थे।’

वे अपने नियमों के हिसाब से जिंदगी जीती थीं। हालांकि, रंडी या यौनकर्मी को मौजूदा व्यवस्था में अच्छी नजर से नहीं देखा जाता है, लेकिन मुगलकाल में प्रॉस्टीट्यूट्स को इतनी बुरी नजर से नहीं देखा जाता था। कहा जाता है कि उस वक्त मुबारक बेगम एक मशहूर नाम थीं। दिल्ली का अंतिम सबसे बड़ा मुशायरा मुबारक बेगम के महल में आयोजित किया गया था। इस मुशायरे में 40 शायर शरीक हुए थे और उनमें मिर्जा गालिब भी शामिल थे।

व्हाइट मुगल डेविड ऑक्टरलोनी

सर डेविड ऑक्टरलोनी का जन्म 1758 में बॉस्टन में हुआ था। ब्रिटानिका एनसाइक्लोपीडिया में उनके बारे में जिक्र मिलता है। वे 1777 में भारत में आए थे। लॉर्ड लेक की अगुवाई में वे कोइल, अलीगढ़ और दिल्ली की लड़ाइयों में शामिल हुए थे। 1803 में उन्हें दिल्ली का रेजिडेंट अफसर बनाया गया। अगले साल उन्हें मेजर जनरल बना दिया गया।

जब होल्करों ने दिल्ली पर हमला किया तो उन्होंने दिल्ली की सुरक्षा की जिम्मेदारी उठाई। ऑक्टरलोनी की मृत्यु 1825 में हुई। दिल्ली में रहते हुए डेविड ऑक्टरलोनी पूरी तरह से भारतीय-फारसी संस्कृति में ढल गए थे। अनिरुद्ध देशपांडे कहते हैं कि इसी वजह से उन्हें व्हाइट मुगल कहा जाता है।

अतीत से निकलने की कोशिश?

जिया उस सलाम अपनी किताब विमिन इन मस्जिद में मुबारक बेगम के बारे में एक दूसरी जानकारी देते हैं। जिया उस सलाम ने बताया, ‘एक लड़की जो पहले एक प्रॉस्टीट्यूट थी, उसने अपने अतीत से निकलने की काफी कोशिश की। उसने समाज के सबसे ऊंचे तबके में अपनी जगह बनाने की कोशिश की। इसी वजह से उसने ब्रिटिश जनरल डेविड से शादी कर ली। डेविड की मौत के बाद उसने एक मुस्लिम सरदार से शादी कर ली थी।’

वे कहते हैं, ‘मस्जिद बनवाना समाज के उच्च तबके में अपनी स्वीकार्यता बनाने की कोशिश का ही हिस्सा था। एक तबका मानता है कि यह मस्जिद मुबारक बेगम ने बनवाई थी। दूसरे तबके का मानना है कि जनरल डेविड ने यह मस्जिद बनवाई थी और इसका नाम मुबारक बेगम पर रख दिया था, लेकिन असलियत यह है कि मस्जिद मुबारक बेगम ने बनवाई थी। डेविड ने इसके लिए पैसे दिए थे।’

मस्जिद का ढांचा कैसा है?

मस्जिद के गेट पर मस्जिद मुबारक बेगम की प्लेट लगी हुई है। मूल मस्जिद दो मंजिला है। पहली मंजिल पर मस्जिद है। यहां नमाज के लिए हॉल है और कुल तीन गुंबद हैं। इन्हीं तीन गुंबदों में से एक गिर गया है। पूरी मस्जिद लाल पत्थर से बनी हुई है। चूंकि मस्जिद 1823 में बनी है, ऐसे में कुछ सालों में ही इसे बने 200 साल पूरे हो जाएंगे।

हालिया नुकसान के अलावा कंस्ट्रक्शन में कहीं कोई टूट-फूट नहीं है। प्रोफेसर अनिरुद्ध देशपांडे कहते हैं कि हौज काजी इलाके में रहने वाले लोग आज भी इसे रंडी की मस्जिद नाम से ही बुलाते हैं। किसी को भी यह शब्दावली जरा भी अजीब नहीं लगती है। गुजरे लंबे वक्त से यहां के लोग इसी नाम को इस्तेमाल कर रहे हैं।

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