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मंगलेश डबराल :  पत्रकारिता और साहित्य के बीच अहम कड़ी टूटी

Manglesh Dabral

Manglesh Dabral

बेशक वक्त ने आज के दौर के एक बड़े और संवेदनशील कवि मंगलेश डबराल को हमसे छीन लिया हो, लेकिन उनका विशाल रचना संसार, समाज के प्रति उनकी चिंताएं और विचार हमेशा हमारे साथ रहेंगी। जाने माने कवि मंगलेश डबराल का रचना संसार बहुत विशाल और व्यापक है। उनके लेखन के कई आयाम हैं। एक संवेदनशील और सत्ता से तमाम तरह की असहमतियां रखने वाले जनपक्षधर कवि मंगलेश डबराल होने के कुछ मायने हैं।

बेशक आप उनसे कई मुद्दों पर असहमत हो सकते हैं, सत्ता, साहित्य, पत्रकारिता और हिन्दी भाषा के पतन पर उनकी तल्ख टिप्पणियों पर विवाद हो सकते हैं और प्रतिरोध का साहस दिखाने के लिए उनपर बहुत तरह की उल्टी सीधी टिप्पणियां भी होती रही हों, लेकिन साहित्य में उनके योगदान को उनके विरोधी भी नकार नहीं सकते। आज के दौर के एक महत्वपूर्ण कवि के तौर पर उनकी जो जगह है, वह कोई दूसरा नहीं ले सकता।

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अपने दौर में उन्होंने अमृत प्रभात से लेकर जनसत्ता तक पत्रकारिता और साहित्य के बीच एक अहम कड़ी का काम किया। आज के दौर में और खासकर आर्थिक उदारीकरण के बाद पत्रकारिता के स्तर पर उनकी बेबाक टिप्पणियां खासी अहम हैं।अमृत प्रभात और जनसत्ता में रहते हुए मंगलेश जी ने पत्रकारिता के नए आयाम स्थापित किए। नई पीढ़ी को लिखने से लेकर पत्रकारिता के तमाम पहलुओं की जानकारी दी। तमाम नए लेखक औऱ पत्रकार पैदा किए। भाषा का एक नया संसार रचा। हर किसी से बेहद आत्मीयता से मिलते और हमेशा कुछ न कुछ करने, लिखने और रचने की बात करते। उनके व्यक्तित्व में एक खास किस्म की उदासी भी थी और निराशा भी। लेकिन हमेशा एक बेचैनी उनमें आप महसूस कर सकते थे।

लखनऊ के वो दिन याद करता हूं जब मैं उनसे अमृत प्रभात के दिनों में मिला। 1981-82 का साल था और महानगर के जिस मकान में नीचे मंगलेश जी रहते थे, हम उनके ऊपर वाली मंजिल पर थे। उनका लिखना पढ़ना, जनता के संघर्षों और आंदोलनों को लेकर उनका नजरिया और रचनात्मक भागीदारी, सबकुछ बहुत करीब से देखा। लखनऊ से दिल्ली आने के बाद और जनसत्ता के फीचर पेज और रवीवारी संभालने के बाद उन्होंने सांस्कृतिक विषयों पर मुझसे खूब लिखवाया। दिल्ली के साकेत से लेकर जनसत्ता अपार्टमेंट तक के उनके घर अक्सर आना जाना और कभी कभार कुछ आयोजनों में उनसे मुलाकातें और हमेशा उत्साह बढ़ाने वाली बातें। उनसे पारिवारिक रिश्ते तो रहे ही, लेकिन उनके भीतर का एक बेचैन कवि अक्सर हमारे साथ रहता।

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उनका पहला कविता संग्रह‘पहाड़ पर लालटेन’जब आया तब हमने उसका नाट्य रूपांतरण करने की कोशिश की। लखनऊ में इसके रिहर्सल होते और हम अक्सर इस कविता को महसूस करते हुए पहाड़ की मुश्किल जिंदगी और एक उम्मीद की आस में कुछ पात्रों के जरिये इस कविता को जीने की कोशिश करते।

पिछले साल उनकी किताब आई थी एक सड़क एक जगह। हमने अपने कार्यक्रम अभिव्यक्ति के लिए उनसे इस बारे में और तमाम विषयों पर लंबी बातचीत की। उनकी सबसे बड़ी चिंता हिन्दी के पतन को लेकर थी। उन्होंने इस पर सोशल मीडिया और अखबारों में लेख लिखे और कहा कि हिन्दी के अखबार और लेखक सत्ता के पिछलग्गू हो गए हैं। भाषा का स्तर इस हद तक गिर गया है कि खुद को हिन्दी का लेखक कहते हुए शर्म आती है। इस पर अच्छा खासा विवाद भी मचा।

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कहानीकार उदय प्रकाश की पहल पर साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने वाले दौर में मंगलेश जी खासी चर्चा में रहे। उन्हें टुकड़े टुकड़े गैंग और अवार्ड वापसी गैंग का हिस्सा करार दिया गया। लेकिन मंगलेश जी मजबूती के साथ अपने लेखन और विचारों के साथ हमेशा खड़े रहे। तमाम वामपंथी सांस्कृतिक आंदोलनों के साथ उनका गहरा नाता रहा। लेकिन खास बात ये रही कि वो कभी किसी पार्टी के सदस्य नहीं रहे और हमेशा अपनी रचनात्मकता और लेखन को पूरी सक्रियता के साथ बरकरार रखा। आखिरी दिनों तक सक्रिय रहे औऱ कोरोना काल में भी तमाम डिजिटल मंचों पर अपनी कविताओं और विचारों के साथ मौजूद रहे।

उनकी कविताओं में उनका गांव है, कठिन जीवन है, भूख और गरीबी है, सत्ता के चेहरे हैं, प्रकृति है, प्रेम है, समाज की विद्रूपताएं हैं और कहीं न कहीं निराशा भी है… कई देशों की तमाम भाषाओं में उनकी कविताएं छपी हैं, उन्होंने बेहतरीन अनुवाद किए हैं, अद्भुत कविताएं लिखी हैं और संगीत के साथ साथ कला संस्कृति पर उनकी पकड़ और लेखन का जवाब नहीं…बेशक मंगलेश जी को पढ़ना, उन्हें सुनना और उनकी संवेदनशीलता को महसूस करना एक अनुभव से गुज़रने जैसा है।

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