सियाराम पांडेय ‘शांत’
देवकीनंदन खत्री का एक उपन्यास है भूतनाथ जिसमें किसी भानुमती के पिटारे का जिक्र है। यह पिटारा खुले नहीं, इसलिए उस पर पर पर्दे दारी की हर संभव कोशिश होती है। उसके लिए जाने कितने कत्ल होते हैं, जाने कितनी दुरभिसंधियाँ होती हैं लेकिन बंद पिटारे का खुलना उसकी नियति होती है। जब पिटारा खुलता है तो सभी बेनकाब हो जाते हैं। महाराष्ट्र की राजनीति में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है।
एंटीलिया केस मुंबई पुलिस ही नहीं, महाराष्ट्र के सत्ताधीशों के भी गले की हड्डी बन गया है। जो लोग मनसुख हिरेन की हत्या के मामले को एनआईए को सौंपने की आलोचना कर रहे थे, वे अचानक ही मुंबई पुलिस के पूर्व कमिश्नर परमबीर सिंह की चिट्ठी सामने आने के बाद मुंह लटकाने और कहां जाईं, का करीं की स्थिति में आ गए हैं। मुंबई पुलिस के पूर्व कमिश्नर परमबीर सिंह की यह चिट्ठी जिलेटिन की छड़ों से भी घातक है।
इस चिट्ठी में उन्होंने लिखा है कि महाराष्ट्र के गृहमंत्री अनिल देशमुख ने एंटीलिया केस और मनसुख हिरेन की हत्या मामले में गिरफ्तार सब इंस्पेक्टर सचिन वझे को प्रतिमाह सौ करोड़ रुपये की वसूली का लक्ष्य दे रखा था। इस आरोप के साथ ही महाराष्ट्र की राजनीति में भूचाल आ गया है। शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत शायरी गुनगुगुनाने लगे हैं तो मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के प्रमुख शरद पवार हस्ताक्षर न होने की वजह से पत्र की वैधता पर सवाल उठाने लगे हैं। वे तो यह भी कहने लगे हैं कि जांच के बाद पता चल जाएगा कि पत्र किसके दबाव में लिखा गया है जबकि मुंबई के पूर्व कमिश्नर ने यहां तक कहा है कि पत्र उन्होंने ही भेजा है और अपने ई मेल से भेजा है।
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सोशल मीडिया पर तो हस्ताक्षरित पत्र वायरल हो रहा है। इसके बाद भी पत्र की वैधता पर सवाल उठाना घात से बचकर निकलने जैसा ही है? केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद के इन सवालों में दम है कि महाराष्ट्र के गृह मंत्री अनिल देशमुख पर अगर 100 करोड़ रुपए की वसूली का लक्ष्य देने के आरोप हैं, तो शेष मंत्रियों ने कितने का लक्ष्य किस—किस अधिकारी को दे रखा था। उन्होंने जानना चाहा है कि देशमुख यह वसूली किसके लिए कर रहे थे? स्वयं के लिए, राष्ट्रवादी कांग्रेस के लिए अथवा उद्धव सरकार के लिए? अगर अकेले मुंबई से 100 करोड़ वसूले जाने थे, तो राज्य के अन्य बड़े शहरों से कितनी राशि वसूली जानी थी। मुंबई पुलिस के लंबे समय से निलंबित चल रहे असिस्टेंट पुलिस इंस्पेक्टर सचिन वझे को किसके दबाव में भल किया गया और उसे बड़े मामले जांच के लिए दिए गए। शिवसेना के दबाव में, मुख्यमंत्री के दबाव में या फिर शरद पवार के दबाव में? उन्होंने इसे ऑपरेशन लूट करार दिया है। वैसे भी ऊपर की शह के बिना कोई इतनी बड़ी हिमाकत कैसे कर सकता है?
उन्होंने बड़ा सवाल यह भी उठाया है कि रंगदारी जैसे अपराध मामले में शरद पवार को क्यों ब्रीफ किया जा रहा रहा था।यह जानते हुए भी कि वे सरकार में किसी अहम पद पर नहीं हैं। सहयोगी दल के मुखिया भर हैं। मुख्यमंत्री और उनके दल द्वारा वझे का बचाव करने की वजह भी उन्होंने पूछी है। अब पता चल रहा है कि निलंबन अवधि में सचिन वझे ने शिवसेना की सदस्यता ग्रहण कर ली थी तो क्या शिवसेना अपने कार्यकर्ता का बचाव कर रही थी?
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शरद पवार ने कहा है कि मुंबई पुलिस के पूर्व असिस्टेंट पुलिस इंस्पेक्टर सचिन वझे की बहाली पूर्व कमिश्नर परमबीर सिंह ने की थी, मुख्यमंत्री या गृह मंत्री ने नहीं। वझे बहाली तो जिम्मेदार अधिकारी ही करता है लेकिन उस पर राजनीतिक दबाव भी तो हो सकता है।
एमएनएस प्रमुख राज ठाकरे अगर यह कह रहे हैं कि अंबानी से पैसे वसूलने के लिए यह सारी थ्योरी बनाई गई, जो ठीक नहीं है। पहले आतंकी बम रखते थे, अब पुलिस से रखवाया जा रहा है तो उसके अपने मतलब हैं। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कहा है कि को वापस सर्विस में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और गृहमंत्री के आदेश पर लाया गया था। पवार सच से भाग रहे हैं। जब तक देशमुख पद पर बरकरार हैं, मामले की निष्पक्ष जांच नहीं हो सकती। इसलिए उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए।
परमबीर ने इन आरोपों की पुष्टि के लिए वॉट्सऐप चैट और एसएमएसचैट साथ में संलग्न किए हैं। वॉट्सऐप चैट में साफ पता चल रहा है कि कितने पैसे कब और और कैसे जमा करने हैं। सत्ता और पुलिस के गठजोड़ के जरिए देश को लूटने के आरोप तो पहले भी लगाए जाते रहे हैं। बोहरा कमेटी की रिपोर्ट में भी इस पर चिंता जाहिर की गई थी। इस गठजोड़ को तोड़ने के लिए भी एक नोडल कमेटी गठित हुई थी लेकिन उस कमेटी ने क्या कुछ किया,यह तो फलक पर दिखा नहीं। मुम्बई के पूर्व पुलिस आयुक्त ने संभवतः पहली बार सत्ता और पुलिस के गठजोड़ से होने वाली संगठित लूट पर मुंह खोला है।उसे बन्द करने के प्रयास भी तेज हो गए हैं। अगर वह पड़ पर रहते हुए इस तरह का साहस करते तो जनता की नजरों में उनकी इज्जत और बढ़ जाती लेकिन इस घटना ने महाराष्ट्र ही नहीं, देश भर के सत्ता प्रतिष्ठान को सोचने पर विवश कर दिया है कि उनकी कार्रवाई से नाराज अधिकारियों ने अगर परमबीर की तरह मुंह खोलने आरम्भ कर दिया तो उनका क्या होगा।वे इतना तो जानते ही हैं कि जो आदमी मुंह खोला सकता है,वह कल प्रमाण भी दे सकता है।जाहि निकारो गेह ते कस न भेद कहि देहि। एकाध मंत्री, अधिकारी को हटाने से ही बात नहीं बनने वाली, नेताओं, अधिकारियों और पुलिस के इस संगठित लूट तंत्र और संघावृत्ति को तोड़ना होगा अन्यथा यह देश यूं ही खोखला होता रहेगा। यह समस्या तब तक बनी रहेगी जब तक नेता मतलबपरस्तों को अपने मत देती रहेगी। एनसीपी के दागदार इतिहास किसी से छिपा नहीं हैं। तेलगी स्टाम्प घोटाला मामले में छगन भुजबल,सिंचाई घोटाला मामले में अजित पवार की संलिप्तता पहले ही सामने आ चुकी है, अन्ना हजारे के आंदोलन के चले भ्रष्टाचार में लिप्त राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के कैमंत्रियों को इस्तीफा तक देना पड़ा था। यह सब जानते हुए भी जब उद्धव ठाकरे ने भाजपा का साथ छोड़ एनसीपी के दमन थाम था तो उससे इसी तरह के प्रतिफल की अपेक्षा थी। बबूल बोकर आम खाने का लोभ भला कौन पालता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस मामले की निष्पक्ष जांच होगी लेकिन जहां व्यवस्था के सभी कुओं में भ्रष्टाचार की भांग पड़ी हो, वहां देशहित सुरक्षित कैसे रहेगा, यह आज के दौर की सबसे बड़ी चिंताजनक बात है। क्या यह देश यूं ही लुटता रहेगा या कोई हल भी निकलेगा। भानुमती के पिटारे अब एक नहीं,कई हैं। हर चेहरे पर कई-कई नकाब हैं। जिनका खुलना और बेनकाब होना बहुत जरूरी है। ऐसा हुए बिना न राज खुलेंगे, न बात बनेगी।