सियाराम पांडे ‘शांत’
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राज्यसभा में विपक्ष को यथार्थ का आईना दिखा दिया है। उन्हें यह बता दिया है कि जब भी व्यवस्था सुधार होता है तो विरोध होता ही है। कृषि सुधार कानून का विरोध भी उसी आक्रोश का प्रतिरूप है लेकिन अब आंदोलन खत्म कर दिया जाना चाहिए। उन्होंने किसानों से यह भी कहा है कि वे आंदोलन करना चाहते हैं तो करते रहें लेकिन आंदोलन में बैठे बुजुर्गों की चिंता जरूर करें। उन्हें लेकर घर जाएं। इसके विपरीत किसान आंदोलन से जुड़े नेता 2 अक्टूबर तक आंदोलन करने की बात कर रहे हैं। इस बीच वे हरियाणा, पंजाब और राजस्थान से दिल्ली को दूध, सब्जी और अन्य आवश्यक सामानों की आपूर्ति रोकने की भी धमकी दे रहे हैं। एक दिन पहले ही राकेश टिकैत ने गद्दी छीनने की चेतावनी दे रखी है।
प्रधानमंत्री ने इन सबके बावजूद यही कहा है कि सरकार किसानों को निरंतर समझाती रही है। आगे भी उसका यह प्रयास चलता रहेगा लेकिन किसानों को इतना तो सोचना ही होगा कि समय किसी का इंतजार नहीं करता। गुजरा हुआ समय दोबारा नहीं आएगा। चौधरी चरण सिंह के वक्तव्य के हवाले से उन्होंने छोटे-बड़े किसानों का भी आंकड़ा देश के समक्ष रख दिया है। चौधरी चरण सिंह का नाम लेकर अगर उन्होंने जाटों को साधने की कोशिश की है, वहीं किसानों की राजनीति कर रहे राकेश टिकैत सरीखे नेताओं के पैरों के नीचे से जमीन भी खिसका दी है। लगे हाथ इस बात का संदेश भी दे दिया है कि किसानों की यह जंग पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के कुछ बड़े किसानों के लिए ही है।
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राज्यसभा में धन्यवाद भाषण के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी वाक्पटुता प्रतिपक्ष को असमंजस में डाल दिया। उन्होंने राष्ट्रपति के अभिभाषण को जहां देश को आत्मनिर्भरता की ओर ले जाने वाला बताया, वहीं किसानों को भी उन्होंने आंदोलन खत्म करने की सलाह दी। विपक्ष के चार प्रधानमंत्रियों का उन्होंने जिक्र भी किया और कुछ इस चतुराई के साथ अपनी बात रखी कि विपक्ष भी असमंजस में आ गया। ंिकर्तव्यविमूढ़ हो गया। किसानों के आंदोलन पर जरा भी उत्तेजित हुए बिना उन्होंने बहुत ही शांतिपूर्ण तरीके से अपनी बात रखी। आंदोलनजीवी, फॉरेन डिस्ट्रक्टिव आइडियोलॉजी और जी-23 जैसे नूतन शब्दों का प्रयोग कर उन्होंने जहां विपक्ष को घेरा बल्कि चुटकी भी ली। यह भी बताया कि राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त आज होते तो कविता किस तरह लिखते। विपक्षी सांसदों के काम आने पर खुशी भी जताई।
इससे उनकी सकारात्मकता और विलक्षण सहन शक्ति का पता चलता है।इस बीच उन्होंने आंदोलनजीवी नामक नई बिरादरी का जिक्र ही नहीं किया बल्कि उसे परजीवी भी करार दिया। फॉरेन डिस्ट्रक्टिव आइडियोलॉजी को लेकर उन्होंने विपक्ष पर जहां व्यंग्य किया, वही मियां खलीफा, ग्रेटा थनबर्ग और रेहाना जैसी विदेशी हस्तियों के हस्तक्षेप पर भी बिना नाम लिए प्रहार किया। अनावश्यक उछल-कूद और राजनीतिक बयानबाजी करने वाले विपक्ष को शादी-ब्याह में नाराज होने वाली फूफी भी करार दिया। सिखों की साधने की भी उन्होंने भरपूर कोशिश की। यह भी कहा कि यह देश सिखों पर गर्व करता है। सिख गुरुओं की भी उन्होंने प्रशंसा की लेकिन लगे हाथ यह भी कहना नहीं भूले कि कुछ लोग सिखों को गुमराह कर रहे हैं। इससे देश का भला नहीं होने वाला।
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प्रधानमंत्री ने राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद की तारीफ भी की, उन्हें वे मृदुता, सौम्यता से बोलने वाला भी कहा । जम्मू-कश्मीर में हुए चुनावों की तारीफ के लिए उनका आभार भी जताया लेकिन इस बात की चिंता भी की कि कहीं उनकी पार्टी गलती से जी-23 की राय मानकर उसे उलट न दे। जी-23 से प्रधानमंत्री का इंगित कांग्रेस के उन 23 नेताओं से था, जिन्होंने अगस्त 2020 में सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखकर कहा था कि पार्टी को पूर्णकालिक अध्यक्ष चाहिए। प्रधानमंत्री ने सदन में चर्चा के स्तर की सराहना करते हुए कहा कि मुझ पर भी कितना हमला हुआ। जो भी कहा जा सकता है, कहा गया। मुझे आनंद हुआ कि मैं कम से कम आपके काम तो आया। कोरोना के कारण ज्यादा आना-जाना नहीं होता होगा। कोरोना के कारण फंसे रहते होंगे। घर में भी किच-किच चलती रहती होगी। इतना गुस्सा यहां निकाल दिया तो आपका मन कितना हल्का हो गया होगा। एचडी देवेगौड़ा, चैधरी चरण सिंह के हवाले से 2 हेक्टेयर के कम जमीन वाले 12 करोड़ किसानों की चिंता कर प्रधानमंत्री ने किसान आंदोलन कर रहे लोगों और उसके संरक्षक राजनीतिज्ञों को यह संदेश तो दे ही दिया है कि सरकार पूरे देश की है और उसके निर्णयों में सबके हित यानी सर्वाधिक जनता के हित को ही तरजीह दी जाएगी।
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उन्होंने हरित क्रांति पर निर्णय लेने वाले पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के विरोध का अगर जिक्र किया तो डाॅ. मनमोहन सिंह की चर्चा करना भी वे नहीं भूले। बात को विस्तार देते हुए उन्होंने कहा कि डाॅ. मनमोहन सिंह ने किसानों को भारत में एक बाजार देने की बात कही थी। यह और बात है कि वे आज यू-टर्न ले चुके हैं। मनमोहन सिंह ने कहा था कि 1930 के दशक में मार्केटिंग की जो व्यवस्था बनी, उससे मुश्किलें आईं और उसने किसानों को अपनी उपज को अच्छे दामों पर बेचने से रोका। हमारा इरादा है कि भारत को एक बड़ा कॉमन मार्केट देने की राह में मौजूद दिक्कतों को खत्म करें। यह कहकर कि मैं भी तो वही कर रहा हूं जो मनमोहन सिंह कर रहे थे तो इसमें विरोध कहां है? वे सदन को यह बताना-जताना नहीं भूले कि पूरा विश्व आज कोरोना जैसी अनेक चुनौतियों से जूझ रहा है। इन चुनौतियों के बीच इस दशक के प्रारंभ में ही राष्ट्रपति ने संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में जो अपना उद्बोधन दिया, वह अपने आप में इस चुनौती भरे विश्व में एक नई आशा जगाने वाला, नयी उमंग पैदा करने वाला और नया आत्मविश्वास पैदा करने वाला है।
यह आत्मनिर्भर भारत की राह दिखाने वाला और और इस दशक के लिए मार्ग प्रशस्त करने वाला है। अच्छा होता, राष्ट्रपति जी का भाषण सुनने के लिए सब होते तो लोकतंत्र की गरिमा और बढ़ जाती। राष्ट्रपति के अभिभाषण में ताकत इतनी थी कि न सुनने के बावजूद भी विपक्षी सदस्य सदन में बहुत कुछ बोल पा रहे थे। यह अपने आप में उनके भाषण की ताकत है जो न सुनने के बाद भी पहुंच गई। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तीन नए कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलनरत किसानों से अपना आंदोलन समाप्त कर कृषि सुधारों को एक मौका देने का आग्रह भी किया और इसे खेती को खुशहाल बनाने और देश को आगे बढ़ाने के लिए मौजूदा समय के सदुपयोग के तौर पर लेने की अपील की। इस समय को न गंवाने, खुद आगे बढ़ने और देश को पीछे न ले जाने का आग्रह किया। विपक्ष से भी उन्होंने कुछ इसी तरह की इच्छा जताई।
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यह भी कहा कि हमें एक बार देखना चाहिए कि कृषि सुधारों से बदलाव होता है कि नहीं। कोई कमी हो तो हम उसे ठीक करेंगे, कोई ढिलाई हो तो उसे कसेंगे। मंडियां और अधिक आधुनिक करने, एसएसपी को यथावत रखने का तो उन्होंने वादा किया ही, साथ ही यह भी कहा कि हर कानून में कुछ समय बाद सुधार होते रहे हैं और अच्छे सुझावों को स्वीकार करना तो लोकतंत्र की परंपरा रही है। अच्छे सुझावों के साथ, अच्छे सुधारों की तैयारी के साथ आगे बढ़ना चाहिए। अब देखना यह है कि अपनी जिद पर अड़े किसान नेता प्रधानमंत्री के इस बयान को किस रूप में लेते हैं। वे देश की परेशानियों को और बढ़ाएंगे या उसकी प्रगति का मार्ग प्रशस्त करेंगे। प्रधानमंत्री ने अपनी ओर से यह बता दिया है कि सच क्या है? अब गेंद फिर किसानों और उनके सिपहसालार नेताओं के हाथ में है। वे मानें या न मानें।