सियाराम पांडेय ‘शांत’
उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर और पंजाब की सल्तनत अब चुनाव आयोग के हाथ में आ गई है। राजनीति का ऊंट भी पहाड़ के नीचे आ गया है। अब निर्णय जनता को करना है कि कौन उसके मतलब का है और कौन नहीं? चुनाव को लोकतंत्र का उत्सव कहा जाता है लेकिन उत्सव के उल्लास में कोई व्यवधान न हो। रंग में भंग न पड़े, इसका दारोमदार तो पूरी तरह चुनाव आयोग के कंधे पर आ गया है। अब उसे तय करना है कि इन राज्यों में अचार संहिता का उल्लंघन न हो। कोई प्रत्याशी चालीस लाख से अधिक चुनाव खर्च न करे।
यही नहीं जनता को अपने अपराध भी बताए। उसे तय करना है कि कोरोना की लहर से नागरिकों और नेताओं को बचाते हुए निर्विघ्न चुनाव कैसे कराए जाएं? मौजूदा चुनाव कोरोना महामारी के बीच हो रहा है, ऐसे में चुनाव आयोग को 18 लाख 30 हजार मतदाताओं को बीमारी के प्रकोप से तो बचाना ही है, उनके परिजनों और आश्रितों की भी चिंता करनी है। लोकतंत्र को जीवंत और जागृत बनाए रखना है तो लोक स्वास्थ्य की भी फिक्र करनी है। इस लिहाज से अगर उसने नुक्कड़ सभाओं, जनसभाओं और रैलियों पर पाबंदी लगाई है और डिजिटल व वर्चुअल रैलियों को इजाजत दी है तो उसके अपने गहरे निहितार्थ हैं। एक राजनेता ने चुनाव आयोग से डिजिटल स्पेस उपलब्ध कराने की मांग की है तो इसके भी अपने मतलब हैं। दूरदर्शन पर चुनाव प्रचार के लिए हर राजनीतिक दल को बिना किसी-भेद-भाव के मौका तो मिलना ही चाहिए और यही स्वस्थ लोकतंत्र का तकाजा भी है।
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द्वापर युग में महाभारत 18 दिन का हुआ था लेकिन कलियुग में पांच राज्यों का 690 सीटों वाला चुनावी महाभारत 28 दिन का होगा। यह और बात है कि उत्तर, पश्चिम और पूरब को मथने वाले इन राज्यों को तैयारी बोनस के नाम पर चुनाव आयोग की ओर से 20 दिन का मौका मिला है। इसी अवधि में राजनीतिक दलों को अपना चक्रव्यूह भी बनाना है और प्रतिद्वंद्वी दलों के चक्रव्यूह को तोड़ना भी है। चक्रव्यूह के हर दरवाजे पर जातीय क्षत्रपों की मजबूत मानव दीवार बनानी है। भाजपा का दावा है कि वह विकास के आधार पर चुनाव मैदान में जाएगी लेकिन जाति-धर्म के खाद पानी से भी इस देश में वोटों की फसल लहलहाती रही है। इतिहास साक्षी है कि भारत के अधिकांश राज्यों में चुनाव भावनात्मक आधार पर होते हैं और यही वह कारक है जो जीत-हार का फासला तय करता रहा है।
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अटल जी का शाइनिंग इंडिया और अखिलेश यादव का यूपी में काम बोलता है जैसा नारा फुस्स हो गया था। मतलब यहां अकेले विकास कभी नहीं जीतता। सामाजिक समीकरण बिठाने की भी जरूर त पड़ती है। यह सच है कि उत्तर प्रदेश में दिन-रात काम हुए हैं और इसका लाभ भी हर आम और खास को मिला है लेकिन यह भी उतना ही सच है कि कुछ नेताओं की बोली-बानी से अधिकांश लोग आहत भी हुए हैं। हमने किया है, यह बताने-जताने का प्रयोग भी इस चुनाव में अपना असर दिखाएगा ही। भारतीय संस्कृति नेकी कर दरिया में डालने वाली रही है।
सेवा कर बताने और जताने को भारतीय समाज बहुत अच्छा नहीं मानता। यह और बात है कि सभी दल जनता के आशीर्वाद से सरकार बनाने के दावे कर रहे हैं। सबको पता है कि जनता किससे नाराज है और किससे खुश लेकिन अपना पक्ष सभी मजबूती से रख रहे हैं। राजनीतिक दलों को पता था कि कोराना उनकी प्रचार संतुष्टि में बाधा डाल सकता है, इसलिए उन्होंने पहले से ही मोर्चा संभाल लिया था। अब डिजिटली समझाना है। अपने गुणा-गणित फिट करने हैं तो यह सही। फिर होना तो वही है जो जनता चाहेगी।