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यहां का पिंडदान होता है विशेष महत्व, जानिए इसकी मान्यता

पितर अपने पुत्रों, परिजनों आदि से अन्न-जल की आशा में गया में फल्गु के तट पर आते और अपने लोगों को आशीर्वाद देते हैं। बिहार की राजधानी पटना से करीब 100 किलोमीटर दूर पावन फल्गु नदी के किनारे स्थित है गया धाम। भगवान राम के समय से ही गया को श्राद्ध-पिंडदान का उत्तम क्षेत्र माना गया है। मान्यता है कि गया में किसी भी समय पिंडदान किया जा सकता है। यहां कोई भी काल निषिद्ध नहीं है। और तो और, अधिकमास में, जन्मदिन पर, गुरु-शुक्र के अस्त होने पर, देवगुरु वृहस्पति के सिंह राशि में होने पर भी गया में पिंडदान मना नहीं है।

वैसे गया में पिंडदान करने के लिए छह मासों का विशेष माहात्म्य है, जब सूर्यदेव इन छह राशियों- मीन, मेष, कन्या, धनु, कुंभ और मकर में होते हैं। उस समय तीनों लोक के निवासियों के लिए गया में पिंडदान का अत्यधिक महत्व होता है। हरेक वर्ष भाद्रपद पूर्णिमा से लेकर आश्विन अमावस्या तक 16 दिनों को पितृपक्ष कहा जाता है और पितृपक्ष के सम्पूर्ण अनुष्ठानों के लिए गया विश्वविख्यात है।

मृत्यु के बाद और जन्म के पहले मानव मात्र का तरण-तारण जिन तीन कृत्यों से होता है, वह हैं- श्राद्ध, पिंडदान और तर्पण। ऐसे तो पूरे भारत में कितने ही तीर्थ स्थानों पर श्राद्ध-पिंडदान के विधान हैं, लेकिन पुराणों में वर्णित तथ्यों के आधार पर यह कहना एकदम सटीक है कि श्राद्ध-पिंडदान के लिए सर्वाधिक पवित्र स्थान है गया।

गरुड़ पुराण में कहा गया है कि पृथ्वी के सभी तीर्थों में गया सर्वोत्तम है, तो वायु पुराण में वर्णित है कि गया में ऐसा कोई स्थान नहीं, जो तीर्थ न हो। मत्स्य पुराण में गया को ‘पितृतीर्थ’ कहा गया है। गया में जहां-जहां पितरों की स्मृति में पिंड अर्पित किया जाता है, उसे पिंडवेदी कहा जाता है। कहते हैं कि पहले गया श्राद्ध में कुल पिंड वेदियों की संख्या 365 थी, पर वर्तमान में इनकी संख्या 50 के आसपास ही रह गई है। इनमें श्री विष्णुपद, फल्गु नदी और अक्षयवट का विशेष मान है। गया तीर्थ का कुल परिमाप पांच कोस (करीब 16 किलोमीटर) है और इसी सीमा में गया की पिंड वेदियां विराजमान हैं। गया में श्राद्ध करने से सभी महापातक नष्ट हो जाते हैं। गया में श्राद्ध 101 कुल और सात पीढ़ियों को तृप्त कर देता है।

कई पुराणों में चर्चा है कि गया आने मात्र से ही व्यक्ति पितृऋण से मुक्त हो जाता है। गरुड़ पुराण की पंक्ति है कि पितृपक्ष के दिनों में समस्त ज्ञात-अज्ञात पितर अपने-अपने परिजनों, खासकर पुत्र आदि से अन्न-जल की आशा में गया में फल्गु के तट पर आ विराजते हैं और अपने लोगों को परम आशीर्वाद देते हैं। गया में देवताओं ने भी पिंडदान किया है। भगवान राम ने अपने अपने पिता का पिंडदान यहीं किया था।

श्रीमद्देवीभागवत में उल्लेख है कि पुत्र की पुत्रता तीन प्रकार से ही सिद्ध होती है- जीते जी पिता के वचन का पालन करना, मृत्यु हो जाने पर उनके श्राद्ध में प्रचुर भोजन कराना और गया में पिंडदान करना। लोग कहीं भी श्राद्ध करते हैं, तो उनका यही संकल्प होता है- ‘गयायां दत्तमक्षय्यमस्तु’ अर्थात् इसे गया में दिया गया समझिए। कई अर्थों में गया को मध्य क्षेत्र का महाधाम कहा जाता है, जो चारों दिशाओं के धाम के केंद्र में शोभायमान है।

गया में पितृ कर्म से पितरों को अक्षय तृप्ति की प्राप्ति होती है। यही कारण है कि यहां पूरे वर्ष देश-दुनिया के लोग श्राद्ध पिंडदान के लिए आते रहते हैं।

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