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भारत बंद  की राजनीति

Bharat bnadh

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सियाराम पांडे ‘शांत’

किसानों के भारत बंद का असर देश भर में देखा गया। कहीं कम और कहीं ज्यादा। राजनीतिक दलों ने भरसक माहौल गरमाने की कोशिश की। वे सड़क पर उतरे भी लेकिन पुलिस और प्रशासन की सक्रियता के समक्ष वे कुछ खास करिश्मा नहीं दिखा पाए। किसानों का भारत बंद सफल रहा या विफल, इस बावत अलग—अलग दावे और तर्क हो सकते हैं लेकिन इन सबका हासिल क्या रहा, इसका जवाब किसी के भी पास नहीं है। जिन लोगों ने किसान आंदोलन का समर्थन किया, उंगली तो उनकी नीयत पर भी उठ रही है। आंदोलनकारियों ने कहीं रामधुन गाई तो कहीं भैंस के आगे बीन बजाई। कहीं राजमार्ग जाम किया तो कहीं  ट्रेन रोकी। और यह सब तब हुआ जब आंदोलनकारियों की ओर से इस बात का दावा किया गया था कि वे अपने आंदोलन के चलते आम आदमी को कोई परेशानी नहीं होने देंगे।

इस बंद में अभिनीयता भी चरम पर रही। आंदोलनकारियों का ध्यान भारत बंद और धरना—प्रदर्शन से कहीं अधिक सेल्फी लेने पर रहा। ऐसे में चेहरे पर आक्रोश का जो भाव बनना चाहिए था, उसकी जगह कुटिल मुस्कान ने ले ली। समाजवादी पार्टी के तीन विधान परिषद सदस्य विधानसभा के समक्ष चौधरी चरण सिंह की प्रतिमा के नीचे किसानों के समर्थन में अलसुबह तख्ती लेकर धरने पर बैठ गए। उस पर तख्ती पर मुर्दाबाद लिखा है या मुरादाबाद, यह भी देखना मुनासिब नहीं समझा। इससे पार्टी की तो भद पिटी ही, जनता के बीच यह संदेश भी गया कि राजनीतिक दल जिस तरह अपने हाथ की तख्तियां नहीं पढ़ते, उसी तरह उन्होंने हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा पास कराए गए तीनों कृषि कानून भी नहीं पढ़े हैं। प्रदर्शन करना अच्छी बात है लेकिन प्रदर्शन की वजह तो पता होनी ही चाहिए। किसानों ने कानून नहीं पढ़े हैं लेकिन उन्हें यह तो बताया जाना चाहिए कि उसमें लिखा क्या है? इस मुद्दे पर उन्हें बरगलाना या गुमराह करना पहले ही आर्थिक संकट से जूझ रहे देश की मुश्किलें और बढ़ाना है।

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लोकदल के एक प्रवक्ता ने तो चमत्कार ही कर दिया। भैंस के आगे बीन बजा दी। भैंस पगुराते हुए सींग न घुमा दे, इसलिए कुछ लोग उसे सहलाते भी रहे। तर्क दिया गया कि केंद्र सरकार किसानों की सुन नहीं रही है लेकिन उन्हें शायद इतना भी पता नहीं कि विज्ञान भवन में हुई पांचवें चरण की विफलता की वजह यह नहीं थी कि सरकार किसानों की बात नहीं सुनना चाहती थी बल्कि सच तो यह था कि बैठक में शामिल किसानों के पास कोई तर्क नहीं था। सरकार उनसे जानना चाहती है कि तीन कानूनों के किन बिंदुओं पर किसानों की असहमति है और क्यों? कुछ कहना न पड़े, इसलिए बैठक में शामिल 40 किसान नेताओं  ने अचानक मौन धारण कर लिया और हाथ में यस आर नो की तख्ती थाम ली। डेढ़ घंटे तक वे केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर को यस आर नो की तख्ती दिखाते रहे। अपनी बात जबरन मनवाने का यह एक नया ट्रेंड था जो इस आंदोलन में नजर आया। जब हम बोलेंगे ही नहीं, अपनी बात कहेंगे ही नहीं तो नतीजा क्या खाक निकलेगा। कम से कम पंजाब के किसानों को इतना तो समझना ही चाहिए था कि उनके राज्य के मुख्यमंत्री ने तो कृषि कानूनों को लागू करने से पहले ही मना कर रखा है। उन्हें बेअसर करने के लिए उन्होंने चार अध्यादेश भी विधानमंडल से पारित करा लिए हैं। पंजाब के किसानों का नरेंद्र मोदी पर अविश्वास तो समझ आता है लेकिन वे अमरिंदर सिंह पर यकीन क्यों नहीं कर रहे हैं, यह अपने आप में बड़ा सवाल है। संभवत: इस सवाल का जवाब भी किसानों के पास नहीं है।

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किसानों नेताओं ने भारत बंद का आयोजन करके सरकार को अपनी ताकत दिखा दी लेकिन इस आंदोलन में किसानों की सक्रियता कम, राजनीतिक दलों की सक्रियता ज्यादा नजर आई। कांग्रेस उत्तर प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, पंजाब, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ समेत कई राज्यों में किसानों के समक्ष प्रदर्शन में उतरी भी लेकिन वर्ष 2012 में अपने नेता पी चिदंबरम द्वारा कही गई वह बात भी  शायद उसे याद नहीं रही कि भारत बंद से देश को आर्थिक नुकसान होता है। इस भारत बंद से देश को कितना आर्थिक नुकसान होगा, इस बावत न तो किसानों ने विचार किया और न ही राजनीतिक दलों ने। अगर कांग्रेस या अन्य दलों ने अपने घोषणापत्रों या दावों पर विचार किया होता। कपिल सिब्बल की संसद में कही गई बातों पर आत्ममंथन किया होता तो 12 दिन से देश के किसानों को खुले आसमान के नीचे प्रदर्शन न करना पड़ता।

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केंद्र सरकार के खिलाफ किसानों के मन में नफरत के बीज बोने में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल कितने सफल हुए, यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन आज खुद की नजरबंदी की हवा उड़वाकर उन्होंने अपनी भद अपने ही हाथों पिटवा ली है। पुलिस ने उनके आवास के मेन गेट की तस्वीर वायरल कर आप के दावे को झुठला दिया है। 7 दिसंबर को सिंघु बार्डर पर अरविंद केजरीवाल ने कहा था कि उन पर दिल्ली के सभी स्टेडियमों को खुली जेल बनाने का दबाव डाला जा रहा है जिससे कि किसानों को वहीं कैद कर लिया जाए लेकिन हमने इसकी इजाजत नहीं दी थी। लेकिन सच तो यह है कि किसानों का साथ देने का दावा करने वाले अरविंद केजरीवाल खुद मुंह छिपाकर मुख्यमंत्री आवास में दुबक गए और एक मिथ्या प्रचार को हवा दे दी कि उन्हें नजरबंद कर लिया गया है। आदमी पार्टी के सैकड़ों कार्यकर्ता दिल्ली के सबसे व्यस्त आईटीओ चौराहे के पास धरने पर बैठ गए। हालांकि, दिल्ली पुलिस ने सीएम आवास के एंट्री गेट की तस्वीर ट्वीट कर कहा कि नजरबंदी का दावा बिल्कुल गलत है। सीएम कहीं भी आने-जाने के लिए स्वतंत्र हैं। कश्मीर में पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ्ती ने भी कुछ इसी तरह का दावा किया कि उन्हें  दोबारा नजरबंद कर लिया गया है।

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उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में रेलवे स्टेशन के आउटर पर सपाइयों ने बुंदेलखंड एक्सप्रेस ट्रेन को रोक दिया। ग्वालियर से मडुवाडीह जाने वाली ट्रेन को भी रोक दिया गया। समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने लखनऊ के  मल्हौर रेलवे स्टेशन पर ट्रेन रोक दी और वहीं ट्रैक पर लेट गए। भारत बंद’ के आह्वान का गोवा में  निजी और सरकारी दफ्तर, बाजार और सार्वजनिक परिवहन चालू रहे। अलबत्ते, हड़ताल का समर्थन करने वाले व्यापारी संघों के प्रमुख और राजनीतिक दलों के प्रमुखों ने  पणजी शहर के चौक पर इकट्ठा  होकर तीनों कृषि कानून पास करने के लिए केंद्र सरकार की निंदा की। मध्य प्रदेश के अनेक हिस्सों में विरोध—प्रदर्शन की कोशिश हुई। ग्वालियर में केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के आवास पर प्रदर्शनकारियों ने प्रदर्शन कर घेराव करने की कोशिश की लेकिन पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को हिरासत में ले लिया। गुजरात के अरावली जिले में पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को निषेधाज्ञा आदेशों के उल्लंघन की वजह से हिरासत में  ले लिया। इसके बाद वे पुलिस लॉक-अप में ‘राम धुन’ गाने लगे। पश्चिम बंगाल में ‘भारत बंद’ का आंशिक असर ‘भारत बंद’ को पश्चिम बंगाल में आंशिक असर देखने को मिला है। प्रदर्शनकारियों ने यहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, मुकेश अंबानी और गौतम अडानी का पुतला जलाया। एक सड़क को अवरुद्ध कर दिया। पश्चिम बंगाल के वाम मोर्चा समर्थित संगठन भी मंगलवार को बंद के समर्थन में कोलकाता के जादवपुर 8-बी बस स्टैंड क्षेत्र में एकत्र हुए। कोलकाता के कॉलेज स्ट्रीट इलाके में ट्राम और बस सेवाएं बाधित कर दी गईं। तमिलनाडु में द्रमुक और कांग्रेस समेत उसके सहयोगी दलों ने भारत बंद में हिस्सा लिया। पुदुचेरी में भी द्रमुक और कांग्रेस ने प्रदर्शन किया। तमिलनाडु में सार्वजनिक एवं निजी परिवहन पर असर कम दिखा और जनजीवन भी सामान्य रहा। चेन्नै, तिरुचिरापल्ली, तंजावुर, कुड्डालूर समेत कई जगहों पर प्रदर्शन हुए। पुडुचेरी में भी प्रदर्शन का असर दिखा। त्रिपुरा में कोई असर नहीं दिखा। सड़कों पर रोज की तरह वाहन चलते रहे और राज्य में बाजार व दुकानें खुली रहीं। मेघालय में भारत बंद बेअसर रहा। राज्य में दुकानें और बाजार खुले रहे तथा निजी और सार्वजनिक वाहन चलते रहे।

किसान नेताओं को यह तो पता है ही कि एमएसपी का लाभ देश के 6 प्रतिशत किसान ही ले पाते हैं। सरकार की कर्जमाफी योजना से भी देश के 94 प्रतिशत किसान लगभग वंचित ही रहते हैं। उनके लाभ लेने के मामले लगभग नगण्य होते हैं और इस आंदोलन में भी छोटे और मंझोले किसान शामिल नहीं है। भारत बंद जैसा भी रहा, हो गया लेकिन 9 दिसंबर की वार्ता में किसानों को पूर्वाग्रह से मुक्त होकर अपनी बात कहनी चाहिए जिससे उनके आंदोलन का लाभ उन्हें मिल सके। आंदोलन में मौन नहीं, मुखरता ही वरेण्य होती है। केंद्र सरकार पहले ही कह चुकी है कि किसान उसके थे, उसके हैं और उसके रहेंगे फिर केवल कानून वापसी की जिद करना उचित नहीं है। केंद्र सरकार पर अविश्वास है तो मिल—बैठकर उसका समाधान किया जा सकता है। अच्छा है कि कि किसान इस बावत ठंडे दिल से सोच पाते। बीन बजाने या रामधुन गाने से बात नहीं बनती। किसानों को राजनीतिक दलों के मकड़जाल में फंसने की बजाय किसी कानूनविद से यह जानना चाहिए कि मौजूदा कानून उनके हित का कितना है और अगर नहीं है तो उसकी वजह क्या है? किसी कानून में सभी बात बुरी ही हों, ऐसा नहीं है। पूरे कानून को बदलने की मांग की बजाए किसानों को उसमें संशोधन की मांग करनी चाहिए। लोकतांत्रिक मर्यादा के लिहाज से यही उचित भी है।

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