अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने देश छोड़ दिया है। अफगानिस्तान के न्यूज चैनल टोलो न्यूज ने सूत्रों के हवाले से बताया है कि तालिबान के प्रतिनिधियों के साथ काबुल में बातचीत के बाद गनी ने यह कदम उठाया है। अभी तक यह पता नहीं चल पाया है कि गनी कौन से देश पहुंचे हैं। ऐसा माना जा रहा है कि वह अमेरिका जा सकते हैं।
काबुल पर भी तालिबान की हुकूमत
तालिबान ने अफगान सरकार के आखिरी किले काबुल पर भी जीत हासिल कर ली है। इसी के साथ तालिबान ने 20 साल बाद काबुल में फिर से अपनी हुकूमत कायम कर ली है। 2001 में अमेरिकी हमले के कारण तालिबान को काबुल छोड़कर भागना पड़ा था।
न्यूज एजेंसी रॉयटर्स की रिपोर्ट के अनुसार, तालिबान के राजनीतिक कार्यालय का प्रमुख मुल्ला अब्दुल गनी बरादर काबुल आ चुका है। अफगान सरकार के शीर्ष अधिकारियों का भी कहना है कि अशरफ गनी काबुल में युद्ध लड़ने के बजाए तालिबान के हाथों शांतिपूर्वक सत्ता सौंपने की तैयारी में हैं। ऐसे में माना जा रहा है कि अब्दुल गनी बरादर अफगानिस्तान का नया राष्ट्रपति बन सकता है। ऐसी भी खतरें हैं कि अमेरिका स्थित अकादमिक और पूर्व अफगान आंतरिक मंत्री अली अहमद जिलाली को अंतरिम प्रशासन का प्रमुख बनाया जा सकता है।
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कौन है मुल्ला अब्दुल गनी बरादर
तालिबान के सह-संस्थापकों में से एक मुल्ला अब्दुल गनी बरादर तालिबान के राजनीतिक कार्यालय का प्रमुख है। इस समय वह तालिबान के शांति वार्ता दल का नेता है, जो कतर की राजधानी दोहा में एक राजनीतिक समझौते की कोशिश करने का दिखावा कर रहा है। मुल्ला उमर के सबसे भरोसेमंद कमांडरों में से एक अब्दुल गनी बरादर को 2010 में दक्षिणी पाकिस्तानी शहर कराची में सुरक्षाबलों ने पकड़ लिया था, लेकिन बाद में तालिबान के साथ डील होने के बाद पाकिस्तानी सरकार ने 2018 में उसे रिहा कर दिया था।
कौन है अली अहमद जलाली
अली अहमद जलाली 2003 से 2005 तक अफगानिस्तान के आतंरिक मंत्री रह चुके हैं। वह अमेरिका में एक यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर भी हैं। ऐसा माना जा रहा है कि जिलाली को काबुल में एक अंतरिम प्रशासन का प्रमुख बनाया जा सकता है। इससे पहले, कार्यवाहक आंतरिक मंत्री अब्दुल सत्तार मिर्जाकवाल ने एक टेलीविजन संबोधन में कहा कि एक शांतिपूर्ण संक्रमण होगा, लेकिन अभी तक किसी भी विवरण की पुष्टि नहीं की गई है। सूत्रों ने कहा कि यह तुरंत स्पष्ट नहीं था कि तालिबान ने जलाली की नियुक्ति के लिए अपना अंतिम समझौता किया था या नहीं, लेकिन उन्हें सत्ता के संक्रमण की निगरानी के लिए संभावित रूप से स्वीकार्य समझौता व्यक्ति के रूप में देखा गया था।
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कैसे हुआ था तालिबान का जन्म
2001 से ही तालिबान अमेरिका समर्थित अफगान सरकार से जंग लड़ रहा है। अफगानिस्तान में तालिबान का उदय भी अमेरिका के प्रभाव से कारण ही हुआ था। अब वही तालिबान अमेरिका के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द बना हुआ है। 1980 के दशक में जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में फौज उतारी थी, तब अमेरिका ने ही स्थानीय मुजाहिदीनों को हथियार और ट्रेनिंग देकर जंग के लिए उकसाया था। नतीजन, सोवियत संघ तो हार मानकर चला गया लेकिन अफगानिस्तान में एक कट्टरपंथी आतंकी संगठन तालिबान का जन्म हो गया।
सोवियत सेना की वापसी के बाद अलग-अलग जातीय समूह में बंटे ये संगठन आपस में ही लड़ाई करने लगे। इस दौरान 1994 में इन्हीं के बीच से एक हथियारबंद गुट उठा और उसने 1996 तक अफगानिस्तान के अधिकांश भूभाग पर कब्जा जमा लिया। इसके बाद से उसने पूरे देश में शरिया या इस्लामी कानून को लागू कर दिया। इसे ही तालिबान के नाम से जाना जाता है। इसमें अलग-अलग जातीय समूह के लड़ाके शामिल हैं, जिनमें सबसे ज्यादा संख्या पश्तूनों की है।
सोवियत और अमेरिका भी नहीं कर पाया तालिबान का खात्मा
अफगानिस्तान में तालिबान की जड़ें इतनी मजबूत हैं कि अमेरिका के नेतृत्व में कई देशों की सेना के उतरने के बाद भी इसका खात्मा नहीं किया जा सका। तालिबान का प्रमुख उद्देश्य अफगानिस्तान में इस्लामिक अमीरात की स्थापना करना है। 1996 से लेकर 2001 तक तालिबान ने अफगानिस्तान में शरिया के तहत शासन भी चलाया। जिसमें महिलाओं के स्कूली शिक्षा पर पाबंदी, हिजाब पहनने, पुरुषों को दाढ़ी रखने, नमाज पढ़ने जैसे अनिवार्य कानून भी लागू किए गए थे।