नई दिल्ली। शाहीन बाग के जिस धरने ने दिल्ली के साथ-साथ पड़ोसी राज्यों के लाखों लोगों को भी सौ दिन से अधिक समय तक त्रस्त किया, उसे लेकर उच्चतम न्यायालय इस नतीजे पर पहुंचा कि वह एक तरह से सार्वजनिक स्थल पर किया गया कब्जा था। चूंकि यह फैसला करीब आठ माह बाद आया, इसलिए कई सवाल खड़े करता है। इसलिए और भी कि धरने के समय खुद उच्चतम न्यायालय ने सड़क पर बैठे लोगों से बात करने के लिए वार्ताकार नियुक्त किए थे।
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यह धरना नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में दिया जा रहा था। हालांकि इस कानून को पारित करते समय संसद में और संसद के बाहर यह स्पष्ट किया गया था कि इसका किसी भारतीय नागरिक से कोई लेना-देना नहीं और यह तो पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के उन प्रताड़ित अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने के लिए है, जो वहां से जान बचाकर भारत आ चुके हैं।
यह नागरिकता देने का कानून था, न कि छीनने का, फिर भी कांग्रेस और कुछ अन्य दलों के साथ मीडिया और बुद्धिजीवियों के एक तबके ने जानबूझकर यही दुष्प्रचार किया कि यह कानून भारतीय मुस्लिमों के खिलाफ है। लोगों को भड़काने के लिए इस कानून को एनआरसी से जोड़ा गया, जो केवल असम में लागू किया गया था और वह भी शीर्ष अदालत के आदेश पर।
इस सुनियोजित दुष्प्रचार के कारण ही शाहीन बाग में नागरिकता कानून के विरोध में सड़क पर बैठे लोगों का दुस्साहस और बढ़ा। इसी के साथ देश के दूसरे हिस्सों में भी शाहीन बाग जैसे धरने होने लग गए।
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शाहीन बाग इलाके में जिस प्रमुख सड़क को घेर कर धरना दिया जा रहा था, उसका इस्तेमाल हर दिन लाखों लोग करते थे। सड़क पर कब्जा होने से लोगों को अपने गंतव्य तक पहुंचने में घंटों की देरी होती थी। धरने के कारण शाहीन बाग के दुकानदारों का व्यापार चौपट हो गया और स्थानीय बच्चों का स्कूल जाना दूभर हो गया, लेकिन प्रदर्शनकारियों और उन्हें समर्थन देने वालों के कान पर जूं नहीं रेंगी। उलटे कुछ और दल एवं संगठन अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने शाहीन बाग पहुंचने लगे।