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दो दशक बाद नयी सहकारिता नीति की याद

सियाराम पांडेय ‘शांत’

एकात्म मानववाद के प्रणेता पं.दीनदयाल उपाध्याय की जयंती पर देश का पहला राष्ट्रीय सहकारिता सम्मेलन हुआ। कायदतन तो आजादी के तुरंत बाद इस तरह के सम्मेलन किए जाने चाहिए थे,लेकिन जब जागे तभी सवेरा। इस जल्द नई सहकारिता नीति बनाने की बात कही गई। इससे पहले वर्ष 2002 में सहकारिता नीति बनी थी। बीस साल का समय बहुत होता है लेकिन मोदी सरकार ने सहकारिता की अहमियत समझी, इसके लिए अलग मंत्रालय बनाया और देश में पहला सहकारिता सम्मेलन आयोजित किया, यह अपने आप में बड़ी बात है। वैसे भी सहकारिता आंदोलन आज का तो है नहीं,भारत में सैकड़ों साल का उसका गौरवशाली अतीत है। अगर सत्ता केंद्र में बैठे राजनीतिज्ञों ने सहकारिता पर ध्यान दिया होता तो आज सम्मेलन की यह कसरत नहीं करनी पड़ती।

भारत में गुरुकुल परंपरा परस्पर सहकार आधारित थी। जन सहयोग से चलती थी। वहां बच्चों में साथ—साथ चलने, साथ—साथ चलने, साथ—साथ बोलने और एक साथ खाने की शिक्षा दी जाती थी। ‘संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते’ और सह नाववतु सह नौ भुनक्तु, सह वीर्यं करवाव है, तेजस्वि नावधीतमस्तु,मा विद्विषावहै’ के जरिए मन तक के एक होने की कामना की जाती थी। यह संदेश दिया जाता था कि हम भारतीय एक दूसरे से द्वेष न करें। तब यह देश सोने की चिड़िया हुआ करता था। ग्राम्य जन जीवन तो पूरी तरह सहकार पर आधारित था। यह भारत के ही गुरुकुल थे जहां  श्रीकृष्ण और सुदामा एक साथ पढ़ते थे। राजकुमार द्रुपद और द्रोण साथ पढ़ते थे। राजकुमार चू और दधीचि साथ पढ़ते थे। वे आश्रम की लकड़ी भी साथ ही काटते थे। गाएं भी एक साथ चराते थे। खेलते भी साथ ही थे। आज जैसी अलग—अलग शिक्षा व्यवस्था तब नहीं हुआ करती थी। लोग एक दूसरे के कार्य में अपनत्व भरा सहयोग करते थे लेकिन मुगलों और अंग्रेजों ने उस भारतीय सहकार परंपरा को ही छिन्न—भिन्न कर दिया।

केंद्रीय सहकारिता मंत्री अमित शाह ने न केवल पं. दीनदयाल उपाध्याय को याद किया, उन्हें अपना और अपनी पार्टी का प्रेरणास्रोत बताया बल्कि देशभर के नेताओं और भाजपा कार्यकर्ताओं को इस बात का संदेश भी दिया कि अब लापरवाही का नहीं, प्राथमिकता तय करने का समय है। उन्होंने यह भी अपील की कि हर देशवासी एकजुट होकर सहकारिता को आगे बढ़ाएं। सहकार से समृद्धि का मंत्र  देते हुए वे यह कहना भी नहीं भूले कि भारत में सहकारिता आंदोलन कभी अप्रासंगिक नहीं हो सकता। भारतीयों के विचार ही नहीं, स्वभाव में भी  सहकारिता का समावेश है। यह उधार का विचार नहीं है। बिल्कुल सही बात कही है केंद्रीय सहकारिता मंत्री ने। वैदिक युग से हम सहकारिता को महत्व देते आ रहे हैं। जब से हमने ‘एकला चलो रे’ की राह पर चलना आरंभ किया है, तब से सहकारिता की कमर टूटती चली गई है। हम समाज में अकेले पड़ते चले गए हैं।

अमित शाह की इस बात में दम है कि सहकारिता आंदोलन के दम पर ही भारत के ग्रामीण समाज की प्रगति होगी और एक नई सामाजिक पूंजी की अवधारणा भी विकसित होगी। देश जब भी विपत्तियों और आपदाओं से घिरा है, उसे बाहर निकालने का काम सहकारिता आंदोलन यानी कि सामूहिक प्रयासों से ही हो पाया है। जो सबको साथ लेकर चलता है, सबके सहयोग से काम करता है, वही आगे बढ़ता है। गनीमत है कि इस बात को केंद्र की नरेंद्र मोदी ने समझा है और अलग से सहकारिता मंत्रालय की स्थापना की है। परम अनुभवी अमित शाह को जो देश के गृहमंत्री भी हैं, को इस विभाग की कमान सौंपी है। सहकारिता मंत्री बनने के बाद पहली बार इस तरह का भव्य आयोजन हुआ है लेकिन हमें सोचना होगा कि आयोजनों से ही बात नहीं बनने वाली। कार्ययोजना को जमीन तक जाना चाहिए। जागरूकता का दायरा बढ़ाया जाना चाहिए और इस देश के अवाम को यह समझाया जाना चाहिए कि दस—पांच की लाठी एक का बोझ होती है। अकेला चना भाड़ न फोड़ने वाली कहावत भी सभी को याद है। इसके बाद भी यह देश भारतीय ऋषियों द्वारा दिए गए सहकारिता के मंत्र को भूल कैसे गया, चिंतन तो इस पर होना चाहिए।

सहकारिता मंत्री अमित शाह ने बिल्कुल सही बात कही है कि  कोआपरेटिव बैंक मुनाफे की चिंता किए बगैर लोगों के लिए काम करते हैं, क्योंकि भारत के संस्कारों में सहकारिता है लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि लंबे समय तक सहकारी बैंकों और सहकारी समितियों ने जो संघावृत्ति की है और देश का जितना पैसा डुबाया है,वह भी किसी से छिपा नहीं है। यह सच है कि नरेंद्र मोदी सरकार में सहकारी समितियों, सहकारी संस्थाओं पर नकेल कसी है। वहां काम काज के तौर—तरीके बदले हैं लेकिन पूरी शुचिता आ गई है, यह कह पाने में किसी भी भारतीय को सौ बार सोचना तो होगा ही। अमूल, लिज्जत, इफको निश्चित रूप से सहकारिता आंदोलन के आदर्श हैं। अमूल से जहां देश के करोड़ों किसान जुड़े हुए हैं तो लिज्जत पापड़ से महिलाओं को रोजगार मिला है। सहकारिता से जुड़े लोगों को अमित शाह की यह बात जरूर ढांढस बढ़ाती है कि सहकारी संस्थाओं को आधुनिक करना है। स्पर्धा में टिकने योग्य बनाना है।

गौरतलब है कि भारत में वर्ष 1947 के बाद सहकारी समितियों का द्रुतगति से विकास हुआ। देश में फिलवक्त 6 लाख सहकारी समितियां सक्रिय हैं, अरबों लोगों को रोजगार मिल रहा है। ये समितियां अधिकांश समाज में काम कर रही हैं, लेकिन कृषि, उर्वरक और दूध उत्पादन में उनकी भागीदारी सबसे अधिक है। अब बैंकिंग क्षेत्र में सहकारी समितियों की संख्या बढ़ रही है लेकिन देश के सहकारी आन्दोलन कई विसंगतियों से भी घिरे रहे हैं। इस सच को भी नकारा नहीं जा सकता।

वर्ष 1904 में अंग्रेजों ने भारत में सहकारी समितियों की एक निश्चित परिभाषा तय की। कानून बनाया और इसके बाद इस क्षेत्र में कई पंजीकृत संगठन काम करने आए। सहकारी समिति की स्थापना कर सरकार ने भी इसे तेजी से बढ़ाने की कोशिश की। सरकार के प्रयासों से सहकारी समितियों की संख्या तो बढ़ी, लेकिन सहयोग के बुनियादी तत्व धीरे-धीरे घटते चले गए। हालात यह रहे  कि सहकारी समितियों की दशा—दिशा और कार्य सुगमता के लिहाज से 15 बार बड़े निर्णय लेने पड़े। सहकारी साख समिति अधिनियम, 1904 के निर्माण के बाद सहकारी समिति अधिनियम,1912 आया। वर्ष 1914 में सहकारिता पर मैक्लेगन समिति गठित हुई। इसके पांच साल बाद भारत सरकार अधिनियम, 1919 बना। इसके 23 साल तक सहकारिता आंदोलन की दिशा में कुछ भी नहीं हुआ। बहु-ईकाई सहकारी समिति अधिनियम, 1942 में बना। सहकारी योजना समिति वर्ष 1945 में गठित हुई। इसके 6 साल बाद अखिल भारतीय ग्रामीण ऋण सर्वेक्षण समिति (1951) हुई। फिर तीस साल बाद यह सिलसिला आगे बढ़ा। नाबार्ड अधिनियम, 1981 बना। बहुराज्यीय सहकारी समिति अधिनियम, 1984 और मॉडल सहकारी समिति अधिनियम, 1990 बना। राष्ट्रीय सहकारिता नीति 2002 में बनी थी।  बहु-उद्देश्यीय राज्य सहकारी समिति अधिनियम, 2002, कम्पनी संशोधन अधिनियम, 2002, एनसीडीसी संशोधन अधिनियम, 2002 बना जबकि इसी साल वर्ष 2021 में केन्द्र में सहकारिता मंत्रालय की स्थापना हुई।

अमित शाह का मानना है कि गरीब कल्याण और अंत्योदय की कल्पना सहकारिता के अलावा हो ही नहीं सकती है। देश के विकास में सहकारिता का योगदान को देखते हुए हमें नए सिरे से सोचना पड़ेगा, ,काम का दायरा बढ़ाना पड़ेगा, पारदर्शिता लानी पड़ेगी। हर गांव को सहकारी आंदोलन से जोड़कर समृद्ध बनाना है। सहकारिता आंदोलन को मजबूत करने के लिए केंद्र सरकार राज्य सरकारों के साथ मिलकर काम करेगी। सरकार का फोकस डिजिटल ऋण के लिए 98 हजार प्राथमिक कृषि सहकारिताओं के डिजिटलीकरण और आधुनिकीकरण पर भी है। सहकारिता आंदोलन को मजबूत करना वक्त की जरूरत है। वर्ष 2002 के बाद अब अगर नई सहकारी नीति बनाने की बात हो रही है तो यह बेहद उम्मीदों भरा है लेकिन सहकारिता तो सतत चलने का नाम है, इसमें वर्षों का अंतराल समझ से परे की बात है। सरकार को सम्मेलन और भावी सहकारिता नीति के क्रियान्वयन का सातत्य बनाए रखने की दिशा में भी काम करना होगा तभी मंत्रालय के गठन और उसके सहकारी प्रयासों का कोई मतलब भी है।

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