वाशिंगटन। ताइवान को लेकर अमेरिका और चीन के बीच तनातनी चरम पर है। संयुक्त राज्य अमेरिका में भले ही सत्ता परिवर्तन को लेकर सियासी संकट चल रहा हो, लेकिन चीन को लेकर उसकी धारणा साफ है। अमेरिका ने हाल ही में चीन की वायु रक्षा क्षेत्र में बमवर्षक विमान भेज कर उसे सावधान किया था। अमेरिका का यह कदम चीन को खुली चेतावनी थी। अमेरिका ने साफ संदेश दिया कि चीन अपनी हरकतों से बाज आए नहीं तो अमेरिकी सेना की क्षमता उसके घर के अंदर जाकर मारने की क्षमता रखती हैं। खास बात यह है कि अमेरिकी विमान ऐसे वक्त चीन की हवाई सीमा में प्रवेश किए जब चीन एक नौसना अभ्यास कर रहा है। दोनों देशों के बीच तनाव इस कदर है कि एक नए शीत युद्ध को जन्म दे सकता है। आइए हम आपको बताते हैं ताइवान को लेकर अमेरिका और चीन के बीच क्या है फसाद की जड़। ताइवान के ऊपर चीन के प्रभुत्व में कितना है दम।
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क्या है ताइवान के प्रति चीनी दृष्टिकोण
चीन ने हमेशा से ताइवान को अपने एक प्रांत के रूप में देखा है, जो उससे अलग हो गया है। हालांकि, बीजिंग का पक्का विश्वास है कि भविष्य में ताइवान चीनी का हिस्सा बनेगा। उधर, ताइवान की एक बड़ी जनसंख्या अपने आपको एक अलग देश के रूप में मानती रही है। चीन और ताइवान के बीच संघर्ष का मूल कारण यही है। वर्ष 2000 में ताइवान की सत्ता चेन बियान के हाथों में आई। चेन ताइवान के राष्ट्रपति चुने गए। वह ताइवान की स्वतंत्रता के बड़े हिमायती थे। चीन को ताइवान की स्वतंत्रता की बात खटक गई। तब से ताइवान और चीन के बीच संबंध तनावपूर्ण है। हालांकि, समय-समय पर ताइवान ने चीन के साथ व्यापारिक संबंधों को बेहतर बनाने के प्रयास किए हैं।
अमेरिका का सातवां बेड़ा ताइवान की पहरेदारी के लिए तैनात
वर्ष 1949 में चीन में चल रहे गृहयुद्ध के अंत में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के संस्थापक माओत्से तुंग ने पूरे चीन पर अपना अधिकार कर लिया। उस वक्त राष्ट्रवादी विरोधी नेताओ और उनके समर्थक ताइवान की ओर रुख कर गए। माओ के डर से ताइवान अमेरिका के संरक्षण में चला गया। 1950 में अमेरिका ने जंगी जहाज का सातवां बेड़ा ताइवान और चीन के बीच पहरेदारी करने के लिए भेजा। 1954 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति आइजन हावर ने ताइवान के साथ रक्षा संधि पर दस्तखत किए।