कामकाज में पारदर्शिता ही किसी भी देश को आगे ले जाने का काम करती है। वही देश तरक्की के सोपान चढ़ पाता है, लहां के नागरिक ईमानदार और चरित्रवान होते हैं। भारत तब तक सोने की चिड़िया रहा जब तक इस देश के नागरिक सदाचरण को ही अपने जीवन का रम ध्येय मानते रहे। जब तक इस देश का राजा खम ठोंककर कहता रहा कि ‘चंद्र टरै सूरज टरै, टरै जगत व्यवहार। पै दृढ़ हरिश्चंद्र का टरै न सत्य विचार।’
सत्य को अपनाकर ही व्यक्ति आत्मिक रूप से संतुष्ट रह सकता है। कंपनी बनाना, उसे चलाना अच्छी बात है। कंपनियों को लाभ भी कमाना चाहिए लेकिन अपने लाभ के लिए राष्ट्रहित की उपेक्षा करने की इजाजत तो उन्हें कोई नहीं दे सकता। अपने लाभ के समक्ष राष्ट्रहित को गौण रखना आजकल उद्योगपतियों का , कंपनी संचालकों का शगल बन गया है। अमेरिका की डोनाल्ड ट्रंप सरकार ने अगर
शेल यानी मुखौटा कंपनियों को देश से बाहर का रास्ता दिखाने के लिए भ्रष्टाचार विरोधी कानून बनाया है तो इसे उचित ही कहा जाएगा। यह काम तो हर देश में किया जाना चाहिए और हर देश की सरकारों द्वारा किया जाए। आप जिस थाली में खाएं, उसी में छेद करने का अधिकार आखिर कौनसा संविधान देता है और जब कभी सरकारें सख्त होती है तो उसे व्यापारी विरोधी ठहराने की मुहिम सी चल पड़ती है। इस मुहिम को विरोधी दलों का भी प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर समर्थन मिलने लगता है, इसे किसी भी लिहाज से उचित नहीं ठहराया जा सकता। अमेरिकी संसद में मुखौटा कंपनियों के खिलाफ पास नए कानून को नेशनल डिफेंस ऑथराइजेशन एक्ट का हिस्सा बनाया गया है। कंपनियों को असल मालिकाना हक के बारे में कोषागार विभाग के फाइनेंशियल क्राइम्स एनफोर्समेंट यूनिट को बताना होगा। कंपनी बनाने के लिए गलत जानकारी देने पर तीन साल की जेल हो सकती है। इस कानून को ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने ऐतिहासिक बताया है। कोई भी यही कहेगा।
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मुखौटा कंपनियों के नाम पर किसे नहीं पता कि कुछ धूर्त किस्म के कंपनी संचालक क्या करते हैं? भारत में मुखौटा कंपनियों पर नकेल कसने का प्रयोग वर्ष 2017 में ही नरेंद्र मोदी सरकार ने आरंभ किया है। अमेरिका को तो चार साल बाद मुखौटा कंपनियों को सबक सिखाने की याद आई है। गौरतलब है कि फरवरी 2017 में मुखौटा कंपनियों पर अंकुश लगाने के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय की तरफ से भारत में टास्कफोर्स गठित किया गया था। इस टास्कफोर्स के गठन का मकसद करापवंचन और कतिपय गलत गतिविधियों में संलिप्त कंपनियों पर लगाम लगाने के लिए कई एजेंसियों के साथ मिलकर काम करना था।यह और बात है कि अमेरिकी सुरक्षा अधिनियम में तो मुखौटा कंपनियों को व्यापार के आकार और संपत्ति के हिसाब से परिभाषित किया गया है लेकिन भारत में ऐसा नहीं है। वैसे भी मुखौटा कंपनी का मतलब ही है कि जो भी कारोबार हो रहा है, सब कागजी है। धरातल पर उसका अपना कोई वजूद नहीं है। मुखैटा कंपनियों के पास न तो न तो संपत्ति होती है, न देनदारी, बस होता है तो वित्तीय लेन—देन। मुखौटा कंपनियों की धर—पकड़ के लिए भारत में पहले कंपनी अधिनियम 2013 के सेक्शन 248 का सहारा लिया गया, फिर 2019 में कंपनी कानूनों में संशोधन करके सेक्शन 10ए बनाया गया और सेक्शन 12 में सब सेक्शन 9 जोड़ा गया। भारत में मुखौटा कंपनियों पर शिकंजा कसने वाली व्यवस्था फरवरी 2017 में शुरू हुई थी। छह माह बाद सेबी ने स्टॉक एक्सचेंजों को 331 संदिग्ध मुखौटा कंपनियों पर कार्रवाई करने और उनके शेयरों में ट्रेडिंग पर रोक लगाने का निर्देश दिया था। सितंबर, 2017 में कंपनी मामलों के मंत्रालय ने नियमों के हिसाब से नहीं चल रहीं 2 लाख 9 हजार 32 कंपनियों के पंजीकरण रद्द कर दिए थे।
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वित्त मंत्रालय ने बैंकों को इन कंपनियों के निदेशकों और उनके प्रतिनिधियों के खातों से लेन—देन पर पाबंदी लगाने का निर्देश दिया था। कंपनी मामलों के मंत्रालय ने 12 सितंबर 2017 को कंपनी अधिनियम 2013 के तहत डिस्क्वॉलिफिकेशन के लिए 1 लाख 6हजार 578 निदेशकों की पहचान की थी। 15 लाख पंजीकृत कंपनियों में से सिर्फ छह लाख कंपनियां ही नियमित रूप से सालाना रिटर्न फाइल कर रही थीं। जांच एजेंसियों से मिली सूचना के आधार पर 16,794 मुखौटा कंपनियों की पहचान की गई थी। कंपनीज ऑफ रजिस्ट्रार चाहे तो उन कंपनियों के नाम अपनी बही से काट सकता है, जो पंजीकरण के एक साल के भीतर कामकाज शुरू नहीं करती हैं या कंपनी दो साल तक कोई कारोबार नहीं करती है और डॉरमेंट कंपनी के दर्जे की अर्जी नहीं देती है। उसको यह अधिकार कंपनी अधिनियम 2013 के सेक्शन 248 के तहत मिला हुआ है और कंपनी रजिस्ट्रार को 2019 में संशोधित कंपनी कानून के सेक्शन 12 के सब सेक्शन 9 के तहत कंपनी का भौतिक सत्यापन करने का भी अधिकार है।
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प्रेस इनफॉर्मेंशन ब्यूरो द्वारा 3 दिसंबर 2019 को जारी आंकड़ों के मुताबिक, 28 नवंबर 2019 तक कंपनी मामलों के मंत्रालय ने 19,40,313 निदेशकों के पहचान नंबर निष्क्रिय कर दिए थे। 2018-19 के दौरान 3,38,963 कंपनियों को अयोग्य घोषित किया गया था। वित्त और कंपनी मामलों के राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर ने राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में कहा था कि वित्त वर्ष 2017-18 और वित्त वर्ष 2018-19 के दौरान वित्तीय विवरण या सालाना रिटर्न नहीं देने के चलते सेक्शन 248 के तहत 3,38,963 कंपनियों और इसके लिए 164 (2) (ए) के तहत 4,24,454 निदेशकों को अयोग्य ठहराया गया था। वित्त वर्ष 2018 से मार्च 2020 तक 4.3 लाख इनएक्टिव कंपनियों के नाम काटे गए थे। इस व्यवस्था से कितनी शेल कंपनियों के निदेशकों को जेल भेजा गया, कितनों पर भारी—भरकम अर्थदंड लगा, यह तो पता नहीं चला लेकिन शेल कंपनियों को कार्य से रोकने की कोशिश हुई, यह भी अपने आप में बड़ी बात है। अब चूंकि अमेरिका ने इस बावत कानून पास किया है, इसलिए भारत सरकार को भी इस पर कोई बड़ा कानून बनाना चाहिए जिससे कि शेल कंपनियों के संचालकों पर कानूनी शिंजा कसा जा सके, उन्हें जेल के सींकचों में निरुद्ध किया जा सके। बेहतर होता तो दुनिया के अन्य देश भी अमेरिका जैसी पहल कर पाते।