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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की खेल दृष्टि

सियाराम पांडेय ‘शांत’

नववर्ष के दूसरे दिन ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मेरठ में मेजर ध्यानचंद खेल विश्वविद्यालय का शिलान्यास किया। खिलाड़ियों के लिए नए साल का इससे बेहतरीन और नायाब तोहफा भला और क्या हो सकता है? 91 एकड़ भूमि में 700 करोड़ की लागत से बनने वाले इस विश्वविद्यालय से न केवल देश को नई खेल प्रतिभाएं मिलेंगी बल्कि देश-दुनिया में मेरठ और उत्तर प्रदेश का नाम रौशन होगा। इससे उत्तर प्रदेश में खेल संस्कृति तो विकसित होगी ही, खेलों को भी प्रोत्साहन मिलेगा। युवाओं की खेल प्रतिभा में निखार आएगा। खेल के अतिरिक्त कार्यक्रम बढ़ेंगे तो हर विधा के खिलाड़ी निकलेंगे। इससे देश में रोजी-रोजगार बढ़ेंगे और युवा वर्ग सकारात्मक रूप से राष्ट्रीय विकास की मुख्यधारा में शामिल होगा। इसमें कहीं कोई संदेह नहीं है।

इस यूनिवर्सिटी में हर साल 540 पुरुष और उतनी ही महिला खिलाड़ी खेल की विभिन्न विधाओं में प्रशिक्षित हो सकेंगी। मतलब लैंगिक समानता का इससे बेहतर उदाहरण दूसरा कोई नहीं हो सकता। खेल में भी पीएचडी की सुविधा होगी। अधिकांश पारंपरिक भारतीय खेल जब विश्वविद्यालयीय पाठ्यक्रम का हिस्सा बनेंगे तो विश्व मंच पर भारतीय खेलों का प्रदर्शन किस स्तर का होगा, इसकी कल्पना मात्र से रोमांच हो उठता है।

गत वर्ष हमारे खिलाड़ियों ने टोक्यो ओलंपिक में एक स्वर्ण, दो रजत और चार कांस्य पदक जीतकर देश का सिर गर्व से ऊंचा कर दिया था लेकिन इतना भर हमारे लिए संतोषजनक नहीं था। पदक के मामले हम अमेरिका, चीन, रूस, जापान जैसे बड़े देशों ही नहीं, छोटे-छोटे देशों से भी पिछड़ गए थे। प्रधानमंत्री इस पीड़ा को बेहतर समझते हैं। यही वजह है कि उन्होंने देश में खेलो इंडिया अभियान शुरू कर रखा है। सभी सांसदों से उन्होंने अपने संसदीय क्षेत्र में खेलों का आयोजन करने को कहा है ताकि युवाओं को खेल के प्रति उत्साहित किया जा सके। उनकी प्रतिभा को निखारा जा सके।

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खेल विश्वविद्यालय के शिलान्यास क्रम को कुछ लोग सियासी चश्मे से देख सकते हैं, उसे उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव जीतने का तिकड़म करार दे सकते हैं लेकिन जब हम ओलंपिक की पदक तालिका में भारत का नाम निचले पायदान पर देखते हैं तो क्या यह इतनी बड़ी आबादी के लिए आत्ममंथन का सबब नहीं बनता। सोच ईमानदार हो तो काम भी दमदार होता है।

मेजर ध्यानचंद को बहुत पहले सम्मान मिलना चाहिए था और वे उसके हकदार भी थे। माना कि वे गुलाम भारत के खिलाड़ी थे लेकिन आजादी के 7 दशक बाद तक भारतीय राजनीति ने इस होनहार खिलाड़ी को सम्मान देना मुनासिब नहीं समझा। जब ओलम्पिक में भारत की पूछ नहीं थी तब उन्होंने भारत के लिए ओलम्पिक पदक जीता था। 1928 में एम्सटर्डम, 1932 में लांस एंजेलिस और 1936 में बर्लिन ओलम्पिक में इस हाकी के जादूगर ने स्वर्ण पदक जीता था। जिसके खेल का दीवाना हिटलर भी हुआ करता था, वह अपने ही देश में बेगाना कैसे हो गया, इस पर गहन आत्ममंथन किए जाने की जरूरत है। यह सच है कि मेजर ध्यानचंद से बड़े कद का खिलाड़ी भारतीय भूभाग पर दूसरा कोई नहीं है। इसके बाद भी इतने लंबे समय तक भारत में उनकी घोर उपेक्षा का कोई ठोस कारण समझ में नहीं आता। जिस देश में कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन तक में करोड़ों-अरबों का वारा-न्यारा हो जाता हो, वहां खिलाड़ियों के हित और सम्मान की चिंता कौन करेगा?

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इसमें संदेह नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक तीर से कई निशाने करते हैं। वे अपनी हर सभा से एक संदेश देते हैं। मुद्दा सेट करते हैं। उनकी मेरठ यात्रा भी इसकी अपवाद नहीं है। अमर शहीद मंगल पांडेय की प्रतिमा पर फूल चढ़ाकर, पलटन देवी मंदिर में पूजा-अर्चना कर उन्होंने जहां सैनिकों का दिल जीता, वहीं ब्राह्मण समाज को भी इसी बहाने साधने का काम किया। चौधरी चरण सिंह को याद कर, उनकी प्रशंसा कर जयंत-अखिलेश की सियासी जोड़ी की जड़ में सियासी मट्ठा भी डाला। चरण सिंह के समर्थकों को यह संदेश दिया कि उनके नेता को प्रधानमंत्री कितना आदर देते हैं।

इसमें संदेह नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का खेल के प्रति अनुराग जगजाहिर है। खिलाड़ियों से मिलकर उन्हें और बेहतर खेलने के लिए प्रोत्साहित करने का काम वे करते ही रहते हैं लेकिन उन्हें पता है कि प्रशिक्षण का काम प्रशिक्षण से ही चलता है। पदक जीतकर खिलाड़ी अधिकारी तो बन जाते हैं लेकिन शैक्षणिक अनुभव के अभाव में वे वहां हीनता ग्रंथि के शिकार होते हैं। इसलिए भी खेल विश्वविद्यालय जरूरी है और कहना न होगा कि प्रधानमंत्री ने मणिपुर के बाद दूसरा खेल विश्वविद्यालय मेरठ को दिया है। इसकी जितनी भी प्रशंसा की जाए, कम है।

वैसे देखा जाए तो खेल जीवन का सहज स्वभाव है। जीवन भी एक नाटक है। जिसमें हर व्यक्ति अपने हिस्से का किरदार निभा रहा है। जीव जगत ही नहीं, प्रकृति भी अपना रोल अदा कर रही है। संस्कृति में अभिनय को क्रीड़ा कहा गया है। अंग्रेजी में नाटक प्ले होता है। इस असार संसार में सब खेल रहे हैं। दिक्कत तो तब होती है जब खेल में खेल होने लगता है। खेल में खेल भी अगर अनुशासित हो और समत्व बुद्धि के साथ किया जाए जिसमें मनोरंजन और कौतुक का भाव तो हो लेकिन स्वार्थ, भ्रष्टाचार और वैयक्तिकता न हो तो वह लोकमंगल का हेतु बनता है।

खेल सामूहिक ही अच्छा लगता है लेकिन समूह में खेलते हुए भी अपने हिस्से का प्रदर्शन तो अकेले ही करना पड़ता है। इस बात को जितनी जल्दी समझ लिया जाए, उतना ही अच्छा होगा। वह राजनीति ही क्या जिसमें पक्ष और विपक्ष का खेल न हो लेकिन उसमें लोकमंगल का भाव भी होना चाहिए। पक्ष और विपक्ष के अच्छे कामों को सराहने का साहस भी होना चाहिए। यही स्वस्थ लोकतंत्र का वास्तविक अभीष्ठ भी है।

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