डॉ. अजय कुमार मिश्रा
लखनऊ। उत्तर प्रदेश इस समय चुनावी सरगर्मी का केंद बिंदु बना हुआ है | प्रदेश ही नहीं बल्कि देश के सभी हिस्सों के लोग इस चुनावी सरगर्मी पर गहरी निगाह जमायें हुए है वजह सिर्फ यह नहीं है की सबसे बड़े राज्य में चुनाव होने जा रहा है बल्कि केंद्र की सत्ता का गलियारा भी यही से खुलता है, यानि की 2022 का चुनावी परिणाम कुछ हद तक केंद्र की राजनीति का भविष्य भी निर्धारित करेगा, यह कहा जा सकता है |
प्रदेश की राजनीति कितनी महत्वपूर्ण है इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है की प्रधानमंत्री का आगमन 17 बार हाल के दिनों में प्रदेश में हुआ है | पर वास्तविक चर्चा यह नहीं है, बल्कि चर्चा इस बात की है कि एक बार फिर से प्रदेश की राजनीति सभी मुद्दों से हटकर जातिगत मुद्दे तक सिमट कर रह गयी है | शायद यही वजह है विकास, महिला सशक्तीकरण और रोजगार जैसे बड़े मुद्दे कोने में बैठकर सिसकियाँ ले रहें है और चुनावी मुद्दों पर भौचक्के है |
पिछलें कुछ वर्षो से आम जन में प्रदेश के विकास की आवश्यकता का विश्वास धीरें – धीरें बढ़ना शुरू ही हुआ था कि चुनाव आयोग की चुनावी तिथियों की घोषणा करने के पश्चात् से, यह भ्रम टूट गया और सभी पुनः पुराने ही ढर्रे पर काबिज हो गये | यदि हम कहें की उत्तर प्रदेश की राजनीति और जातिगत राजनीति एक ही सिक्के के दो पहलूँ है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी | क्योंकि एक के बिना दूसरा अधुरा है | और शायद यह हम सभी के खून में शामिल भी हो चूका है |
इस बात की पुष्टि सभी पार्टियों द्वारा जातिगत बिंदु केंद्र में रखकर, अभी तक जारी टिकटों के बटवारों से भी किया जा सकती है | सभी राजनैतिक पार्टियाँ महिलाओं के विकास की बात करती है पर जब उन्हें वास्तव में मुख्यधारा से जोड़ने की बात आती है तो सभी पल्लाझाड़ लेती है | महिलाओं के मुद्दे और उनकी आवश्यकता को आज भी कृपा दृष्टि से देखा जाता है, जबकि महिलाओं ने अपने कार्यो से अनेकों बार यह प्रमाणित किया है की वह पुरुषों से न केवल कही बेहतर है बल्कि निर्णय लेने में उनसे उत्तम कोई नहीं है | सभी पार्टियाँ महिलाओं की सुरक्षा और सशक्तिकरण की बात करती है पर जब बात नीति निर्धारण में उन्हें शामिल करने की आती है तो उन्हें भूल जाती है | जिस विधानसभा में नियम और कानून पारित किये जातें है वहां यदि महिलाएं नहीं होगी तो उनके मुद्दों को और वास्तविक जरूरतों को पुरुष कितना समझ सकेगा यह कहने से कही अधिक इतिहास से समझने की जरूरत है | प्रदेश के वर्तमान चुनाव में पुनः महिलाओं की अनदेखी की जा रही है |
उत्तर प्रदेश आबादी की दृष्टि से देश का सबसे बड़ा राज्य है | जनगणना 2011 के अनुसार उत्तर प्रदेश की कुल आबादी 19.98 करोड़ थी जिनमे 10.44 करोड़ पुरुष और 9.53 करोड़ महिलाएं रही है | वर्तमान अनुमानित जनसँख्या 24.34 करोड़ के करीब है | लगभग कुल आबादी का 48% हिस्सा महिलाओं का है | यदि हम इस विवेचना को वोटरों की संख्या के आधार पर करें तो वोट देने वालों की कुल संख्या 15.03 करोड़ है जिनमे से पुरुष 8.05 करोड़ (54%) है जबकि महिला वोटर 6.98 करोड़ (46%) | यानि की महिला वोटर एक ऐसा वोटर है यदि वह एकजुट हो जाये तो किसी की भी चुनावी गणित बना या बिगाड़ सकता है | हांल ही में जारी नए वोटरों की संख्या में 52.78 लाख की वृद्धि हुई है जिनमे पुरुष 23.92 (45%) करोड़ महिला 28.86 (55) करोड़ है | ऐसा पहली बार हुआ है की पुरुष वोटरों की संख्या की अपेक्षा महिला वोटरों की संख्या का प्रतिशत बढ़ा है | ऐसे में यह विचार में आना स्वाभाविक है की महिलाओं की इस चुनाव में भूमिका क्या है ? कौन सी पार्टी महिलाओं को प्राथमिकता दे रही है | आज भी मुख्य धारा में महिलाओं को लाने के बजाय जातिगत राजनीति का ही प्रदेश में बोल बाला क्यों है | महिलाएं एक जुट क्यों नहीं होती |
चुनावी सरगर्मी में बात अगड़ों की होती है, पिछड़ों की होती है, एससी/एसटी की होती है, हिन्दू की होती है मुस्लिम की होती है और अनेकों अप्रसांगिक बातें भी होती है और जिनकी बात होती है उन्ही के अनुपात में टिकटों का बटवारा भी होता है | पर महिलाओं की बात चुनावी केंद्र बिंदु मानकर नहीं होती और न ही उन्हें उस अनुपात में टिकट ही दियें जातें है | इसके पीछे शायद पुरुष प्रधान सोच है | भारतीय जनता पार्टी को हम कह सकतें है की महिलाओं को केंद्र बिंदु मानकर एक नहीं अनेकों योजनायें व्यवहार में ले आये है जिसका सीधा लाभ महिला वर्ग को मिल रहा है | वही इसके पूर्व की सरकारों में महिलाओं की स्थिति का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है | कांग्रेस पार्टी ने 40% सीट महिलाओं को देकर अपनी खोयी हुई जमीन उत्तर प्रदेश में तलासने का मेक मात्र प्रयोग किया है जबकि महिलाओं के विकास से उनका सिर्फ चुनाव जितने तक का वास्ता है | वही बात जब अन्य राज्यों में टिकट बटवारों की होती है तो कांग्रेस का गणित कुछ और कहता है | सबसे अधिक समय तक देश की सत्ता में रहने वाली पार्टी ने भी महिलाओं की भागीदारी के प्रति कभी सार्थक प्रयास नहीं किया |
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आज के राजनैतिक परिवेश में यदि महिलाएं पीछे है तो इसके पीछे कई कारणों में से एक कारण उनका स्वयं के प्रति जागरूक न होना भी रहा है और आज भी पुरुष प्रधानता उन पर भारी दिखती है | हालाँकि इसमें सुधार तेजी से हो रहा है और इस सुधार में शिक्षा के प्रति बढ़ती जागरूकता को क्रेडिट दिया जा सकता है | यदि एक जाति विशेष अपनी संख्या के अनुपात में राजनीति में हस्तक्षेप कर सकता है तो महिलाएं क्यों नहीं ? आज समाज, मीडिया और स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ – साथ सभी राजनैतिक पार्टियों को इस बात पर सोचने और कार्य की जरूरत है की महिलाओं की संख्या के अनुपात में टिकटों का बटवारा क्यों न किया जाए ! जिससे महिलाओं की उपस्थिति विधानसभा में उनकी संख्या के अनुपात में हो सकें और नियम कानून उनकी सहमती और आवश्यकता के अनुरूप पारित किये जा सकें | आखिर बात आधी आबादी की है और हम सभी को यह जरुर समझना चाहिए कि महिलाओं को पुनः विधानसभा में पहुचाने का मौका अब पांच वर्षो पश्चात् ही मिलेगा | ऐसे में राजनैतिक पार्टिया इसकी शुरुआत अभी से क्यों न करें