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पूर्वाग्रह से नहीं निपटती समस्या

किसान आंदोलन farmers protest

किसान आंदोलन

सियाराम पांडे ‘शांत’

्पूर्वाग्रह से किसी भी समस्या का अंत नहीं होता। समझौते के लिए झुकना होता है।  विडंबना इस बात की  है कि  इसे समझनेके लिए न तो किसान तैयार हैं औरन ही किसान।  किसान नेता एक ओर तो यह कहते हैं कि वे सरकार का,प्रधानमंत्री कासिर झुकने नहीं देंगे,वहीं वे किसानों की पगड़ी का भी मान रखना चाहते हैं। दोनों का सम्मान सुरक्षित रहनाचाहिए लेकिन ऐसा मुमकिन कैसे होगा, विचार काप्रमुखबिंदु तो यही है।

तीनों कृषि कानूनोंके मुद्दे  पर न सरकार झुकना चाहती है और न ही किसान, ऐसे में समझौता होगा भी तोकिस तरह ? सरकार अपने स्तर पर किसानोंको रिझाने के हर संभव प्रयास कर रही है। डीजल और पेट्रोल पर उपकर लगाने का जोखिम भी वह किसानों के हित के लिए ले रही है लेकिन किसान डेढ़ साल का भी जोखिम लेने को तैयार नहीं है। अब तोवित्तमंत्री ने अपने बजट भाषण में भी कह दिया है कि न तो मंडियाहटेंगी और न ही एमएसपी। इसके बाद  भी किसान नेताअगर तीनों कृषि कानूनों को हटानेकी जिद पर अड़े हैं तो इसे क्या कहा जाएगा।

जिस तरह समूचे विपक्ष ने  किसानों के मुद्दे पर राज्यसभा से बहिर्गमन किया है। लोकसभा में हंगामा किया है। जिस तरह राजनीतिक दलों के नेता धरनास्थल पर पहुंच रहे हैं। राकेश टिक्ैत को तलवार भेंट कर रहे हैं, उससे  तो नहीं लगता कि  किसानों काहौंसला ही बढ़ेगा। इस कड़कड़ाती ठंड में किसानों को आंदोलन के लिए प्रोत्साहित करना किस तरह का युगधर्म है।  किसानों के मुददे पर शिवसेना नेता राउत का पहुंचना, आप नेताओं का पहुंचना यह साबित करता है कि यह आंदोलन किसानों का कम, राजनेताओं का अधिक हो गया है।

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जब पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह यह कहते हैं कि किसान आंदोलन के बहाने पाकिस्तान पंजाब में हथियारों की खेप भेज रहा है तो इससे पता चलता है कि इस आंदोलन के तार कहां से जुड़े हैं। आंदोलन दिल्ली की सीमा पर हो रहा है और हथियार अगरपंजाब पहुंच रहे हैं तो उसे रोकने की जिम्मेदारी मुख्यमंत्री की नहीं है क्या? भाजपा के वरिष्ठ नेता देवेंद्र फडणवीस ने सत्तारूढ़ शिवसेना को  अगर दिशाहीन पार्टी बताया है तो उसे गलत भी नहीं कहा जा सकता।   राजनीतिक दलोंका बिनापेंदी के लोटे वाला आचरण यह देश बखूबी देख रहाहै।   जब राजनीतिक दलोंको केंद्रीय बजट में भी वोट की गंदी राजनीति नजर आने लगे तो इससे उनकी सोचका पता चलता है।   पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह द्वारा  एक सर्वदलीय बैठक में तीनों कृषि कानूनों को तत्काल वापस लेने की मांग तोकर ही रहे हैं,  संकट के समाधान में   अत्यधिक देरी   के लिए भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं।  दिल्ली में गणतंत्र दिवस पर ट्रैक्टर परेड के दौरान हुई हिंसा को   प्रायोजित   करार दे रहे हैं।

राष्ट्रध्वज का अपमान हो या और इस पर भी कांग्रेस सरीके दल राजनीति के उत्स तलाश रहे हैं।  मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह  कह रहे हैं कि वे  फिर विधेयक लायेंगे क्योंकि संविधान व्यवस्था देता है कि यदि विधेयक विधानसभा से दो बार पारित कर दिये जाते हैं तो राज्यपाल को उन्हें राष्ट्रपति के पास भेजना ही होता है।  सवाल उठता है कि जब पंजाब ने अपने यहां तीनों कृषि कानूनों का अनुपालन ही नहीं किया था तो उनके राज्य के किसान दिल्ली में आंदोलन के नाम पर कर क्या रहे हैं? इस  पर भी मंथन किए जाने की जरूरत है।  तेज रफ्तार डीसीएम ने बाइक सवर सेल्समैन को रौंदा, चालक फरार

सच तो यह है कि राजनीतिक लोग किसान आंदोलन के मंच का इस्तेमाल माहौल बिगाड़ने के लिए कर रहे हैं।  दिल्ली की सीमाओं पर चल रहा आंदोलन सिर्फ किसानों का है मगर राजनीतिक दलों के नेता अपने समर्थकों के जरिए दवाब बनवाकर मंच हासिल करना चाहते हैं। भलेही किसानोंका मंच उन्हें मिल नहीं पा रहा है लेकिन मंच के नीचे से ही वे अपनी बात तो कह ही रहे हैं। जिस तरह गांव-गांव खाप पंचायतें हो रही हैं, उससे यह आंदोलन किसानों का कम, एक जाति विशेष का ज्यादा हो गया है।   दिल्ली पुलिस ने गणतंत्र दिवस के दिन किसानों की ट्रैक्टर रैली के दौरान लाल किले में हुई हिंसा में सीआईएसएफ के एक जवान पर कथित रूप से हमला करके उसे घायल करने वाले एक प्रदर्शनकारी को  गिरफतार किया है। जिन लोगों को गिरफतार किया  जाना  है, उनमें कुछ किसान नेता भी शामिल हैं। किसान नेता चाहते हैं कि उन पर लगे मामले हटाए जाएं। सब उनके ही पक्ष की हो जाए और उन्हें कुछ न करना पड़े। किसान नेता दरअसल एक हाथ से ताली बजाना चाहते हैं, यह स्थिति बहुत मुफीद नहीं है।  अच्छा होता कि कुछ सरकार झुकती, कुछ किसान लेकिन यहां तो नवली नवै न गहमर टरै वाले हालात हैं।

 

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