सियाराम पांडेय ‘शांत ’
चुनाव में जीत और हार दोनों के ही अपने मायने हैं। ‘जो जीता, वही सिकंदर। ’शक्तिशाली की ही कद्र होती है। नीति भी कहती है कि ‘गुण के ग्राहक सहस नर बिनु गुण लहै न कोय। जैसे कागा कोकिला शब्द सुनै सब कोय।’हारे हुए महाराज पुरु से विजयी सिकंदर का एक ही सवाल होता है कि ‘मार दिया जाए या छोड़ दिया जाए, बोल तेरे साथ क्या सुलूक किया जाए।’ और पराजित महाराज पुरु न गिड़गिड़ाता है और न ही अपने प्राणों की भीख मांगता है। उसका एक ही जवाब होता है कि वही करो जो एक राजा दूसरे के साथ करता है। यह अपने आप में शब्दों का बेहद गूढ़ चयन है। लड़ने की परंपरा में यकीन रखने वाले को चकमा देने वाला प्रयोग है।
विजेता के पास जीत के महिमा मंडन के वैसे भी हजार अवसर होते हैं। हजार बहाने होते हैं। उनका जश्न भी विजित व्यक्ति के सीने पर मूंग दलने जैसा होता है और कभी-कभी तो जीत का यह जश्न चिढ़ाने की हद तक पहुंच जाता है। पराजित व्यक्ति की स्थिति ‘भई गति सांप-छछूंदर केरी, उगलत-लीलत प्रीत घनेरी ’वाली होकर रह जाती है। वह अपनी हार का बचाव करता है। लड़ते वक्त जितना वह अपना बचाव नहीं करता। हारने के बाद वह उतना ही अपना बचाव करता है। उत्तर प्रदेश में जिलापंचायत चुनाव के नतीजे आ गए हैं। भाजपा ने 67 सीटों पर कब्जा जमा लिया है। सपा के खाते में केवल पांच सीटें आई हैं। धनंजय सिंह की पत्नी जौनपुर में जिला पंचायत चुनाव जीत गई हैं।
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बताया यह जा रहा है कि भाजपा और अपना दल दोनों ही ने उन्हें अपना समर्थन दे दिया था। प्रतापगढ़ में कांग्रेस और सपा दोनों ने ही खूब ताल ठोंकी लेकिन राजा भैया तो राजा भइया हैं। उनकी समर्थक माधुरी पटेल ने जिला पंचायत की कुर्सी पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है। कांग्रेस टापती ही रह गई। जिला पंचायत चुनाव में उसके खाते में रिक्तता ही हाथ आई। अखिलेश राज में जब जिला पंचायत चुनाव हुआ था तब 63 जिलों में साइकिल की फर्राटेदार चाल देखने को मिली थी लेकिन इस बार उत्तर प्रदेश में योगी की लहर खूब चली। जिस जिला पंचायत चुनाव की सफलता के लिए योगी आदित्यनाथ को दिल्ली तक की दौड़ लगानी पड़ी थी, उसमें भाजपा अखिलेश का पुराना रिकार्ड तोड़ देगी, इसकी तो किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। यह और बात है कि विपक्ष का आरोप है कि जिला पंचायत चुनाव में भगवा परचम लहराने में जिला प्रशासन की भी महती भूमिका रही है। इन आरोपों में कितना दम है, यह तो जांच का विषय हो सकताहै लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सत्ता के खोते में विपक्ष के आरोपों के तीर कुछ ज्यादा ही घुसते हैं। ब्लॉक प्रमुखी के चुनाव में सपा पहले ही बाजी मार चुकी है। और जब एक बार जीत मिल जाती है, वह चाहे छोटी ही क्यों न हो, तो उसका अपना अहंकार भी होता है जो अगली जीत की राह का रोड़ा भी बनता है।
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अखिलेश यादव ने भले ही बुआ की पार्टी बसपा और कांग्रेस से वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में गठबंधन न करने की मुनादी कर दी हो और मायावती ने भी पंजाब को छोड़कर किसी भी राज्य में एकला चलो रे की रीति-नीति अपनाने की भविष्यवाणी कर दी हो लेकिन उनकी अपनी नजर भी भाजपा विरोधी कुछ दलों जिसमें सुभासपा आदि शामिल हैं,पर है। उसे पता है कि बिना किसी दल का साथ मिले अब वह अपने बूते सत्ता की दाल गला पाने में समर्थ नहीं है लेकिन सपा पर तंज का वह कोई मौका भी नहीं चूकना चाहती। इसे इत्तेफाक ही कहा जाएगा कि उन्होंने कल ही मुनादी की कि सपा से गठबंधन को एक भी बड़ा दल राजी नहीं है और दूसरे दिन ही आम आदमी पार्टी के यूपी प्रभारी अखिलेश के आवास पर उनसे मिलने पहुंच गए और मायावती की उस अवधारणा को धूल चटा दी।
राजनीति में समर्थन और विरोध कावैसे भी कोई स्थायी भाव नहीं होता। यहां कौन कब किसके साथखड़ा मिले और कौन किसके खिलाफ विचारों की तेग संभाल ले, कहा नहीं जा सकता। वैसे चुनाव जीतने वाले का जश्न तो बनता है लेकिन बड़ी लड़ाई अभी बाकी है। उस पर फोकस करने में ही जीतने और हारने वाले दोनों का ही कल्याण है। नीति तो यह भी कहती है कि जिंदगी का सबसे कठिन काम है खुद को पढ़ना। जो खुद को पढ़ नहीं सकते, आगे नहीं बढ़ सकते। जिंदगी तब नहीं हारती, जब हम बड़े-बड़े सपने देखते हैं और वह पूरे नहीं होते। बल्कि तब हारती है जब हम छोटे-छोटे सपने देखते हैं और वह पूरे हो जाते हैं। इसलिए भी राजनीतिक दलों को बड़े सपने देखने की आदत डालनी चाहिए। हार और जीत तो लगी ही रहती है। गिरते हैं शहसवार ही मैदाने जंग में।