नई दिल्ली। कोरोना महामारी को काबू करने को फिलहाल दुनिया सोशल डिस्टैंसिंग व लॉकडॉउन का सहारा ले रही है, लेकिन इससे निपटना सिर्फ वैक्सीन से ही संभव है। इस दिशा में दुनिया भर के वैज्ञानिक काम कर रहे हैं। अमेरिकी संस्था सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रीवेंशन (सीडीसी) ने जन स्वास्थ्य से जुड़ी एजेंसियों को बताया है कि वह अक्तूबर या नवंबर तक दो वैक्सीन तैयार कर सकता है।
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पिछले सप्ताह सीडीसी द्वारा जन स्वास्थ्य से जुड़ी संस्थाओं को भेजे गए दस्तावेजों में वैक्सीन को ‘ए’ और ‘बी’ नाम दिया है। इसमें वैक्सीन से जुड़ी जरूरी अहम जानकारियां शामिल हैं। जैसे वैक्सीन की खोज के बीच का समय किस तापमान पर उन्हें रखना है। यह मानक मॉडर्ना और फाइजर कंपनी द्वारा तैयार वैक्सीन के मानकों से मिलते जुलते हैं।
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वैक्सीन अलग-अलग तरह की होती है, लेकिन सामान्य तौर पर निष्क्रिय वायरस कमजोर जिंदा वायरस या उसके प्रोटीन के छोटे-छोटे टुकड़ों की मदद से तैयार किया जाता है। मॉडर्ना और फाइजर सबसे अलग जेनेटिक मॉलीक्यूल जिसे आर एन ए मैसेंजर कहते हैं। तकनीक पर काम कर रही है इस तरह की वैक्सीन का अब तक मनुष्य पर प्रयोग के लिए अनुमति नहीं मिली है।
जेनेटिक मॉलीक्यूल सीधे मांसपेशियों की कोशिकाओं में लगाया जाता है। जो कोरोना के प्रोटीन जैसा प्रोटीन तैयार करेगी। अगर इसमें सफलता मिलती है तो शरीर में बना प्रोटीन इम्यून सिस्टम को सक्रिय कर देगा जिससे लंबे समय तक वायरस से बचाव संभव है।
बच्चों के शरीर में एक साथ मौजूद रहते हैं कोरोना वायरस और एंटीबॉडीज
कोरोना की चपेट में बच्चे भी आ रहे हैं। पर राहत की बात यह है कि उनके रक्त में वायरस के साथ एंटीबॉडीज भी रहती है। अमेरिका के वॉशिंगटन डीसी स्थित चिल्ड्रन नेशनल हॉस्पिटल के वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि 15 फीसदी पीड़ित बच्चों में वायरस के साथ उनके भीतर रोग प्रतिरोधक क्षमता भी विकसित हो जाती है।
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16 से 22 वर्ष के किशोरों की तुलना में 6 से 15 साल के बच्चों में वायरस को शरीर की संरचना से पूरी तरह खत्म होने में दोगुना से अधिक समय लगता है। जर्नल ऑफ पीडियाट्रिक्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, 13 मार्च से 21 जून के बीच अस्पताल पहुंचे 6300 से अधिक संक्रमित बच्चों पर अध्ययन के बाद वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे हैं।