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करवट : नेताओं को अपनों से विलग कर देता है अहम ब्रह्मास्मि का भाव

सियाराम पांडेय ‘शांत’

हाथ को अक्सर यह भ्रम बना रहता है कि कमाता तो मैं ही हूं। भोजन पकाता भी मैं हूं। यही नहीं, उसे थाल में सजाकर मुंह तक पहुंचाता भी मैं ही हूं। अगर मैं न रहूं तो सारा शरीर बेकार है। वह नष्ट हो जाएगा। हाथ की यह सोच कुछ हद तक ठीक हो सकती है लेकिन वही हाथ जब शरीर से अलग हो जाता है तो उसमें रक्त का प्रवाह नही हो पाता, वह सूख जाता है और तब उसे अपनी सोच पर तरस आता है जबकि शरीर अपने अन्य अंगों को हाथ का विकल्प बना लेता है।

कुछ यही स्थिति एक दल छोडकर दूसरे दल में जा रहे बयानवीर नेताओं की भी है। वे खुद को ईश्वर से कम मानते ही नहीं। हर नेता यही दावे कर रहा है कि उसकी बदौलत ही अमुक पार्टी मजबूत हुआ करती थी। अब वे पार्टी को नेस्तनाबूद करके ही रहेंगे।

अब उन्हें तो यह भी पता नहीं कि पहले वे जिस पार्टी में होते थे तब इस वाली पार्टी के बारे में कितना कुछ भला-बुरा नहीं कहते थे। वहां साहब की पॉजिशन अच्छी रही होती और वे किसी के तलवे न चाट रहे होते तो इस दल का रुख क्यों करते।

उन्हें लग रहा था कि उनकी जाति का सीएम बन गया तो वे उपमुख्यमंत्री तो बन ही जाएंगे और वह अध्यक्ष पद पर ही लटक गया तो भाग्य उनका खुल जाएगा लेकिन अब उन्हें कौन बताए कि नदी और समुद्र में एक जगह पड़ा पत्थर भी वजनी होता है और नदी की धारा के साथ लुढ़कने वाला पत्थर घिस -घिसकर रोड़ी बन जाता है। किसी भी दल का अपना सिद्धांत होता है।

माननीय बदले, पर नहीं बदली शहर की सूरत

किसी का परिवारवादी और किसी का राष्ट्रवादी।कोई सबकी सोचता और कोई महज अपनी सोचता है। अब इतना तो तय है कि दल छोड़ने वालों की महत्वाकांक्षाएं बड़ी होती हैं लेकिन केवल चाहत ही से बात नहीं बनती, काम भी करना होता है। पात्रता भी विकसित करनी पड़ती है। जनता उस नेता का साथ देती है, जो उसका साथ देता है लेकिन नेता जी तो एक हाथ से ही ताली बजा रहे हैं।

जनता सब समझती है कि आपका पलायन जनता के लिए नहींहैं, अपने लिए है। जनता का नेता तो वही है,जो उसके काम आए। जो खुद मलाई खाए और जनता को मूर्ख बनाए,उसका साथ जनता नही देती। राजनीति में विश्वसनीयता,सेवाभाव और पात्रता जरूरी होती है वरना लोकजीवन से पलायन ही करना पड़ता है। अहम ब्रहसमी का अहमन्यता भाव नेताओं को अपने से दूर कर देता है। अहंकारी वह अभागा है जिसका दुर्दिन में एक भी साथी नहीं होता।

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