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शीतकालीन सत्र पर तपिश

winter session

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कोरोना महामारी से पूरी दुनिया जूझ रही है। विकसित देशों में तो कोरोना ने एक तरह से कहर ही ढा रखा है। भारत भी कोरोना संक्रमणअछूता नहीं है। बड़ी और सघन आबादी वाला देश होने के बाद भी भारत में कोरोना संक्रमण की दर दुनिया के विकसित देशों के मुकाबले अगर कम है तो इसके पीछे सावधानी ही बहुत हद तक जिम्मेदार है। केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है कि देश में कोरोना संक्रमितों की संख्या 99.32 लाख से ज्यादा है।

तसल्लीखेज बात यह है कि उसमें 94.56 लाख से अधिक लोग संक्रमणमुक्त भी हुए हैं लेकिन 3.32 लाख लोग अभी भी कोरोना संक्रमित हैं। जिस तरह रोज कोरोना संक्रमितों की नई खेप आ रही है, उसे बहुत हल्के में नहीं लिया जा सकता। देश में कोरोना से 1 लाख 44हजार लोगों की मौत हुई है। बिहार और केरल में संक्रमण के ज्यादा मामले आ रहे हैं। कोरोना की वैक्सीन अभी आई नहीं है।

सरकार के स्तर पर निरंतर आगाह किया जा रहा है कि जब तक दवाई नहीं तब तक ढिलाई नहीं। मॉस्क और दो गज की दूरी जरूरी जैसी अपीलें की जा रही हैं लेकिन इसके बाद भी कुछ लोग कोरोना महामारी की भयावहता को कमतर आंक रहे हैं। इसके विपरीत केंद्र सरकार ने संसद का शीतकालीन सत्र अभी नहीं बुलाने का निर्णय लिया है तो उसके पीछे उसकी सोच सांसदों को तो कोरोना से बचाने की तो है ही, उनके संपर्क में आने वालों की सुरक्षा करने की भी है लेकिन विपक्ष इसे लोकतंत्र की हत्या के रूप में देख रहा है।

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दुर्भाग्यपूर्ण करार दे रहा है। इसे जनता से जुड़े सवालों से बचने की सरकार की कोशिश मान रहा है। कांग्रेस का तर्क है कि जब देश में स्कूल कॉलेज खुल सकते हैं, रेस्टोरेंट एवं बार खुल सकते है, सभी आर्थिक गतिविधियां शुरू की जा सकती हैं, प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की रैलियां हो सकती हैं तो फिर संसद सत्र को क्यों नहीं बुलाया जा सकता है?

अब उसे यह कौन समझाए कि सभी स्कूल—कॉलेज आज भी नहीं खुल पाए हैं। आर्थिक गतिविधियां भी सीमित दायरे में ही चल रही हैं। देश में जो कुछ भी हो रहा है, कोविड नियमावली के तहत हो रहा है ,लेकिन शीतकालीन सत्र में सारे सांसद पहुंचेंगे और वे पास—पास बैठेंगे भी, उन सांसदों में कुछ बुजुर्ग भी हैं। ऐसे में अगर सरकार ने शीतकालीन सत्र की बजाय सीधे बजट सत्र बुलाने का निर्णय लिया है तो इसमें कुछ गलत भी नहीं है।

संसद में वैसे भी सत्र का अधिकांश समय तो हंगामा और विपक्ष के वॉकआउट में ही गुजर जाता है, काम तो अंतिम दो चार दिन में ही होता है। सरकार अगर यह चाहती है कि बजट सत्र में ही महत्वपूर्ण निर्णयों पर, प्रस्तावों पर चर्चा हो जाएगी तो यह उसका दृष्टिकोण है। इससे तो देश के धन की बचत ही होगी। इससे लोकतंत्र कैसे कमजोर होता है, यह बात समझ में नहीं आती? शीतकालीन सत्र के आयोजन पर बढ़ती राजनीतिक तपिश किसी भी लिहाज से ठीक नहीं है।

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विपक्ष के दावों पर यकीन करें तो अपने देश में लोकतंत्र की रोज हत्या होती है और रोज ही वह जीवित भी हो जाता है। मजबूत भी हो जाता है। लोकतंत्र कब कमजोर हो जाएगा और कब मजबूत,यह कहना बहुत कठिन है। संवाद से लोकतंत्र को मजबूती मिलती है। विचार —विमर्श से समाधान की राह आसान होती है। सोचने—समझने की ताकत मिलती है, यहां तक तो ठीक है लेकिन विमर्श में अगर पूर्वाग्रह का समावेश हो जाए तो  विमर्श कितना लोकहितकारी होगा, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है।

सवाल तो सवाल है। वह कड़ा हो जरूरी तो नहीं, सीधे और सरल सवाल भी दिमाग घुमाने के लिए काफी होते हैं। बच्चों के सीधे सवाल भी अभिभावकों की पेशानियों पर बल ला देते हैं। वे समझ नहीं पाते कि उन सवालों का जवाब कैसे दें? सवाल पूछने के लिए जरूरी नहीं कि संसद का सत्र ही बुलाया जाए। अब तो ट्विटर पर सवाल पूछे और उनके जवाब दिए जा रहे हैं। वेबिनार के जरिए बड़ी से बड़ी गोष्ठियां और सम्मेलन हो रहे हैं। परियोजनाओं के शिलान्यास और लोकार्पण तक डिजिटली हो रहे हैं। चुनावी रैलियां भी डिजिटली हुई हैं। तकनीक ने पूरी दुनिया को जब एक दूसरे के बेहद करीब ला दिया है तो इसके लिए शारीरिक उपस्थिति वाले आयोजनों की दरकार क्यों? कांग्रेस को लगता है कि कि अगर शीतकालीन सत्र चलता तो सरकार को विपक्ष के कड़े सवालों का सामना करना पड़ता।

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इसलिए उसने सोच—समझकर और कोरोना महामारी का बहाना लेकर संसद का शीतकालीन सत्र आयोजित नहीं करने का निर्णय लिया है। किसानों की अनदेखी का भी  कांग्रेस आरोप लगा रही है। ऐसा नहीं कि इस समय संसद सत्र नहीं चल रहा है तो विपक्ष सवाल दागने के लिए उचित वक्त का इंतजार कर रहा है। उसका विरोध तो अभी भी जारी है। अपने—अपने तरीके से वह विरोध भी कर रहा है और अपनी क्षमता के अनुरूप समाचार माध्यमों में अपनी जगह भी बना रहा है लेकिन संसद सत्र की बात ही कुछ और है। विपक्ष का तर्क यह है कि मानसून सत्र भी छोटा हो गया था। उसे संसद सत्र पर होने वाले खर्च का भी अनुमान लगाना चाहिए और इस बात पर भी विचार करना चाहिए जब शोर—शराबे और हंगामें से संसद की चर्चा या कार्यवाही स्थगित करनी पड़ती है तब देश को कितना नुकसान होता है? उस स्थिति में इस देश का लोकतंत्र कमजोर होता है या मजबूत?

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वर्ष 2011 में जेपीसी के गठन पर विपक्ष और सरकार के बीच गतिरोध के चलते शीतकालीन सत्र पूरी तरह ठप हो गया था। वर्ष 2012 में एफडीआई में सुधार के मुद्दे पर गतिरोध के चलते संसद का शीतकालीन सत्र न केवल बार—बार बाधित हुआ बल्कि बीच में ही अनिश्चितकाल के लिए स्थगित करना पड़ा था। गौरतलब है कि उस समय कांग्रेस की ही देश में सरकार थी। क्या संसद सत्र को बीच में ही स्थगित कर देने से लोकतंत्र कमजोर नहीं होता, इस बात का क्या जवाब है विपक्ष खासकर कांग्रेस के पास। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में संसद सत्र के दौरान व्यवधान तो खूब हुए लेकिन इस सच को भी नकारा नहीं जा सकता कि मोदी के शासनकाल में संसद के दोनों सदन अपेक्षाकृत ज्यादा चले भी और काम भी ज्यादा हुआ। तारीखें गवाह हैं कि वर्ष 2015 में राज्यसभा में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए ने विपक्ष की रुकावटों की वजह से अपने 55 घंटे खोए। उसे इस सत्र में काम करने के लिए 112 घंटे मिले थे। लोकसभा में भाजपा को बहुमत  हासिल है और वहां भाजपा और उसके सहयोगी दलों के सांसदों ने 115 घंटे काम किए। कामकाज के लिहाज से लोकसभा में 102 प्रतिशत तो राज्यसभा में 46 प्रतिशत ही काम हुआ था। वहीं लोकसभा में 87 प्रतिशत प्रश्नकाल हुआ था और राज्यसभा में महज 14 फीसदी।

संसद के हर एक सदन को चलाने के लिए 29 हज़ार रुपए प्रति मिनट का खर्चा बैठता है और राज्यसभा में घंटों का नुकसान होने की वजह से राजकोष को 10 करोड़ का नुकसान पहुंचा। वर्ष 2018 में शीतकालीन सत्र में तीन तलाक बिल अधर में लटक गया था। विपक्ष के विरोध के चलते संसद का कितना समय बर्बाद होता है, यह किसी से छिपा नहीं है। शीतकालीन सत्र का आयोजन होना चाहिए था। इसमें देश—काल—परिस्थितियों पर चर्चा होती है। देश को आगे बढ़ाने संबंधी प्रस्तावों पर चर्चा होती है। नए कानून बनते हैं और पुराने कानूनों में सुधार होते हैं।यह एक पक्ष है लेकिन जनप्रतिनिधियों को संक्रमण से बचाना भी सरकार की जिम्मेदारी है। इसमें दोष तलाशने की नहीं, इसे सार्थक तरीके से लेने की जरूरत है। सांसदों को संसद में जितना भी समय मिले, उसमें उन्हें देश के हित को सर्वोपरि रखते हुए अपना शत—प्रतिशत योगदान देना चाहिए। संसद सत्र छोटा बड़ा हो सकता है लेकिन देश के लिए कुछ विलक्षण करने की इच्छाशक्ति छोटी या कमजोर नहीं होनी चाहिए। सरकार और उसकी नीतियों का विरोध अपनी जगह है,लेकिन उनकी प्राथमिकता के केंद्र में राष्ट्रहित ही सर्वोपरि होना चाहिए। सोच सकारात्मक हो तो लोकतंत्र को मजबूत होने से कोई रोक नहीं सकता।

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