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कब गीता ने ये कहा, बोली कहाँ कुरान

Gita-Quran

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डॉ सत्यवान सौरभ

भारत मूलतः विविधताओं का देश है, विविधताओं में एकता ही यहाँ की सामासिक संस्कृति की स्वर्णिम गरिमा को आधार प्रदान करती है। वैदिक काल से ही सामासिक संस्कृति में अंतर और बाह्य विचारों का अंतर्वेशन ही यहाँ की विशेषता रही है, इसलिये किसी भी सांस्कृतिक विविधता को आत्मसात करना भारत में सुलभ है। इसी परिप्रेक्ष्य में धार्मिक सहचार्यता भी इन्हीं विशेषताओं में से एक रही है, इसका अप्रतिम उदाहरण सूफीवाद में देखा जा सकता है जहाँ पर इस्लामिक एकेश्वरवाद और भारतीय धर्मों की कुछ विशेषताओं का स्वर्णिम संयोजन हुआ तथा परिणामस्वरूप एक संश्लेषित धार्मिक वैचारिकता का सफल अनुगमन हुआ। किंतु हाल के वर्षों में भारत की सांस्कृतिक विविधता- सांस्कृतिक विषमता में अंतरित हो रही है जिससे लोगों के मध्य सद्भाव में ह्रास के साथ ही सांस्कृतिक विशेषता पर भी नकारात्मक प्रभाव भी पड़ रहा है।

एक राजनीतिक दर्शन के रूप में सांप्रदायिकता की जड़ें भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता में मौजूद हैं।
भारत में सांप्रदायिकता का प्रयोग सदैव ही धार्मिक और जातीय पहचान के आधार पर समुदायों के बीच सांप्रदायिक घृणा और हिंसा के आधार पर विभाजन, मतभेद और तनाव पैदा करने के लिये एक राजनीतिक प्रचार उपकरण के रूप में किया गया है। सांप्रदायिक हिंसा एक ऐसी घटना है जिसमें दो अलग-अलग धार्मिक समुदायों के लोग नफरत और दुश्मनी की भावना से लामबंद होते हैं और एक-दूसरे पर हमला करते हैं।

देश में फेक न्यूज़ के तीव्र प्रसार से सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने में सोशल मीडिया ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। सोशल मीडिया हिंसा के माध्यम से दंगों और हिंसा के ऑडियो-विज़ुअल का प्रसार काफी सुगम और तेज़ हो गया है। हिंसा से संबंधित ये अमानवीयता ग्राफिक चित्रण आम जनता में अन्य समुदायों के प्रति घृणा को और बढ़ा देते हैं।

पत्रकारिता की नैतिकता और तटस्थता का पालन करने के स्थान पर देश के अधिकांश मीडिया हाउस विशेष रूप से किसी-न-किसी राजनीतिक विचारधारा के प्रति झुके हुए दिखाई देते हैं, जो बदले में सामाजिक दरार को चौड़ा करता है।
वर्तमान समय में विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा अपने राजनीतिक लाभों की पूर्ति के लिये सांप्रदायिकता का सहारा लिया जाता है। एक प्रक्रिया के रूप में राजनीति का सांप्रदायीकरण भारत में सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने के साथ-साथ देश में सांप्रदायिक हिंसा की तीव्रता को बढ़ाता है। भारतीय लोगों में आमतौर पर मूल्य-आधारित शिक्षा का अभाव देखा जाता है, जिसके कारण वे बिना सोचे-समझे किसी की भी बातों में आ जाते हैं और अंधानुकरण करते हैं।

विकास का असमान स्तर, वर्ग विभाजन, गरीबी और बेरोज़गारी आदि कारक सामान्य लोगों में असुरक्षा का भाव उत्पन्न करते हैं। असुरक्षा की भावना के चलते लोगों का सरकार पर विश्वास कम हो जाता है, परिणामस्वरूप अपनी ज़रूरतों/हितों को पूरा करने के लिये लोगों द्वारा विभिन्न राजनीतिक दलों, जिनका गठन सांप्रदायिक आधार पर हुआ है, का सहारा लिया जाता है। दो समुदायों के बीच विश्वास और आपसी समझ की कमी या एक समुदाय द्वारा दूसरे समुदाय के सदस्यों का उत्पीड़न आदि के कारण उनमें भय, शंका और खतरे का भाव उत्पन्न होता है। इस मनोवैज्ञानिक भय के कारण लोगों के बीच विवाद, एक-दूसरे के प्रति नफरत, क्रोध और भय का माहौल पैदा होता है।

सांप्रदायिक हिंसा के दौरान निर्दोष लोग अनियंत्रित परिस्थितियों में फँस जाते हैं, जिसके कारण व्यापक स्तर पर मानवाधिकारों का हनन होता है। सांप्रदायिक हिंसा के कारण जानमाल का काफी अधिक नुकसान होता है।
सांप्रदायिक हिंसा वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा देती है और सामाजिक सामंजस्य प्रभावित होता है। यह दीर्घावधि में सांप्रदायिक सद्भाव को गंभीर नुकसान पहुँचाती है।

सांप्रदायिक हिंसा धर्मनिरपेक्षता और बंधुत्व जैसे संवैधानिक मूल्यों को प्रभावित करती है। सांप्रदायिक हिंसा में पीड़ित परिवारों को इसका सबसे अधिक खामियाज़ा भुगतना पड़ता है, उन्हें अपना घर, प्रियजनों यहाँ तक कि जीविका के साधनों से भी हाथ धोना पड़ता है। सांप्रदायिकता देश की आंतरिक सुरक्षा के लिये भी चुनौती प्रस्तुत करती है क्योंकि सांप्रदायिक हिंसा को भड़काने वाले एवं उससे पीड़ित होने वाले दोनों ही पक्षों में देश के ही नागरिक शामिल होते हैं।

सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिये पुलिस को अच्छी तरह से सुसज्जित होने की आवश्यकता है। इस तरह की घटनाओं को रोकने हेतु स्थानीय खुफिया नेटवर्क को मज़बूत किया जा सकता है। सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिये शांति समितियों की स्थापना की जा सकती है जिसमें विभिन्न धार्मिक समुदायों से संबंधित व्यक्ति सद्भावना फैलाने और दंगा प्रभावित क्षेत्रों में भय तथा घृणा की भावनाओं को दूर करने के लिये एक साथ कार्य कर सकते हैं। यह न केवल सांप्रदायिक तनाव बल्कि सांप्रदायिक दंगों को रोकने में भी मददगार साबित होगा। देश के आम लोगों को मूल्य आधारित शिक्षा दी जानी चाहिये, ताकि वे आसानी से किसी की बातों में न आ सकें। शांति, अहिंसा, करुणा, धर्मनिरपेक्षता और मानवतावाद के मूल्यों के साथ-साथ वैज्ञानिकता (एक मौलिक कर्त्तव्य के रूप में निहित) और तर्कसंगतता के आधार पर स्कूलों और कॉलेजों/विश्वविद्यालयों में बच्चों के उत्कृष्ट मूल्यों पर ध्यान केंद्रित करने, मूल्य-उन्मुख शिक्षा पर ज़ोर देने की आवश्यकता है जो सांप्रदायिक भावनाओं को रोकने में महत्त्वपूर्ण साबित हो सकते हैं।

मौजूदा आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार कर शीघ्र परीक्षणों और पीड़ितों को पर्याप्त मुआवज़ा प्रदान करने की व्यवस्था की जानी चाहिये। भारत सरकार द्वारा सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिये वैश्विक स्तर पर मलेशिया जैसे देशों में प्रचलित अभ्यासों का अनुसरण किया जा सकता है। सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिये मज़बूत कानून की आवश्यकता होती है। साथ ही देश के नागरिकों को ये समझने की आवश्कता है कि-

कब गीता (Gita) ने ये कहा, बोली कहां कुरान (Quran)।
करो धर्म के नाम पर, धरती लहूलुहान

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गैया हिन्दू हो गई, औ’ बकरा इस्लाम ।
पशुओं के भी हो गए, जाति-धर्म से नाम ।।
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जात-धर्म की फूट कर, बदल दिया परिवेश ।
नेता जी सब दोगले, बेचें, खायें देश ।।
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भक्ति ईश की है यही, और यही है धर्म ।
स्थान,जरूरत, काल के, करो अनुरूप कर्म ।।
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सब पाखंडी हो गए, जनता, राजा, संत ।
सौरभ रोये दखकर, धर्म-कर्म का अंत ।।
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पुण्य-धर्म को छोड़कर, करने लगे गुनाह ।
‘सौरभ’ लगे कठिन मुझे, है आगे की राह ।।

@ डॉ. सत्यवान ‘सौरभ’
(दोहा संग्रह ‘तितली है खामोश’ से साभार)

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