पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह भाजपा के दिग्गज नेताओं में थे, वह पार्टी के हिंदुत्ववादी चेहरे तो थे ही पिछड़े वर्ग के एक मान्य सर्वमान्य नेता के तौर पर भी उन्हें माना जाता रहा है। हालांकि भाजपा में उनकी राह बाद के दिनों में काफी उतार चढ़ाव वाली भी रही है।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी से मतभेदों के चलते उन्हें भाजपा और प्रखर हिंदुत्व से अलग होना पड़ा और 1999 में उन्होंने राष्ट्रीय क्रांति पार्टी का गठन किया। इसके सहारे शुरू हुई कल्याण सिंह की राजनीति ज्यादा असर तो नहीं दिखा सकी, लेकिन भाजपा को इससे कई जगहों पर नुकसान बहुत हुआ और रायबरेली में कमल खिलने से पहले ही मुरझा गया।
2002 में कल्याण सिंह की पार्टी ने पूरे प्रदेश की 335 सीटों पर उम्मीदवारों को उतारा लेकिन कई ऐसे रहे जिन्होंने भाजपा के कमल को खिलने से रोक दिया था। रायबरेली में कांग्रेस के कम होते असर के बावजूद भाजपा अन्य दलों की तरह इसका लाभ नहीं उठा सके और यहां पार्टी का कमल नहीं खिल सका। इसके पीछे कल्याण सिंह की पार्टी का भाजपा के परम्परागत वोटों पर सेंध लगाने को माना जाता है।
रायबरेली जिले की डलमऊ विधानसभा ऐसी थी जहां कभी कमल नहीं खिल सका था, 2002 में यहां भाजपा कांग्रेस के बड़े नेता रहे कुंवर हरनारायण सिंह के पुत्र अजयपाल सिंह को मैदान में उतारा था लेकिन उन्हें मात्र 171 वोटों से हार का सामान करना पड़ा और बसपा के स्वामी प्रसाद मौर्य को विजय मिली,उन्हें 42723 वोट और भाजपा के कुंवर अजयपाल सिंह को 42552 वोट मिले।
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यह अलग बात है कि स्वामी प्रसाद मौर्य आज भाजपा सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं। भाजपा इस सीट पर अपना कमल खिला सकती थी लेकिन कल्याण सिंह की पार्टी के उम्मीदवार के चलते ऐसा नहीं हो सका, जिसे करीब 1500 वोट मिले थे।
उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय क्रन्ति पार्टी को मिले वोट भाजपा के ही परम्परागत वोट थे जिसकी वजह से पार्टी को नुकसान हुआ।
इसके अलावा रायबरेली की ही सरेनी भी ऐसा चुनाव क्षेत्र रहा है जहां एक बार ही भाजपा चुनाव जीत पाई थी और यहां से पूर्व मंत्री गिरीश नारायण पांडे चुनाव लड़ रहे थे। 2002 के चुनाव में यहां से समाजवादी पार्टी के राजा देवेन्द्र प्रताप सिंह को 32 हजार वोट मिले और वह 5900 वोटों से चुनाव जीत गए, दूसरे नंबर पर कांग्रेस के अशोक सिंह थे भाजपा को 24 हजार से ज्यादा वोट मिले और विजयी उम्मीदवार से वह करीब 8 हजार वोटों से पीछे रहे। हालंकि राष्ट्रीय क्रांति पार्टी के उम्मीदवार को यहां से 14 हजार वोट मिल गए और वह भाजपा की राह में रोड़ा साबित हुए। उन्हें मिले वोट भाजपा के परम्परागत वोट थे जिनपर कल्याण सिंह की पार्टी ने सेंध लगाते हुए बड़ा नुकसान कर दिया था।
उत्तरप्रदेश की राजनीति पर नजर रखने वाले विश्लेषक डॉ ओम प्रकाश शुक्ला कहते हैं ‘कल्याण सिंह और भाजपा का परम्परागत वोट बैंक एक ही था जिसे उनके अलग होने से पार्टी को काफी नुकसान हुआ। पूरे प्रदेश में एक दर्जन से ज्यादा ऐसी सीटें रही हैं जिनपर इसका असर हुआ है।’