Site icon 24 GhanteOnline | News in Hindi | Latest हिंदी न्यूज़

जानें आदिवासी नेता बिरसा मुंडा ने क्यों की बिरसाइत धर्म की स्थापना

Birsa Munda

Birsa Munda

बिरसा मुंडा ( Birsa Munda ) को उन शख्सियतों में गिना जाता है जिन्होंने आदिवासियों के लिए ब्रिटिश शासन से लड़ाई लड़ी और उनके अधिकारों से समझौता नहीं किया। यही वजह है कि आज भी उन्हें याद किया जाता है। झारखंड के खूंटी ज़िले में जन्मे बिरसा मुंडा के परिवार के ज्यादातर लोगों ने ईसाई धर्म को स्वीकार कर लिया था। इसकी शुरुआत उनके चाचा कानू पौलुस से हुई थी। इसके बाद पिता सुगना और छोटे भाई ने भी ईसाई धर्म को स्वीकार किया और धर्म प्रचारक बन गए।

बिरसा ( Birsa Munda ) के जीवन का एक अहम हिस्सा उनकी मौसी के घर खटंगा गांव में बीता। यहां रहते हुए उनका सम्पर्क एक ईसाई धर्म के प्रचारक से हुआ। वो अपने प्रवचन में मुडाओं की पुरानी व्यवस्था की आलोचना करते थे। यह बात बिरसा को पसंद नहीं आई। यही वजह रही है कि शुरुआती दौर की पढ़ाई मिशनरी में करने के बाद वो वापस आदिवासी जीवन की ओर लौट गए।

कैसे हुई बिरसाइत धर्म की शुरुआत?

‘बिरसा मुंडा ( Birsa Munda ) और उनका आंदोलन’ किताब के लेखक और प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे कुमार सुरेश सिंह लिखते हैं कि 1894 में वो उस आंदोलन में जुड़े जिसमें आदिवासियों की जमीन और जंगलों के अधिकारों की मांग की जा रही थी। इस दौरान उन्हें महसूस हुआ कि इस आंदोलन को न तो आदिवासी और न ही ईसाई धर्म के लोग प्राथमिकता दे रहे हैं। यहीं से उन्होंने एक नए धर्म की शुरुआत की और नाम रखा बिरसाइत। इसे मानने वालों को बिरसाइत कहा गया। 1895 में उन्होंने अपने धर्म के प्रचार की जिम्मेदारी अपने 12 शिष्यों को दी।

बिरसाइत धर्म का पालन करना इतना मुश्किल क्यों?

बिरसाइत धर्म का पालन करना इतना भी आसान नहीं है। इस धर्म को मानने वाले लोग मांस, मदिरा, बीड़ी और खैनी को छूते तक नहीं है। बाजार में बनी चीजें नहीं खाते। किसी दूसरे शख्स के घर में बना खाना नहीं खाते हैं। गुरुवार के दिन फूल, पत्ती और दातुन के तोड़ने तक पर मनाही है। पहनने के लिए हल्के रंग के सूती कपड़े का इस्तेमाल करते हैं।

इस धर्म को मानने वालों की संख्या इतनी कम क्यों है?

बीबीसी की रिपोर्ट में खूंटी कॉलेज में मुंडारी भाषा के प्रोफेसर बीरेंद्र कुमार सोय मुंडा का कहना है, अगर कोई इंसान इस धर्म को मानने वाले के घर में जाता है तो ये उन्हें खाना बनाकर नहीं खिलाते। उनके लिए राशन और खाना बनाने के लिए एक अलग जगह का इंतजाम करते हैं। अगर इस धर्म को मानने वाला शख्स दूसरी जाति में विवाह करता है तो समाज में उसे मान्यता मिलना मुश्किल हो जाती है। यही वजह है कि इसे मानने वालों की संख्या कम है।

1901 में बिरसा मुंडा के निधन के बाद उनकी नीतियां और आंदोलन का असर तो बरकरार रहा, लेकिन बिरसाइत धर्म को मानने वाले लोग बहुत कम रहे। इस धर्म को लेकर भी तीन पंथ है। एक पंथ के लोग बुधवार को पूजा करते हैं। दूसरे रविवार को और तीसरे गुरुवार को। हालांकि में इनमें रविवार को पूजा करने वाले समर्थकों की संख्या अधिक है।

Exit mobile version