सियाराम पांडे ‘शांत’
एक शायर ने लिखा है कि जो लोग जान-बूझकर नादान बन गए, मेरा खयाल था कि वे इंसान बन गए। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की समझदारी पर अक्सर सवाल उठते रहे हैं। दूसरे दलों के स्तर पर भी और उनकी अपनी पार्टी के स्तर पर भी। पार्टी उन्हें समझदार माने या न माने लेकिन वे खुद को समझदार मानते हैं। मानना भी चाहिए। गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है कि ‘ निज कवित्त केहि लाग न नीका। सरस होंहि अथवा अति फीका।’ यह बात कविता पर ही नहीं, अपनी कही बात पर भी लागू होती है। कौन क्या समझता है, यह उसका विवेक है लेकिन दूसरों की समझ के लिए हम अपनी समझ को कमतर क्यों मानें? राहुल गांधी पर यह बात अक्षरशः लागू होती है। राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को नासमझ और किसानों को समझदार कहा है।
उनका आरोप है कि मौजूदा केंद्र सरकार अपने कुछ उद्योगपति मित्रों पर तो मेहरबान है लेकिन वह किसानों की उपेक्षा कर रही है। उन्होंने कहा है कि तीनों नए कृषि कानूनों पर प्रधानमंत्री बातचीत के बहाने किसानों को थका देना चाहते हैं लेकिन आंदोलन कर रहे किसान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ज्यादा समझदार हैं और वे थकने, भटकने और किसी के बहकावे में आने वाले नहीं हैं। उन्होंने आरोप लगाया है कि केंद्र में सत्तारूढ़ मोदी सरकार किसानों को धीरे-धीरे खत्म करना चाहती है। इसीलिए कांग्रेस किसानों के समर्थन में खड़ी है।
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यह वह उस तरह कह रहे हैं जैसे कि कांग्रेस राज में किसानों की हालत बहुत बेहतर थी और मोदी राज में बहुत बदतर हो गई हो। उनका मानना है कि प्रधानमंत्री से ज्यादा समझ हिंदुस्तान के किसानों को है। वे जानते हैं कि क्या हो रहा है और क्या नहीं हो रहा है। राहुल गांधी ने एक गंभीर आरोप यह भी लगाया है कि इस देश के 4-5 नए मालिक है। प्रधानमंत्री इन्हीं 4-5 लोगों के हाथ में पूरे हिंदुस्तान की खेती का ढांचा दे रहे हैं। लोकसभा चुनाव में वे 15 उद्योगपतियों के हाथ में हिंदुस्तान को दे देने का आरोप लगाते रहे हैं। इधर वे अंबानी-अडानी तक ही सिमट गए हैं। अब उन्होंने उसमें तीन और उद्योगपति जोड़ लिए हैं। उनका आरोप है कि मोदी सरकार किसान की आजादी खत्म करने की प्रक्रिया को धीरे धीरे आगे बढा रही है। यह तो वही बात हुई कि कोई कीचड़ में पत्थर फेंककर समझारी और बेदागपने की बात करे या फिर काजल की कोठरी से सुरक्षित निकल आने की बात करे।
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भाजपा ने राहुल गांधी के इन आरोपों पर न केवल आपत्ति जताई है बल्कि उनसे यह भी जानना चाहा है कि राहुल गांधी, उनका परिवार और कांग्रेस कब चीन पर झूठ बोलना बंद करेगी? क्या वह इस बात से इंकार कर सकते हैं कि अरुणाचल प्रदेश की जिस जमीन का वह जिक्र कर रहे हैं, वहां सहित हजारों किलोमीटर जमीन चीन को किसी और ने नहीं बल्कि पं. जवाहर लाल नेहरू ने भेंट कर दी थी? कांग्रेस चीन के समक्ष अक्सर क्यों घुटने टेक देती है?’ कांग्रेस-नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार ने स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को सालों तक क्यों अटका रखा था और न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं बढ़ाया। कांग्रेस की सरकारों के दौरान किसान दशकों तक गरीब क्यों रहा? जब वह विपक्ष में होते हैं तभी क्यों उन्हें किसानों के प्रति सहानुभूति महसूस होती है। भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने तो राहुल गांधी से यहां तक पूछा है कि क्या राहुल गांधी का चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और चीन से समझौता पत्र रद्द करने का कोई इरादा है? ’
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क्या वह अपने परिवार नियंत्रित न्यासों को चीन से मिले उदार दानों को वापस करने का इरादा रखते हैं ? या उनकी नीतियां और परिपाटियां चीनी पैसों और समझौता पत्र से शासित होती रहेंगी? राहुल गांधी ने कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई में देश को हतोत्साहित करने का कोई मौका नहीं छोड़ा। आज जब भारत में सबसे कम मामले हैं और हमारे वैज्ञानिकों ने टीके इजाद कर लिए हैं तो उन्होंने वैज्ञानिकों को अब तक बधाई क्यों नहीं दी और 130 करोड़ भारतीयों की एक बार भी प्रशंसा क्यों नहीं की। कृषि मंडियों को लेकर राहुल गांधी लगातार झूठ फैला रहे हैं कि उन्हें खत्म कर दिया जाएगा। उन्होंने पूछा कि क्या कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में इस बारे में वादा नहीं किया था? क्या इससे कृषि मंडिया खत्म नहीं हो जाती? ‘राहुल गांधी ने तमिलनाडु में जल्लीकट्टू का आनंद उठाया। क्यों सत्ता में रहते हुए उनकी पार्टी ने इस पर प्रतिबंध लगाया था और तमिल संस्कृति का अपमान किया था ? क्या उन्हें भारत की संस्कृति पर गर्व नहीं है?
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अनिल अंबानी जिसे वे 201. के लोकसभा चुनाव के दौरान चोर ठहरा रहे थे, उस अनिल अंबानी पर मोदी सरकार नहीं बल्कि सोनिया-राहुल गांधी की यूपीए सरकार मेहरबान थी। यह देश इस बात को कैसे भूल सकता है कि यूपीए सरकार ने अपने 10 साल के शासन में आखिर के सात वर्षों में अंबानी की रिलायंस कंपनी को एक लाख करोड़ रुपये की परियोजनाएं दी थीं। कांग्रेस ने उद्योगपतियों से सांठगांठ कर देश को लाखों करोड़ का चूना लगाया, यह सच भी इस देश के लोग बखूबी जाने और समझते हैं। वर्ष 2004 से 2014 के बीच कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार ने ऐसी कंपनियों को ठेके दिए जिन्होंने जरूरी प्रक्रियाओं का पालन ही नहीं किया था।
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कांग्रेस सरकार ने रोड ट्रांसपोर्ट एंड हाइवेज, टेलिकॉम, मुंबई मेट्रोपॉलिटन रीजन डेवलपमेंट अथॉरिटी, एनएचएआई और डीएमआरसी जैसी सरकारी इकाइयों सरकारी कंपनियों से कई परियोजनाएं छीन कर अनिल अंबानी की कंपनियों को दे दिए थे। एक लाख करोड़ से अधिक के ये प्रोजेक्ट्स तो कांग्रेस शासन के आखिरी 7 वर्षों में ही दिए गए। इसी मिलीभगत का नतीजा था कि कांग्रेस के पांच साल में ही अनिल अंबानी की इलेक्ट्रिसिटी डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी देश की सबसे बड़ी इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनी बन गई थी। इस दौरान 16500 करोड़ रुपये के 12 प्रोजेक्ट्स शुरू किए गए, जिससे आर-इंफ्रा देश में सबसे बड़ी प्राइवेट रोड डेवलपर बन गई थी। रिलायंस कम्युनिकेशंस के लिए रेगुलेटरी अप्रूवल्स तो दूर, तमाम प्रक्रियाओं को दरकिनार कर दिया गया था। अनिल अंबानी ग्रुप की 6 कंपनियों रिलायंस कम्युनिकेशंस, रिलायंस कैपिटल, रिलायंस पावर, रिलायंस इंफ्रास्ट्रक्चर, रिलायंस नेचुरल रिसोर्सेज लिमिटेड और रिलायंस मीडियावर्क्स भी इसमें शामिल थी। प्रोजेक्ट्स हासिल करने से पहले इनमें से कई कंपनियों को उस क्षेत्र का अनुभव भी नहीं था। जाहिर है ये सब इसलिए संभव हो पाया कि अनिल अंबानी के ‘सोनिया गांधी एंड फैमिली’ से करीबी रिश्ते थे।
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कांग्रेस सरकार के दस सालों में हुए घोटालों के खेल भी इस देश से छिपे नहीं हैं। कांग्रेस से मिलकर किस तरह कुछ कंपनियों ने इस देश को लूटा, यह भी सबको पता है। वर्ष 2012 में कांग्रेस राज में तीन बड़े आर्थिक घोटाले हुए। 1.86 लाख करोड़ रुपये का कोल ब्लॉक आवंटन घोटाला, 3,600 करोड़ रुपये का अगस्ता वेस्ट लैंड घोटाला और 3 हजार करोड़ रुपये का टेटा ट्रक खरीद घोटाला। 2008 में 1.76 लाख करोड़ रुपये का 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला हुआ। वर्ष 2012 में 70 हजार करोड़ रुपये का महाराष्ट्र सिंचाई घोटाला हुआ। 2010 में कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला हुआ जो 35 हजार करोड़ रुपये का था। वर्ष 2009 में 14 हजार करोड़ रुपयेसत्यम कंप्यूटर घोटाला हुआ। साल 2005 में 1,100 करोड़ का स्कॉर्पियन पनडुब्बी घोटाला हुआ। सच तो यह है कि कांग्रेस सरकार घोटालों की पार्टी बनकर रह गई थी और आज अगर वह सत्ता से बाहर है तो इसके पीछे भी उसकी नीयत की खोट ही बहुत हद तक जिम्मेदार है।
रही बात मोदी सरकार की तो उसके सत्ता में आने के बाद लूट-खसोट में शामिल कई उद्योगपतियों को लूट की रकम वापस भी करनी पड़ी। उद्योगपति बैंकों का कर्ज वापस करने को मजबूर हुए। कांग्रेस राज में तो बैंक में खाते खुलवाना भी किसी गरीब के लिए भगवान को पाने जैसा था लेकिन मोदी सरकार ने एक झटके में देश के लाखों लोगों के जन-धन खाते खुलवा दिए थे और वह भी शून्य बैलेंस पर। ऐसे में सहज ही समझा जा सकता है कि गरीबों का असली हितैषी कौन है। ओमप्रकाश जिंदल और नवीन जिंदल शुरू से ही कांग्रेसी रहे।
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जिंदल स्टील को अक्टूबर, 2017 में रायगढ़ और अंगूल स्टील प्लांट के दो यूनिट को 1,121 करोड़ में बेचना पड़ा। अगस्त 2017 में 6 हजार करोड़ वसूलने के लिए स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने अंगूल में जिंदल इंडिया थर्मल पावर प्लांट का टेंडर मंगवाया। एस्सार ऑयल को अगस्त 2017 में अपना 49 प्रतिशत शेयर रुस की कंपनी को बेचना पड़ा था और पांच बैंकों का 70 हजार करोड़ रुपये चुकाना पड़ा। जीवीके पॉवर एंड इन्फ्रास्ट्रक्चर को जुलाई, 2017 में बकाया चुकाने के लिए 3,439 करोड़ रुपये में बेंगलुरु इंटरनेशनल एयरपोर्ट बेचना पड़ा।डीएलएफ को दिसंबर, 2017 में अपना 40 प्रतिशत हिस्सा बेच कर बैंकों का 7100 करोड़ रुपया चुकाना पड़ा। जेपी एसोसिएट्स को 40 हजार करोड़ का कर्ज चुकाने के लिए 15 हजार करोड़ में अल्ट्राटेक और एसीसी को बेचना पड़ा।
बैंकों ने जेपी ग्रुप की 13, 000 करोड़ की जमीन बेचने की प्रक्रिया शुरू की। इस तरह और भी कई उद्योगपति हैं जिन्हें बैंकों से लिए गए कर्ज को लौटाने के लिए अपनी प्राॅपर्टी बेचनी पड़ी। यह कहना कदाचित गलत नहीं होगा कि कई डिपफाल्टर कंपनियों को ये सारे कर्ज कांग्रेस राज में ही मिले थे। मतलब देश को कौन लुटवा रहा था? इस बात को जानने के लिए कांग्रेस को अपने दौर में हुई पुरानी बातों को याद करना चाहिए। एक फिल्मी गीत है कि ‘करोगे याद तो हर बात याद आएगी।’राहुल खुद याद नहीं कर सकते तो कुछ भी बोलने से पहले उन्हें किसी तजुर्बेकार कांग्रेसी से सलाह जरूर ले लेनी चाहिए।
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जिस अनिल अंबानी को एक दौर में राहुल गांधी चोर कह रहे थे और इसके लिए उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी चोर ठहरा दिया था, उन्हीं की पार्टी की मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार ने उसी अनिल अंबानी पर मेहरबानी दिखाई थी। अनिल अंबानी के सासन पॉवर प्रोजेक्ट पर सरकार का 450 करोड़ रुपये बकाया है। इसकी वसूली एक साल के अंदर करनी थी। मगर मध्यप्रदेश की सरकार ने इसकी मियाद चार साल कर दी है। कमलनाथ सरकार ने कहा था कि सासन पॉवर प्रोजेक्ट से उत्पादित कुल बिजली का 37 प्रतिशत हिस्सा मध्यप्रदेश को मिलता है। वह भी डेढ़ रुपये प्रति यूनिट की दर से। उद्योग विभाग के अनुसार इस प्रोजेक्ट से मध्यप्रदेश को हर साल 2800 करोड़ रुपये की बचत होती है। अन्यथा यही बिजली सरकार को बाहर से चार रुपये प्रति यूनिट की दर से खरीदनी पड़ती। सवाल यह है कि उस दौरान सरकार आम उपभोक्ता को भी क्या डेढ़ रुपये यूनिट की दर से ही बिजली उपलब्ध करा रही थी। शायद नहीं? इसका मतलब साफ है कि उपभोक्ताओं को प्रति यूनट ढाई रुपये का चूना कांग्रेस की तत्कालीन कमलनाथ सरकार लगा रही थी।
बजाज ग्रुप पर कांग्रेस की मेहरबानी का ही नतीजा था कि बजाज ग्रुप दुपहिया वाहन के क्षेत्र में दो दशकों तक देश पर एकछत्र राज करता रहा। बिड़ला और बजाज ने कांग्रेस से आजादी के संघर्ष के दौरान कांग्रेस को दिए आर्थिक सहयोग की मोटी कीमत प्रकारांतर से वसूली। आजादी के बाद केन्द्र समेत देश की सभी राज्य सरकारों द्वारा केवल एम्बेसेडर कार ही खरीदी जाती रही। उस दौर में अन्य किसी भी कार की सरकारी खरीद की अनुमति नहीं थी। मुंबई के अलावा केवल एम्बेस्डर कार को ही टैक्सी का परमिट क्यों मिलता रहा? इसका क्या जवाब है कांग्रेस के पास? कांग्रेस की मेहरबानी से अम्बेसडर ने भारतीय बाजार पर लगभग 40 साल तक हुकूमत चलाई. एम्बेसडर कार को उद्योगपति बिरला ग्रुप बनाती थी। 1974 में टाटा को इटली कंपनी की कार प्रीमियर पद्मिनी भारत में बनाने की इजाजत मिली लेकिन टाटा को सरकारी खरीद और टैक्सी परमिट से दूर रखा गया। 1980-85 तक कार रखने की हैसियत सबकी नहीं थी, इसलिए कार बाजार का कारोबार सरकारी खरीद या टैक्सी परमिट पर आश्रित था। 1980 के दशक में मारुति कंपनी की कार बाजार में आई लेकिन उसे भी टैक्सी और सरकारी खरीद से बाहर रखा गया।
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मारुति के भारतीय बाजार में आने के बाद टाटा की प्रीमियर कार का बड़ा हिस्सा मारुति के पास चला गया , जो संजय गाँधी की सपनो की कार थी.।कार बाजार की तरह ही दुपहिया वाहन के क्षेत्र में बजाज के स्कूटर ने लगभग 20 साल तक एकछत्र राज किया। हालांकि उस समय चेकोस्लोवाकिया की बाइक यज्दी और ब्रिटेन की रॉयल एनफील्ड (बुलेट) को भारत में बेचने की अनुमति जरूर थी। आजादी के बाद लगभग 20 साल तक इटली की दो कंपनी वेस्पा और लम्ब्रेटा की दोपहिया वाहन भारत में बिकती रही। 1964 में बजाज ग्रुप को वेस्पा स्कूटर को बजाज के नाम से बेचने की अनुमति मिली और बाजार में उसका रास्ता साफ करने के लिए लम्ब्रेटा को सरकार ने ले लिया। दशकों तक बजाज का स्कूटर ब्लैक में बिकता रहा और बजाज ग्रुप पैसे छापता रहा। उस रेंज की बाइक बनाने वाली किसी भी कंपनी को भारत में व्यापर करने की अनुमति मिली जबकि आजादी के 29 साल बाद तक डीजल पेट्रोल केरोसिन तेल की खरीद बिक्री वितरण का पूरा कारोबार बर्माशेल एस्सो कालटेक्स (विदेशी मल्टीनेशनल कम्पनियों) के हाथों में ही था। जब अन्य क्षेत्रों में विदेशी कंपनियों को व्यापार की इजाजत मिल सकती तो फिर सिर्फ मोटर कंपनियों को (विदेशी) के भारत में प्रवेश पर रोक क्यों लगी रही ? इस रोक की वजह से ही भारतीय कार बाजार पर हिन्दूस्तान मोटर्स और बजाज आटो का एकछत्र एकाधिकार रहा।
1991 के उदारीकरण में जब विदेशी कंपनियों के लिए भारत के दरवाजे खुले तो एम्बेस्डर और बजाज दोनों की हालत खराब हो गई। तब से लेकर आज तक टाटा के ट्रक को कोई विदेशी कम्पनी का ट्रक चुनौती नहीं दे सका है। देश में 15-20 साल से मौजूद दर्जन भर देशी विदेशी मोबाइल कम्पनियों ने भारतीय ग्राहकों को खूब लुटा. उस दौर में भी सरकार कंपनी बीएसएनएल को जानबूझ कर एडवांस नहीं बनाया गया क्योंकि उसका कॉल रेट सबसे सस्ता था। अडानी हों अम्बानी हों , बिरला हों या बजाज, बिना सरकारी मेहरबानी के बिना कोई कुछ नहीं कर सकता। कांग्रेस को बताना चाहिए कि धीरूभाई अंबानी और ओमप्रकाश जिंदल पर क्या कांग्रेस कृपालु नहीं रही और यदि उसका जवाब हां है तो क्यों, इस सवाल का जवाब तो उसे देना ही चाहिए। सीबीआई की जांच रिपोर्ट बताती है कि कैसे 1 महीने के भीतर 1150 करोड़ का कर्ज विजय माल्या की कंपनी को मिल गया था। 7 अक्टूबर 2009 को चार बैंक अफसरों ने 150 करोड़ का शॉर्ट टर्म लोन दिया। 4 नवंबर 2009 को 200 करोड़ के ऋण की मंजूरी दे दी गई। 27 नवंबर को ही 700 करोड़ के कर्ज पर भी मुहर लग गयी। जब माल्या पहले से ही हजारों करोड़ के कर्ज के बोझ तले दबे थे तब उन पर इतने बड़े लोन की मेहरबानी किसके कहने से हुई, राहुल गांधी को देश के किसानों को यह भी बताना चाहिए।