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20th Anniversary of Parliament Attack: आज के दिन लहूलुहान हुआ था ‘लोकतंत्र का मंदिर’

लोकतंत्र के सबसे बडे मंदिर पर 20 वर्ष पूर्व 13 दिसम्बर 2001 को हुए आतंकवादी हमले ने न केवल भारतीय अस्मिता के मस्तक पर गहरा आघात किया बल्कि देश को ऐसा घाव दिया जो लंबे समय तक झकझोरता रहेगा।

हमले के मुख्य दोषी अफजल गुरु को हमले के 12 वर्ष बाद भले ही फंसी हो गई लेकिन फांसी चढ़ाने को लेकर देश में जिस तरह की राजनीति हुई उससे न केवल सुरक्षाबलों के मनोबल को ठेस पहुंची बल्कि लोकतंत्र शहीद हुए जवानों के परिजनों को न्याय मिलने में भी देरी हुई।

13 दिसम्बर 2021 को संसद की सुरक्षा में तैनात दिल्ली पुलिस के पांच कर्मचारियों नानक चंद, रामपाल, ओमप्रकाश, बिजेंद्र सिंह और घनश्याम के अलावा केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल में महिला कर्मचारी कमलेश कुमारी, संसद में सुरक्षाकर्मी जगदीश यादव और मातबर सिंह नेगी के लिये यह दिन भी सामान्य दिनों की ही तरह था लेकिन उन्हें यह नहीं मालूम था कि यह दिन उनके जीवन का अंतिम दिन है, उन्हें नहीं मालूम था कि जिस लोकतंत्र के मंदिर की सुरक्षा का प्रहरी बनने पर उन्हें नाज है उसी लोकतंत्र की अस्मिता बचाने के लिये उन्हें अपनी जान गंवानी पड़ेगी। एक तरफ यह सभी जवान संसद के भीतर मौजूद तमाम बड़े नेताओं, मंत्रियों व सांसदों की जान को सुरक्षित रखने के लिये अपनी जान को दांव पर लगाये हुए थे तो दूसरी ओर आतंकवादियों के रूप में मौत तांडव करती हुई उनकी ओर बढ़ रही थी।

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सवेरे लगभग साढ़े दस बजे गृह मंत्रालय का स्टीकर लगी एक अंबेसडर कार संसद परिसर में प्रवेश किया, उस समय कुछ सांसदों की गाडियां भी आवागमन कर रही थी, किसी को अंदाजा तक नहीं था कि सफेद रंग की कार में पांच आतंकवादी हैं और कार में भारी मात्रा में आरडीएक्स है। गेट नंबर 11 से उपराष्ट्रपति बाहर निकलने वाले थे, इसलिये उनकी गाडियों का काफिला उपराष्ट्रपति का वहां इंतजार कर रहा था। सफेद अंबेसडर को गेट नंबर 11 की ओर बढ़ते देख जब जहां मौजूद सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें रोका तो गोलीबारी शुरु हो गई और लगभग 45 मिनट तक लोकतंत्र का यह मंदिर मूक होकर आतंकवादियों का तांडव देखता रहा। सुरक्षा बलों ने आतंकवादियों को मार कर  संसद परिसर में मौजूद मंत्रियों व सांसदों की जान तो बचा ली लेकिन उक्त पांच जवान अपनी जान नहीं बचा सके।

संसद पर हुए इस हमले को 20 वर्ष बीत चुके हैं लेकिन यह हमला देश को एक ऐसा आघात दे गया है जिसकी यादें हमेशा बनी रहेंगी। शहीद हुए जवानों के परिजनों के लिये भी बीते बीस वर्ष का एक एक पल अपनों को खो देने के दर्द में बीता है। सबसे बड़ा दर्द तो हमले के मुख्य दोषी अफजल गुरु को फांसी देने में हुई राजनीति और जानबूझ कर की गई देरी रही। जेएनयू जैसे उच्च शिक्षण संस्थान में अफजल गुरु के समर्थन में हुई नारेबाजी की घटनाओं ने सुरक्षाबलों के मनोबल को ही नहीं तोड़ा बल्कि शहीदों के परिजनों को भी गहरे घाव दिये।

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